अद्भुत प्राकृतिक छटा, बौद्ध सभ्यता व संस्कृति के लिए प्रसिद्ध है लाहौल-स्पीति 

आदिकाल से देवताओं, गन्धर्वों, किन्नरों और मनुष्यों की मिली जुली जातियों का संगम स्थल रहा है लाहुल

  • सुनीता भट्ट पैन्यूली

देवभूमि हिमाचल प्रदेश जहां अपने because नैसर्गिक सौंदर्य के लिए प्रचलित है वहीं इसी प्रदेश का एक विश्व-प्रसिद्ध पर्यटक स्थल लाहौल-स्पीति अपनी अद्भुत प्राकृतिक छटा, बौद्ध सभ्यता और संस्कृति के लिए जाना जाता है.

हिमाचल

लाहौल और स्पीति  भारत का एक ऐसा क्षेत्र so जिसके अस्तित्व की भारत के मानक-चित्र में उपस्थिति की जानकारी  संभवतः बहुत कम लोगों को है, हिमाचल प्रदेश की दो पृथक हिमालयी घाटियां लाहौल और स्पीति हैं जो भारत तिब्बत सीमा पर स्थित हैं.

लाहौल घाटी जहां प्राकृतिक रूप से समृद्ध, चंद्र but और भागा नदियों द्वारा पोषित व फलीभूत है वहीं स्पीति अपने विस्तीर्ण बर्फीले रेगिस्तानों, लुभावने ट्रैक, घाटियों और मठों के लिए प्रसिद्ध है.

लाहौल-स्पीति. सभी फोटो गूगल बाबा की शरण से

रोहतांग दर्रे को पार करते ही लाहौल-स्पीति जिले because की सीमा शुरू हो जाती है. रोहतांग से सात किलोमीटर नीचे उतरकर कई घुमावदार मोड़ों को तय करते हुए ‘ग्राम्फू’ नामक स्थल आता है यहां से स्पिति घाटी के लिए दांयी ओर से और लाहौल घाटी के लिए बांई ओर से रास्ता जाता है. so यहां से जब लाहौल घाटी के लिए पहले सफ़र शुरू करते हैं तो चन्द्रा नदी पथ-प्रदर्शक बन जाती है और तांडी नामक स्थान पर केलांग से आती ‘भागा’ नामक एक अन्य नदी इस नदी में आ मिलती है.

हिमाचल

लाहौल-स्पीति के पूर्व में तिब्बत, पश्चिम में चंबा, because उत्तर में जम्मू-कश्मीर तथा दक्षिण में कांगड़ा, कूल्लू और किन्नोर की सीमायें लगती हैं. यह सबसे ठंडा इलाका है जहां चन्द्रा, भागा, स्पीति और सरब नदियां बहती हैं.

लाहौल-स्पीति जिले का मुख्यालय केलांग है

हिमाचल-प्रदेश के दो पूर्व जिलों लाहौल because और स्पीति के विलयोपरांत अब लाहौल और स्पीति एक जिला है विलय के पूर्व लाहौल का मुख्यालय करदंग और स्पीति का मुख्यालय दनकर था. सन् 1960 में पंजाब के कांगड़ा जिले से कुछ हिस्सों को अलग करके उन्हें लाहौल-स्पीति के नाम से नये जिले के रुप में हिमाचल प्रदेश से मिला दिया गया. 1991 की जनगणना के अनुसार 13835 वर्ग किमी में फैले इस जिले की जनसंख्या 31294 है और जनसंख्या घनत्व 2 व्यक्ति वर्ग किमी है.

लाहौल घाटी के बारे में बात करें तो यह चारों तरफ स्वर्णिम झीलों, दर्रो से घिरी अपने  विस्तृत वैविध्य प्राकृतिक सौंदर्य और  छटाओं के लिए विख़्यात है, हिमाचल की इस नयनाभिराम घाटी में प्रकृति  विभिन्न श्रंगारों में दृष्टिगोचर है कहीं गगन-चुंबी हिम शैलों के मध्य स्वर्ण रेशमी परिधान ओढ़े चमचमाती व झिलमिलाती झीलें हैं तो becauseकहीं पहाड़ों पर बने  मंदिर व गोम्पा (तिब्बती शैली में बने एक प्रकार के बौद्ध मठ के भवन या भवनों को कहते हैं) और उनमें बौद्ध मंत्रों की गूंज के साथ-साथ वाह्य यंत्रों के सुमधुर एक ऐन्द्रीक, दैवीय अनूभूति का अहसास कराते हैं ,तो कहीं-कहीं जड़ी-बूटियों की मदहोश करने वाली महक, बर्फ और बादलों के मिलन का सौंदर्य लाहौल घाटी के नैसर्गिक सौंदर्य की ओर पर्यटकों को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करता है.

हिमाचल

लाहौल घाटी को लाहुल कहने के butपीछे यह मान्यता है कि यह प्रदेश आदिकाल से देवताओं, गन्धर्वों, किन्नरों और मनुष्यों की मिली जुली जातियों का संगम स्थल रहा है इसलिए इसका प्रारंभिक नाम ल्हयुल पड़ा.

तिब्बती भाषा में ल्ह का मतलब देवता तथा युल का मतलब प्रदेश है अर्थात ल्हयुल का मतलब देवताओं का प्रदेश है जिसे लोगों द्वारा लाहुल कहा जाने लगा. यह मान्यता भी  है कि ईश्वर के संसार को (लाही-युल) कहा जाता है इसी से लाहौल बना, चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा-विवरण में लो-उ-लो से इसका नाम जोड़ा है.

हिमाचल

लाहौल घाटी इसी हिमाचल के लाहौल-स्पीति so जिले का वह हिस्सा है जहां लाहौल नाम की जनजाति सदियों पूर्व विस्थापित होकर पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी परंपरा अपनी सभ्यता के ढब में जी कर अपनी संस्कृति अपने रिवाज़ो को संजोकर जीते चले आ आ रहे हैं.

लाहौली लोग असहनीय हाड़-कंपाने वाली बर्फीली  सुबह-शाम, दिन रात तमाम विषम परिस्थितियों में पीढी-दर पीढी अपने पुरखों की धरोहर व सभ्यता को संजोये हर प्रतिकूल परिस्थितियों में अपना इतिहास व अपना वर्तमान जीते चले जा रहे हैं,न कोई चेहरे पर शिकन न थकान अपनी माटी से लगाव ने इनके चेहरे पर मुस्कान बिखेरी दी है becauseऔर अपने हौंसले की बदौलत यह कदम- दर- कदम ज़िंदगी के सफ़र को तय कर रहे हैं.

कहा जाता है भारत की आदिम मूल जाति मुंडा ने इसे बसाया था. ईसा शताब्दी पूर्व भोट देश के भोट-भाषी तिब्बत छोड़कर लद्दाख और लद्दाख से लाहौल स्पीति में आकर बस गये. becauseखश आर्य दक्षिण से आकर लाहौल-स्पीति में, यहां बसी तीन प्रमुख जातियों की तीन भाषाएं बुनम, तिनम और मंचात प्रमुख हैं संभवतः इन्हीं सभ्यताओं की लाहौल घाटी में एकजुटता का परिणाम है कि यह लाहौल घाटी हिन्दू और बौद्ध-धर्म की because विरासत को अपने भीतर सदियों से समेटे हुए हिमाचल राज्य के मानचित्र में एकता की अद्भुत मिसाल कायम कर रही है या ज़हां बौद्ध धर्म तिब्बत से आया वहीं दूसरी तरफ हिन्दू-धर्म पंजाब के प्रभाव से लाहौल की आबोहवा में घुल गया.लाहौल की पट्टन घाटी में हिन्दू आस्था से जुड़े लोग रहते हैं जबकि रंगोली  और गारा घाटियों में बौद्ध मंत्र गूंजते हैं.

हिमाचल

पट्टन घाटी में लाहौली जनजाति soके लोग शिव और दुर्गा यानी शक्ति की पूजा में विश्वास रखते हैं.

लाहौली जनजाति के लोगों में बौद्ध-धर्म मुख्यत: तीन संप्रदायों में प्रचलित है पहला न्योंग्मापा संप्रदाय दूसरा कग्युद्पा और तीसरा गेलुग्पा. न्योंग्मापा संप्रदाय सबसे प्राचीन है.गेलुग्पा संप्रदाय बौद्ध समाज में पीत संप्रदाय के नाम से जाना जाता है जिसमें लामा लोग पीली टोपी पहनते हैं. कग्युद्पा संप्रदाय भी लाहौली जनजाति के लोगों के लिए आस्था और विश्वास से जुड़ा मूल मंत्र है.

 

लाहौली जनजाति के लोगों में अपनी परंपरा, रीति-रिवाज और प्रकृति के प्रति विशेष आस्था और लगाव का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि “सब्दग” के रूप में जहां ये पर्वतीय-चट्टानों soकी पूजा करते हैं, वहीं गुफाओं की पूजा यह (व्राग्मों) के रुप में करते हैं, इनकी परंपराओं में पेड़-पौधों को भी सम्मानित स्थान दिया गया है इसी परंपरा में “फाला” नामक पेड़ को लाहौलियों द्वारा देवता की तरह पूजा जाता है, इसके अलावा लाहौली लोग अपने कुल देवता को भी मानते हैं यह कुल देवता इनके घर के किसी कोने में पत्थर या खंबे के रूप में स्थापित होते हैं. इस प्रकार लाहौली  जन-जाति के लोगों में अपने धर्म की मान्यता जीवन का सत्य-दर्शन भी है और आधार भी.

जाति व्यवस्था

उपरोक्त वर्णन में जैसे देखा गया है कि लाहौली जनजाति बौद्ध और हिंदू दोनों परंपराओं का वहन करते है और इन्हीं दोनों परंपराओं की मान्यता के अनुसार यहां जाति वर्गीकरण की व्यवस्था प्रचलन में  है, because यहां जातियों के वर्गीकरण का आधार वंशावली पद्धति यानी उच्च और निम्न जाति व्यवस्था के आधार पर की गयी है, उच्च जाति के ताल्लुक रखने वाले ठाकुर,स्वंगला और ब्राह्मण लोग खान-पान और शादी-व्याह जैसे संबंध अपनी ही जाति में बनाते हैं.इन उच्च जातियों में ब्राह्मण वर्ग केवल पट्टन घाटी तक ही सीमित है और शेष लाहौल में इनकी उपस्थिती मात्र भी नहीं है.पिछड़ी जातियों में वर्गीकरण उनके पेशे के अनुसार हुआ है. लाहौली जनजाति समाज में लोहार लोगों को ‘डोम्बा’ बुनकरों को ‘बेडा’ और ‘बारारस’ धरकार को ‘वालरस’ कहते हैं.उच्च जनजातियों के खेतों पर मजदूरी करने वाले भूमिहीन मज़दूरों को ‘हेस्सी’ का नाम दिया गया है.

भाषा

बौद्ध और हिंदू सभ्यता के मुहाने पर बसी घाटी की ज़ुबान पर भी रली-मिली भाषा सुनने को मिलती है, यद्यपि भाषा और परिवेश में भिन्न होते हुए भी यहां के लोग थोड़ी बहुत हिंदी समझ लेते हैं. because करीब आधा दर्जन बोलियों के जरिए अपनी बातों को कहने वाले लाहौरी जन-जाति की प्रमुख भाषाएं भोटी और चिनाली या डोम्बाली हैं. भोटी भाषा पर तिब्बती भाषा का प्रभाव है वहीं चिनाली या डोम्बाली संस्कृत भाषा की उपज लगती है.इन भाषाओं का प्रभाव भी क्षेत्रीय स्तर पर अलग-अलग दिखाई पड़ता है.भोटी भाषा लाहौली की रंगोली और गारा घाटियों में बोली जाती है. वैसे इन इलाकों में और बोलियां प्रचलित हैं जैसे पुनान,हिनान और चिनाली ,पट्टन घाटी में मनचाड़ का प्रचलन बहुतायत है.

गृह-निर्माण और शैली

अत्याधिक ठंड और बर्फबारी के कारण so लाहौलिया जाति के घर इस विशिष्ट शैली में बने होते हैं कि सर्दी की विषम परिस्थितियों में लाहौली अपने और अपने पशुओं की सुरक्षा कुशलपूर्वक कर सकें.

हिमाचल

लाहौल घाटी के घरों की शैली कॉलोनी नुमा होती है, मकानों का समूह ब्लाक के जैसा होता है ताकि बर्फबारी के दिनों में सभी एक-दूसरे से जुड़ा हुआ महसूस कर सकें. लाहौलिया अपने घर तीन मंजिलें but तक बनाते हैं सबसे निचला भाग पशुओं के रहने के लिए प्रयुक्त होता है और यहीं इसका प्रयोग पशुओं के चारा रखने के लिए भी किया जाता है.घर की ऊपरी मंजिल का प्रयोग लाहौली परिवार अपने रहने के लिए करते हैं,ऊपरी मंजिल पर एक भीतरी कमरा होता है जिसका प्रयोग जाड़े के दिनों में ठंड से बचने के लिए किया जाता है.बौद्ध संप्रदाय को मानने वाले लाहौली लोगों के मकानों के ऊपरी मंजिल पर इनके पूजा के कमरे होते हैं जिसे ‘चोखाग’ कहते हैं.

लाहौल घाटी के निचले हिस्सों में मकान के निर्माण की शैली लगभग एक सी होती है लेकिन इन मकानों में रहने के ऊपरी घाटी के मकानों की अपेक्षा बड़े खुले और हवादार होते हैं.इन मकानों में रौशनी के so भी बेहतर इंतज़ाम हैं, ऊपरी मंजिल के मकानों में  ऊपरी मंजिल पर बरामदे का होना भी ज़रूरी माना जाता है. इन घरों पर चूने से सफेदी की जाती है और कहीं-कहीं रंगों का प्रयोग भी दिखाई देता है. घर के भीतरी because भागों की सजावट लाहौली अपनी परंपरा के अनुसार करते हैं.कमरों की साज-सज्जा में ‘चोखाग’ यानि पूजाघर का विशिष्ट महत्व होता है, ‘चोखाग’ में बुद्ध के जीवन दर्शन से संबंधित तमाम पेंटिंगों के साथ-साथ थंका पेंटिंग की मौजूदगी अवश्य रहती है.

संयुक्त परिवार का प्रचलन

लाहौलिया परिवार में संयुक्त परिवार का चलन प्राचीन समय से ही चला आ रहा है,चाहे वह हिंदू समाज हो या बौद्ध समाज,उच्च जन्मजाति हो या निम्न-जनजाति सभी परिवार के सदस्य because माता-पिता, पुत्र-पुत्री, दादा-दादी,चाचा-चाची और उनके बच्चे  सभी एक ही छत के नीचे संयुक्त रूप से रहते हैं, पट्टन घाटी में पारिवारिक संरचना थोड़ी अलहदा नज़र आती है यहां परिवार में बड़े लड़के की शादी के बाद पिता घर से सन्यास ले लेता है और उस घर को त्याग कर दूसरे घर में रहने चला जाता है, संपत्ति उत्तराधिकार के मामले में लाहौली जन-जाति भारतीय सभ्यता के काफी so करीब नज़र आती है, लाहौली जनजाति में पिता की मृत्यु के बाद संपत्ति को सभी बेटों में बराबर बांट दिया जाता है.यदि कोई पुत्रहीन हो तो उसकी मृत्यु के बाद संपत्ति को अन्य भागों में बांट दिया जाता है.

विवाह-प्रथा

लाहौली जनजाति में सगोत्रीय विवाह नहीं होते किंतु सजातीय विवाह को सामाजिक मान्यता प्राप्त है.लाहौल की पट्टन घाटी में ब्राह्मण मौसेरी, because ममेरी और फुफेरी बहनों से वैवाहिक संबंध नहीं बनाते लेकिन अन्य जातियों में ऐसी ही मान्यता है. लाहौली जाति में तीन-प्रकार के विवाह प्रचलित हैं पहला मोथे विवाह,दूसरा कोवांची विवाह और तीसरा कुंची विवाह.

मोथे और कोवांची विवाह लगभग एक जैसे होते हैं और दोनों में माता-पिता की मंजूरी होती है. मोथे विवाह केवल भव्यता के आधार पर कोवांची से भिन्न होता है.कुंची विवाह अन्य घाटियों की because अपेक्षा गारा और रंगोली में ज़्यादा प्रचलित है. कुंची आधुनिक समाज के प्रेम विवाह के जैसा है जिसमें लड़का और लड़की एक दूसरे को पसंद करते हैं इसके बाद लड़का, लड़की की सहमति से उसका छद्द अपहरण कर लेता है, बाद में दोनों पक्षों की रजामंदी से लड़के और लड़की का विवाह होता है जिसे कुंची विवाह कहा जाता है.

कोवांची विवाह लाहौली समाज का ऐसा विवाह है जिसमें ज़्यादा दिखावा व ताम-झाम नहीं होता, इस विवाह में बहुत ही कम लोग शामिल होते हैं गौरतलब है कि यहां विवाह में दूल्हा तक because अपनी बारात में नहीं जाता दूल्हे की जगह उसकी छोटी बहन बारात लेकर जाती है और दुल्हन की विदाई कराकर ले आती है यहां यह तथ्य इस परंपरा को पुष्ट करता है कि लाहौली समाज में महिलाओं की स्थिती पुरूषों के समकक्ष ही है जहां महिलायें केवल घरेलू कामों तक ही सीमित नहीं हैं वरन पुरूषों के साथ खेती-बाड़ी में भी बख़ूबी साथ देती हैं और घर के सभी फैसलों में महिलाओं की राय भी बड़ी मायने रखती है.

पारंपरिक परिधान और गहने

जगजाहिर है कि महिलाओं को गहनों से बहुत लगाव होता है और इस प्रसंग में लाहौरी जन-जाति की महिलाएं भी अपवाद नहीं हैं” किरकिस्टी” इनका खास गहना होता है जो सोने या चांदी का because बना होता है,यह “किरकिस्टी”इनके सिर की शोभा बढ़ाता है सिर पर पहनने वाला एक और गहना इनके बीच काफी लोकप्रिय है जिसे पोशाल कहते हैं.लाहौली महिलायें  गले में चांदी की जंजीर पहनती हैं जिसे (न्यानधांग )कहते हैं.इसके अलावा इनके नाक और कानों की शोभा बढ़ाते हैं ‘फुली और अलोंग’.

महिलाओं के बरक्स लाहौली पुरूष भी पारंपरिक परिधान के साथ उंगलियों में अंगुठी कानों में मुरकी और गले में क्यांटी पहनने का शौक रखते हैं.लाहौली पुरूषों का  पारंपरिक परिधान इनके भौगौलिक परिस्थितियों के अनुसार बना है.ऊनी कपड़े का पायजामा, कपड़े का ही गाऊन की तरह का कोट,कमरबंद (कमरबन्द जैसा पटका, because ऊनी सदरी, मोजे, पुआल के जूते और सिर पर गिलगिट जैसी टोपी. लाहौली महिलायें पायजामा और कुर्ता पहनती हैं कुर्ते के ऊपर गाऊन की तरह’डुग्पो’ पहनती हैं जिसकी लंबाई घुटनों तक होती है और इनके किनारों पर बारीक कढ़ाई होती है महिलाएं ‘डुग्पो’ को कसा रखने के लिए कमर पर ‘पटका’ भी बांधती हैं पैरों में ऊनी मोजे और पुआल के बने जूते होते हैं जिसे पुल कहते हैं.भोटी महिलाओं को छोड़कर स्वांगला,शिप्पी और लोहार जन-जाति की महिलाएं गोल टोपी पहनती हैं.

खान-पान

लाहौल- जनजाति के खान-पान में भी भारतीय और तिब्बती परंपरा की झलक दिखाई देती है,लाहौली लोगों के सुबह के नाश्ते को शेमा कहते हैं जिसमें थुंग्पा नामक  व्यंजन खाया जाता है.because थुंग्पा जौ के भुने हुए आटे से बनता है. यह शाकाहारी और मांसाहारी दोनों विधियों से बनाया जाता है फ़र्क सिर्फ़ इतना ही कि एक में सब्जी मिली होती है और दूसरे में मांस.

लाहौलियों के दोपहर के भोजन को छिक्किन कहते हैं छिक्किन में जौ के भुने हुए आटे की रोटियों के साथ आलू की सब्जी होती है. आलू लाहौलियों का पारंपरिक खाना नहीं है, लेकिन because बीतते समय के साथ आलू ने भी लाहौली पारंपरिक थाली में अपनी जगह बना ली है. छिक्किन खत्म होने के बाद बारी आती है छांछ की, छांछ लाहौली लोगों के दोपहर के खाने में ज़रूर शामिल होता है, रात के खाने को लाहौलियों ने यंग्सिकन  नाम दिया रात का यह खाना छिक्किन यानि दोपहर के खाने की तरह ही होता है इसमें केवल छांछ को शामिल नहीं किया जाता है.

प्रतिकूल मौसम व विषमताओं का परिणाम है संभवत: लाहौली लोग अपने जीवन-यापन के प्रबंधन में कुशलता का भी परिचय देते हैं, जाड़े के दिनों में  इन्हें मांस मिलने में कठिनाई न हो इसके लिए because ठंड आने से पूर्व ही ये मांस सूखाकर रख लेते हैं. मांस संरक्षण की यह विधि लाहौलियों के परंपरा की विशेषता है बनिस्बत इसके इनके खान-पान में दो और महत्त्वपूर्ण चीजें शामिल होती हैं जो इनके दैनिक जीवन का हिस्सा तो हैं ही because साथ ही मेहमाननवाज़ी के लिए भी बख़ूबी इस्तेमाल होती हैं मक्खन की नमकीन चाय के साथ-साथ छंग और अराक पीने का कोई निश्चित समय नहीं होता,दिल जब करे बैठ जाओ हाथों में मक्खन की नमकीन चाय या छंग,अराक के साथ.

रसोई के बर्तन

लाहौलियों की रसोई के बर्तन भी इनके अतीत से वर्तमान तक के सफ़र की दास्तां बयां करते हैं. पुराने समय में लाहौली जनजाति के लोग पत्थरों के बर्तन का प्रयोग करते थे.उन बर्तनों में कुंपड because अपनी विशेष पहचान रखता था.समय के साथ-साथ बर्तनों में भी परिवर्तन आने शुरू हुए और बर्तनों ने पत्थर की बजाय लकड़ी की शक्ल ले ली.लकड़ी के ऐसे ही बर्तनों में ‘डांगमों ‘का प्रयोग नमकीन और मखनियां चाय बनाने के लिए किया जाता है.

आज बर्तनों का वर्तमान स्वरूप पत्थर और because लकड़ी को छोड़कर धातु का रूप ले चुका है. दुनिया के रंग -ढंग में ढलते हुए लाहौली रसोई में भी कांसे,पीतल ,अल्युमिनियम और स्टील के बर्तन दाख़िल हो चुके हैं जो किसी भी घर के लिए सामान्य हैं.परंतु लाहौली जनजाति के लोगों ने अपनी जीवटता और मेहनत के बल पर पत्थरों से अन्न उपजाया है.

खेती (एक मौसम में एक ही फसल)

लाहौल घाटी में आलू, होम, कुथ जौ, because मेथी और गेहूं की खेती प्रमुखता से की जाती है. लाहौल में केवल बीस फीसदी जमीन ही कृषि कार्यों के लिए है.उनमें जमीनों को भी दो भागों में बांटा गया है एक तो वह  जहां सिंचाई हो सके और दूसरी जहां सिंचाई की सुविधा नहीं है.because लाहौल के लिए मौसम भी एक बड़ी चुनौती है और इस चुनौती का डटकर मुकाबला करते हुए लाहौली एक मौसम में एक ही फसल पैदा कर पाते हैं. खेती के जी तोड़ मेहनत में भी लाहौरी गाना-गुन गुनाना नहीं भूलते हैं.फसलों की बुवाई हो या कटाई लाहौली झूमते हैं ,गाते हैं और जश्न मनाते हैं.

बुनाई

लाहौल की भीषण सर्दी में जब because लाहौली जनजाति घर में  ही रहकर सर्दी से अपना बचाव करती है तब इन दिनों लाहौलियों का पसंदीदा काम होता कपड़ों की बुनाई.

पशुपालन लाहौली जनजाति का हिस्सा है, लाहौली लोग याक, खच्चर, गाय, भेड़ और बकरे-बकरियों का  पालन करते हैं. इन पशुओं में भेड़ और बकरियों का प्रयोग मांस प्राप्त करने के लिए किया जाता है. ठंड भरे जाड़ों के दिनों में लाहौली जनजाति के लोग जब घरों से बाहर नहीं निकलते तो लगभग हर लाहौली घर में हथकरघों पर बुनाई होती है. भेड़ के उन से लाहौली लोग अपने पहनावे के लिए गर्म कपड़े तैयार करते हैं. परंपरागत शैली के  कपड़े इनकी सभ्यता के भी परिचायक हैं.

खेल

“त्सोग्बे” लाहौलियों का पसंदीदा खेल है. मनोरंजन और खेलकूद किसी भी समाज की मानसिक और शारीरिक मजबूत बुनियाद के लिए अत्यंतावश्यक है. लाहौली लोगों के मनोरंजन की अपनी खास विधायें हैं, इनके खेलों पर भारतीय और तिब्बती परंपरा की विशेष छाप दिखाई देती है.शतरंज की तरह खेले जाने वाला ‘त्सोग्बे’ लाहौलियों का पसंदीदा खेल है.

शतरंज की ही तरह इस खेल में राजा, वजीर, सिपाही से दिमागी कसरत की जाती है. ‘त्सोग्बे’ की तरह ही गोटों खेल भी लाहौलियों को ख़ूब रास आता है.पत्थरों की गोटियों से खेले जाने वाला यह खेल भी शतरंज की तरह खेला जाता है.

परंपरागत नृत्य

इंसानों की ज़द्दोज़हद भरी ज़िन्दगी में रंग और उत्साह भरने में मेले महत्त्वपूंर्ण भुमिका निभाते हैं.लाहौली भी अपनी कठिन और दुरूह ज़िंदगी में रंगों से सराबोर होने के लिए वार्षिक मेले का आयोजन करते हैं.

लाहौलियों का सबसे पसंदीदा मेला है “लदर्चा” यह वार्षिक मेला अपने विविध आयोजनों मसलन पशुव्यापार ,नृत्य संगीत और पारंपरिक वस्तुओं के खरीद -बिक्री का महत्त्वपूर्ण माध्यम है. भगवान शिव के त्रिलोकीनाथ मंदिर के समीप ‘पोरी’ मेला आस्था और विश्वास की अमिट छाप लिए हुए है. वहीं ‘सिससु’ मेले में बौद्ध मान्यताओं के दर्शन होते हैं इसके अलावा ‘फागली’ और ‘हालदा ’ पर्व भी लाहौली जनजाति के प्रमुख मेलों में शामिल हैं.

नृत्य

लाहौली समाज के नृत्य कला को समझने से पहले यह जानना भी ज़रूरी है कि लाहौल घाटी तिब्बती तथा लद्दाखी लोगों में गरजा नाम से प्रसिद्ध है तथा कुछ लोग इसे करजा भी कहते हैं. गरजा शब्द गर तथा जा दो शब्दों की संधि से बना है,भोट भाषा में गर का अर्थ नृत्य तथा जा का अर्थ कदम है अर्थात कदमों का नृत्य इसीलिए लाहौली संस्कृति में नृत्य में कदमों का बहुत महत्त्व है.

लाहौली समाज में लोग तमाम मुश्किलों को झेलते हुए भी ख़ुश रहना जानते हैं इसलिए खुशियों का कोई भी अवसर हो बिना नृत्य और संगीत के यह अधुरा ही रहता है .नृत्य और संगीत से लाहौलियों का सदियों पुराना लगाव है.

छम (मुखौटा) नृत्य

लाहौली समाज में स्त्री और पुरूष दोनों ही नृत्य की विधा में पारंगत होते हैं.छंग और अराक,नृत्य  संगीत का ऐसा समा बांधता है कि सारी दुश्वारियों को भूल लाहौली लोग नाचते और झूमते हैं. बांसुरी की धुन और नगाड़ों की छाप पर पुरूष और महिलाएं अलग-अलग समुहों में ” शेहनी” नृत्य करते हैं.

हिमाचल

लाहौल जनजाति में बौद्ध मान्यता पर आधारित ‘छम’ (मुखौटा) नृत्य भी अपनी खास पहचान बनाये हुए है. छम नृत्य मुखौटा लगाकर किया जाता है.यानि नृत्य करने वाले मुखौटों के द्वारा दूसरे का रूप धारण करके ‘छम ’ को जीवंत रूप में प्रस्तुत करते हैं.इसके अलावा लाहौलियों में ‘धुरे’  नृत्य भी खासा प्रचलित है.इस नृत्य में नर्तक अर्द्धगोलाकार और गोलाकार घेरा बनाकर आकर्षक नृत्य की प्रस्तुति करते हैं.यह नृत्य मुख्य रूप से गायन पर आधारित है और इसमें बाह्य यंत्रों के संगीत का अभाव होता है,इस नृत्य में गायन की शैली इतनी प्रभावशाली होती है कि संगीत नहीं भी होने पर असर नहीं पड़ता‘ धुरे नृत्य में रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों पर नाट्य नृत्यों की प्रस्तुति की जाती है.

जनजातियां क्या हैं?

जनजातियां वह मानव समूह हैं जो  एक निश्चित भू-भाग में निवास करती है जो शहर की पहुंच से दूर अपना कहीं कुनबा बसा लेती हैं और इनके पूर्वजों की संस्कृति ,सभ्यता कहीं न कहीं इन  जनजातियों के प्रत्येक व्यक्तित्व में सुगंधि की तरह बसी होती है . इन जनजातियों की अलग संस्कृति अलग रिति-रिवाज अलग भाषा होती है.

हिमाचल

अन्य जनजातियों के अतिरिक्त लाहौली जनजाति भी so मध्य हिमालय के अंतर्गत लाहौल घाटी में बसी ऐसी ही एक भोट जाति और हिंदू सभ्यता का समिश्रण है जो सदियों से अपनी संस्कृति और परंपरा के संवाहक है तथा अपनी विशिष्ट परंपरा और रिवाज़ के जरिए भारतीय संस्कृति को एक अदद पहचान देती हैं.

हिमाचल

लाहौली जनजातियां चूंकि शहरी लोगों से अपना संबंध नहीं बना पाती इसलिए ये जाति आधुनिक दुनिया से अपने को अलग-थलग पाती हैं अत: लाहौलियों की समस्याओं  और उनकी दूश्वारियों को इसी से because समझा जा सकता है कि लाहौल-स्पिति जिला मई से दिसंबर यानि छः महीने बर्फ से घिरा होता है जिससे कि काम करने के सीमित मौसम के कारण इस घाटी में विकास संबंधी कार्यों में उच्च लागत और विलंब होता है.इसके अतिरिक्त यहां कि मिट्टी गीली , फिसलन व रेतीली है और बर्फ के पिंघलने के साथ भू-स्खलन होने के कारण सड़कें और सिंचाई चैनल क्षतिग्रस्त हो जाते हैं और मरम्मत में नव-निर्माण से ज्यादा लागत आती है

हिमाचल

दूसरी समस्या महंगे परिवहन की है ज्यादातर मामलों में,योजनाएं जो दुर्गम ऊंचाई में स्थित हैं जहां सभी सामग्री निष्पादन के लिए शारीरिक श्रम के माध्यम से किया जाता है वहां उच्च श्रम चिंता because का कारण है और अधिक समय की खपत करता है.

तीसरी समस्या जो गौर करने वाली है वह है “इरेटिक मेल सिस्टम” यह विकास संबंधी गतिविधियों के उचित कार्यान्वयन में मुख्य बाधा है यहां तक कि एक सामान्य मेल अपने गंतव्य तक पहुंचने में एक महीने का समय ले लेता है अत: यहां नियमित डाक-व्यस्था सुचारू करने की दरकार है.

हिमाचल

इस प्रकार उपरोक्त हमने लाहौल जनजाति और उसकी सभ्यता व संस्कृति के बारे में सघन रुप से जाना कि लाहौल-स्पिति की बर्फीली और हाड़-मांस कंपा देने वाली सर्दी में कैसे हंसते but हुए, गाते हुए लाहौली जीवन की दुश्वारियों को झेलते हुए अपनी संस्कृति व परंपराओं को संवाहक के रुप में पीढी-दर पीढी हस्तांतरित कर रहे हैं. बहुत सी संभावनाऐं हैं लाहौली परंपरा और उनकी शैली को व्यापक स्तर में पहचान देने में ज़रूरत है तो लाहौलीयों की बुनियादी समस्याओं की नये सिरे से पड़ताल और समाधान की, और लाहौली समाज को मुख्यधारा से जोड़ने कि कहीं ऐसा न हो बौद्ध और हिंदू सभ्यता की यह मिलन-स्थली संस्कृति व परंपराओं से समृद्ध  विलुप्तता के कगार पर पहुंच जाये, अतः व्यापक स्तर पर इस लाहौली जनजाति को सुरक्षित व संरक्षित करने की दरकार है हमारी सरकार और हमारे आधुनिक समाज से.

(लेखिका साहित्यकार हैं एवं विभिन्न पत्र—पत्रिकाओं में अनेक रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं.)

Share this:

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *