कुमाऊंनी होली संग, झूमता बसंत

  • डॉ. पुष्पलता भट्ट ‘पुष्प’

हिमालय  के प्रांगण में स्थित, देवताओ की अवतार स्थली ,ऋषि मुनियों की तपोभूमि  उत्तराखंड अपने नैसर्गिक सौंदर्य के लिए विश्व भर में जाना जाता है. अभाव,कठोर परिश्रम,संघर्ष  में भी वहां के  लोग अपने लिए खुशियों के पल जुटा ही लेते हैं. जीवन यापन का प्रमुख साधन खेती होने के कारण  वहां तीज- त्योहार,  मेले- उत्सव सभी  कृषि से जुड़े होते हैं. होली ऐसा ही एक परम्परागत त्योहार है,  जो वहां के संघर्ष भरे जीवन में नव उमंग व नव उत्साह लेकर आता है. उत्तराखंड में बसंत पंचमी (इसे माघ शुक्ल पंचमी भी कहते हैं ) से शीत ऋतु की समाप्ति  मानी जाती है. पूरी धरती प्योली, बुराँस, दुदभाति, दाड़िम,सरसों के पुष्पों का पिछौड़ा (चूनर) ओढ़ दुल्हन सी इठलाती है. नई फसल कटकर खलिहानों से घर आती है. और अगली फसल के लिए खेतों में बुआई का काम शुरू हो जाता है. प्रकृति नाचती है, तो मन भी नाचता है.

कुमाउंनी होली. सभी तस्वीरें — डॉ. पुष्पलता भट्ट.

प्रकृति के इसी बासंती उल्लास के साथ आरम्भ हो जाता है ‘बैठी होली’ गायन. और मन  हुल्लारों ( गायन की परम्परागत शास्त्रीय शैली में होली गाने वाले सिद्धहस्त गायक ) के साथ-साथ होली के गीतों संग झूम उठता है. उत्तराखंड की होली का विशेष महत्व इसलिए है कि यह केवल एक या दो दिन  का त्योहार  नहीं है. इसे बसंत पंचमी से लेकर  दुल्हंडी (छरणी) तक क्रमशः बैठी होली और खड़ी होली के रूप में ,पूरे उत्तराखंड में लोकगीतों व लोकनृत्य के साथ मनाया जाता है.

बसंत पंचमी से बैठी होली के गायन की परम्परा  है. जिसमें दूर- दूर से होली गायकों को आमंत्रित क्या जाता है.  इसका आरम्भ 15वीं शताब्दी में चन्द्र राजाओं के समय से माना जाता है. बाद में यह परम्परा सम्पूर्ण कुमाऊँ में फैल गई.कुमाऊँ के नैनीताल व अल्मोड़ा जिले में तबला , हुड़का,  हारमोनियम के साथ दादरा , ठुमरी, भैरव,श्याम कल्याण,  धमार  आदि राग- रागनियों के रूप में  होली गायन प्रसिद्ध है.  अल्मोड़े की बैठी होली में भाग लेने के लिए तो , दूर- दूर से गायक आते हैं.

कुमाऊँ की होली के विषय में  “‘प्रभात साह गंगोला’  सहित अनेक विशेषज्ञों का मानना है कि इसका इतिहास प्रदेश की राजधानी अल्मोड़ा की स्थापना से भी पूर्व से चार शताब्दियों से भी अधिक समय पुराना है. इनके अनुसार कुमाउनी होली का मूल स्वरूप काली कुमाऊँ से खड़ी होली के स्वरूप में आया होगा, लेकिन चंद वंशीय शासकों की राजधानी अल्मोड़ा में उस दौर के प्रख्यात शास्त्रीय गायक अमानत अली खां और गम्मन खां की शागिर्द ठुमरी गायिका राम प्यारी जैसी गायिकाएं यर्हां आई, और स्थानीय शास्त्रीय संगीत के अच्छे जानकार शिव लाल वर्मा आदि उनसे संगीत सीखने लगे. वह 14 मात्रा में पूरी राग-रागिनियों के साथ होली गाते थे. ऐसे ही अन्य बाहरी लोगों के साथ कुमाउँनी होली में ब्रज, अवध व मगध के अष्टछाप कवियों के ईश्वर के प्रेम में लिखे गीत आए.

कालांतर में होलियों का मूल शास्त्रीय स्वरूप वाचक परंपरा में एक से दूसरी पीढ़ी में आते हुए और शास्त्रीय संगीत की अधिक गहरी समझ न होने के साथ लोक यानी स्थानीय पुट से भी जुड़ता चला गया, और कुमाउनी होली कमोबेश शास्त्र व लोक की कड़ी सी बन गई.”…

होली गायन का आरम्भ ईश आराधना से होता है…
सिद्धि को दाता विघ्रविनाशन.
होली खेले, गिरजापति नंदन .

राधा-कृष्ण, राम,शिव ,देवर भाभी से संबंधित गीतों का प्रचलन है. जिसमें ब्रज की संस्कृति का प्रभाव  अधिक  दिखाई देता है.

रंग डालि दियो हो अलबेलिन में.
कहां से आए, कुँअर कन्हैया,
कहां से आई, राधा गोरी.
बरसाने से, आई राधा प्यारी.
मथुरा से आए, कृष्ण मुरारी.

आमतौर पर राग धमार से होली का आरम्भ किया जाता है….

जब फागुन रंग झमकते हों,
तब देख बहारें ईहोली की.

तथा राग भैरव से समापन किया जाता है…

मुबारक हो मंजरी फूलों भी
ऐसी होली खेले, जनाबे अली

उपरोक्त उद्धरणों से स्पष्ट है कि कुमाऊँनी होली- गीतों में कहीं- कहीं पर इस्लामी संस्कृति व उर्दु का प्रभाव दिखाई देता है. इस विषय पर लोकगायक गिरीश तिवारी  ‘गिर्दा’ का कथन दृष्टव्य हैं …

“यहां की होली में अवध से लेकर दरभंगा तक की छाप है.जो राजकुमारियाँ यहां ब्याह कर आईं, वे अपने यहां की छाप लेकर आईं.जो कुमाऊँनी लोक परम्परा में पीढ़ी दर पीढ़ी सुरक्षित रखी गईं.”–

बसंत पंचमी से लेकर शिवरात्रि तक सम्पूर्ण उत्तराखंड में बैठी होली गाई जाती है. जिसमें सभी लोग एक जगह पर एकत्रित होकर , गायन  का आनन्द लेते हैं. जैसा कि उपर बता चुकी हूँ , इस अवसर पर विशेष रूप से सिद्धहस्त संगीतज्ञों को हुल्लार ( होली गायक) के रूप में निमंत्रण देकर ससम्मान बुलाया जाता है. विभिन्न राग-रागनियों में ,पारम्परिक शैली में गीत गाकर वे सबको मंत्रमुग्ध कर देते हैं. आम तौर पर बैठी होली में धार्मिक विषयों पर गाने की परम्परा है…

हरि खेल रहे हैं होली , देवा तेरे द्वारे में .
उड़त अबीर गुलाल, देवा तेरे द्वारे में .

परन्तु राधा ,कृष्ण  और गोपियों के प्रेम संबंधी  गीतों को  गाकर  कभी-कभी वातावरण को मिठास व आनन्द  से भर देते हैं…

मोहन गिरधार
चीर चुराया, कदम चढ़ बैठि
हाथ लिए पिचकारी.

ए-चल उड़ जा रे भवर, तोको मारेंगे.– 3 बार
उड़ि-उड़ि भवरा, फूलन बैठे– 3 बार
फूलन को रस ले भवरा.

बैठी होली में गाँव की स्त्रियों द्वारा गाई जाने वाली होली का भी विशेष महत्व है. किसी एक घर में सभी महिलाऐं एकत्रित होकर परम्परागत गीत गाती हैं. जिसका आरम्भ गणपति की आराधना से करती हैं…
“तुम सिद्धि करो महाराज  होलिन में.”

इसमें पुरुषों का आना  पूर्णत: वर्जित होता है. स्त्रियाँ ही पुरुष का स्वांग भरकर अर्द्धनारीश्वर की कल्पना को मानो अपने गीतों में साकार कर देती हैं. श्रृंगार , मिलन-विछोह, संघर्ष ,देवर- भाभी, नन्द की ठिठोली से भरे इन्द्रधनुषी गीतों की झंकार में वे  कुछ  पल के लिए अपने दुख-दर्द, अभाव, पीड़ा सभी को भूल जाती हैं. इन गीतों में उनके जीवन का प्रतिबिंब ही तो दिखाई देता है. कहीं होली के अवसर पर प्रिय से घर रुकने की मनुहार है …

मत जाओ पिया, होली आई रही
जिनके पिया परदेश बसत,
उनकी नारी भई , सोच भरी.

तो कहीं घर संसार की परेशानियों  को हास्य व्यंग्य के द्वारा  गीतों में ढालकर सहज बना देती हैं…

जल कैसे भरूँ, जमुना गहरी
ठाड़े भरूँ, राजा राम जी देखें
बैठी भरूँ, भीजे चुनरी.
जल कैसे भरूँ, जमुना गहरी.
धीरे चलूँ, घर सास बुरी है.
धमकी चलूँ,छलके गगरी.

त्योहार के अवसर पर घर आए देवर द्वारा स्वयं को महत्व दीए जाने  की खुशी में रगों की छलकन देखिए…

म्यौर रंगीलौ देवर, घर ऐ रौछौ.
म्यौर लाड़लौ देवर, घर ऐ रौछौ
कै हैंति बिन्दुलि, कै हैंती चूड़ी.
म्यैंहति नथुलि, ल्यैरौछौ.

जिस घर में बैठी होली के लिए सब महिलाएँ एकत्रित होती हैं, उस घर के सबसे छोटे से लेकर सबसे बड़े सदस्य  का नाम लेकर आशीर्वाद देती हैं. तथा रंगभरी होली खेलते रहने की मंगल कामना के साथ समापन करती हैं…
जी रया, जागि रया कै गेछा
फागुन फूलौ कै गेछा.

शिवरात्री के पश्चात आरम्भ होती है ‘खड़ी होली’. गाँव में किसी सार्वजनिक स्थल या देवताओं के थान में चीड़ की लकड़ी का एक खम्बा गाड़ा जाता है. प्रत्येक घर से नए कपड़े का एक-एक टुकड़ा (चीर) लेकर ,उसपर रोली, चंदन,गुलाल, रंग लगा, खम्बे पर बाँधा दिया जाता है. जिसे  छोटी होली के दिन , होलिका दहन के समय  जलाते  हैं. तब तक पूरा गाँव बारी- बारी इसकी रक्षा करता है. परम्परा है कि यदि किसी अन्य गाँव के लोग इस चीर का हरण कर लेते हैं,  तो गाँव वाले तब तक अपने गाँव में चीर- स्तम्भ की स्थापना नहीं कर सकते,जब तक किसी अन्य गाँव से चीर हरण कर नहीं ले आते. बुजुर्गों का कहना है, जिन गाँवों को सामंतों द्वारा  ध्वजा प्रदान की गई थी, वहां यह परम्परा आज भी प्रचलित है.

इसके साथ ही, अबीर-गुलाल लगाकर, इस दिन आंवले के वृक्ष की पूजा भी की जाती है. हुल्लारों सहित सभी के माथ पर रंग का टीका लगाकर, खड़ी होली का विधिवत आरम्भ किया जाता है. गाँव के स्त्री-पुरुष हुल्लारों के साथ चीर- स्तम्भ  के चारों ओर पारम्परिक नृत्य (झोड़ा) करते हैं. और दमाऊ, हुड़का, रणसिंग आदि कुमाऊँनी वाद्ययंत्रों के साथ  लोकगीतों पर आधारित होली के गीतों संग झूम उठते हैं. स्तम्भ पर बँधे चीर व होली के रंगों को सर्वप्रथम राजा राम और गणपति को अर्पित करते हुए भक्ति भाव से गाते हैं…

कैलै बाँधो चीर,  हो रघुनन्दन राजा.
गणपति बाँधो चीर,  हो रघुनन्दन राजा.

गिरिजापति नंदन होली खेल रहे हैं तो थिरकते पगों , झोड़ों के झमाकों संग, गीतों की रसधार तो बहेगी ही…

हर फूलों से ,मथुरा छाई रही…3 बार
पूरब झरोखे विष्णु जी बैठे
लक्ष्मी झूला झुलाई रहीं.
हर फूलों से मथुरा छाई रही.

होली गायक घर-घर जाते हैं. चाँदनी रात , हुड़के की थाप , थिरकते पाँव, धर्म किवाड़ खोलने का आग्रह…
“खोलो भईया धर्म किवाड़,  हम होली खेलें.”

लोकधुन के साथ मन में मिठास घोलता एक और गीत, जिसे होली के आसपास अक्सर पिताजी (डॉ. नारायण दत्त पालीवाल) गुनगुनाया करते थे. और अब फागुन के आते ही, स्वयं मैं गुनगुनाने लगी हूँ…

जोगी आयो शहर में व्यौपारी.
हो-इस व्यापारी को प्यास बहुत है,
पानी पिला दे, ओ- नथ वाली.
जोगी आयो शहर में, व्यौपारी.

विरह,वियोग की पीड़ा में भी , होली व प्रेम के रंग में भीगा हृदय आशा, भक्ति की पतवार थाम गा उठता है…

मैं तो कर आई कौल करार,
देवा तेरे मंदिर में.
बलमा घर आयो, कौन दिना.
सजना घर आयो, कौन दिना.

इस तरह घर-घर जाकर हुल्लार होली गाते हैं. इस अवसर पर वह विशेष प्रकार के वस्त्र, चूड़ीदार पजामा, कुर्ता, वास्कट, सिर पर टोपी पहनते हैं. छोटी होली के दिन चीर  सहित लकड़ी को होलिका दहन की अग्नि में जला दिया जाता है. कहीं -कहीं उसे पानी में  प्रवाहित करने की  हैं. बच्चों में चीर के टुकड़ों को छीनने की होड़ लग जाती है.मान्यता है कि जिसके पास वह टुकड़ा होगा, उसके पास  कोई  छिल- छिद्र नहीं आ पाएगा.

अंतिम दिन होता है, छरणी (दुलैंडी) काख. कुमाऊँ में होली के लिए टेसु के फूलों से रंग बनाया जाता है. जिसे छरड़ कहा जाता है. इसीलिए रंगो से भरे इस त्योहार को छरड़ी भी कहते हैं. गाँव के लोग छुआछूत को भूलकर इस दिन  सभी को गले लगाते हैं. तबला व ढोलवादक निम्न श्रेणी से होते हैं. परन्तु उनका विशेष सम्मान किया जाता है .घर-घर जाकर होली गाने वालों द्वारा इतने दिनों में  जो गुड़, चना और पैसे इकट्ठे होते हैं, उसका प्रसाद सबमें वितरित कर होली की बधाई देते है. अंत में अगले वर्ष मिलने की कामना करते हुए होलियारों के आशीष के साथ होली का समापन होता है….

गावैं खेलें,देवैं असीस,
हो हो हो लख रे.
बरस दिवाली बरसे फागुन,
हो हो हो लख रे.
यो घर की घरणी, जीरौं लाख बरीस
हो हो हो लख रे.

इस तरह से बसंत पंचमी से शुरू हुई  होली, अपने इन्द्रधनुषी रंगों को बिखेरती, लोक गीतों व  लोक नृत्य संग झूमती, मनों में उल्लास व उमंग भर, प्रेम व भाईचारे का संदेश देकर , अगले वर्ष तक के लिए  विदा लेते हुए,  आशीर्वाद से झोली  भर जाती है…

जी रया जागि रया कै गेछा
फागुन फूलौ कै गेछा.

आप सभी को हुलसते मनों की, थिरकते पगों की बासंती होली बहुत-बहुत मुबारक

(लेखिका एसोसिएट प्रोफेसर दिल्ली विश्वविद्यालय हैं)

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