होरी खेरे तो अइयो मेरे गांव!

0
922

फाल्गुनी में धमार का सौरव

मंजू दिल से… भाग-12

  • मंजू काला

होली पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है! राग, अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही, पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगी छटा के साथ अपनी पूर्णता को प्राप्त हो जाती है! फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं. होली का त्यौहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है. उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है. इस दिन से फाग और धमार का गायन प्रारंभ हो जाता है. खेतों में सरसों खिल उठती है. बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है. पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं. खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं.

देश के बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं! चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है. गुझिया होली का प्रमुख पकवान है जो कि मावा (खोया) और मैदा से बनती है और मेवाओं से युक्त होती है इस दिन कांजी के बड़े खाने व खिलाने का भी रिवाज है. नए कपड़े पहन कर होली की शाम को लोग एक दूसरे के घर होली मिलने जाते है जहाँ उनका स्वागत गुझिया, नमकीन व ठंडाई से किया जाता है. होली के दिन आम्र मंजरी तथा चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा माहात्म्य है.

त्योहारों की दृष्टि से देखा जाय तो ‘फाल्गुनी’ की मस्ती छेड़-छाड़ सबसे ज्यादा उर्जावान और आनन्दित करती है. इसके अतिरिक्त धर्म और आध्यात्म प्रधान भारत में होली का महत्व इसलिए और बढ़ जाता है क्योंकि इसका सम्बन्ध राधा-कृष्ण की प्रेम-लीलाओं से रहा है. बरसाने की लठमार होली प्रसिद्व है.

मेरे प्यारे देश को…जहां खेतों का, खलिहानों का, धर्मो का और ऋतुओं का देश  …माना जाता है,वहीं इसे लोक गीतों का देश भी कहा जा सकता है. जन-जीवन का तो जन्म से लेकर मरण तक कोई भी क्षेत्र ऐसा नही, जो गीतों से दूर हो. धरती पर निरन्तर लोक गीत झूमते रहते है, जैसे सावन भर कजरी गायी जाती है तो उसी तरह फागुन भर फाग-राग की धूम रहती है!

त्योहारों की दृष्टि से देखा जाय तो ‘फाल्गुनी’ की मस्ती छेड़-छाड़ सबसे ज्यादा उर्जावान और आनन्दित करती है. इसके अतिरिक्त धर्म और आध्यात्म प्रधान भारत में होली का महत्व इसलिए और बढ़ जाता है क्योंकि इसका सम्बन्ध राधा-कृष्ण की प्रेम-लीलाओं से रहा है. बरसाने की लठमार होली प्रसिद्व है.

मुगल सम्राटो ने भी उत्सुकता पूर्वक इस त्योहार का स्वागत किया. अकबर की राजधानी ब्रज क्षेत्र है. ब्रज की होली देश भर में सदा से प्रसिद्ध रही है. राजा और रंक का अन्तर दूर कर देना, अत्यन्त गंभीर मुद्रा धारण करने वाले सज्जनों को भी अटटाहस करते हुए बदल देना, मस्ती से भरे हुए एक रंगीन वातावरण की सृष्टि करना होली की विशेषता है.

तानसेन, उनके वंशजों ओर शिष्यों ने भी धमारों की रचना की और लोक-गीति का यह प्रकार ,धमार एक विशेष रूप धारण करके मुगल दरबार में प्रतिष्ठित हुआ. शास्त्रीय संगीत में  धमार का फाल्गुनी से गहरा संबंध है! फाल्गुनी के रंग और धमार के सौरव का जब मिलन होता है..इंद्र का सभा भी हमारी प्यारी वसुंधरा से रार करने लगती है! धमार गीतों में ब्रज की होली का वर्णन रहता है. जिसमें भगवन श्री कृष्ण गोपियों के साथ होली खेलते दिखाये जातें है.

असल में इस राग का वण्य्-विषय ही राधा-कृष्ण के होली खेलने का था! रस श्रंगार था और भाषा थी ब्रज! ग्राम्य वातावरण में  द्रुतगति के दीप-चंदी, धुमाली और कभी अद्धा जैसी ताल में गोप-गोपिकाओं द्वारा यह लोकगीत गाये जाते थे!

धमार में दुगुन, चौगुन आदि लयकारियां अधिकतर गीत के शब्दों को लेकर दिखाई जाती है. इसमें गमक का खूब प्रयोग होता है. धमार गीत के साथ पखावज बजाया जाता हैं, किन्तु आधुनिक काल में पखावज का प्रचार कम होने तथा तबले का प्रयोग अधिक होने अब धमार गीत के साथ तबले का प्रयोग होने लगा है. राग जयजयवन्ती में एक धमार… देखिए न-

आज छबीले मोहन नगार, बृज में खेलत होरी.
ग्वाल-बाल सब संग सखा, रंग गुलाल की होरी..

धमार में ….भाव का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है !इसमें विशेष रूप से होली का वर्णन होता है. ध्रुपद, छोटे व बड़े ख्याल और ठुमरी में भी होली गीतों का सन्दौर्य देखते ही बनता है. कथक नृत्य के साथ होली, धमार और ठुमरी पर प्रस्तुत की जाने वाली अनेक सुन्दर बंदिशे आज भी अत्यन्त लोकप्रिय है- कि;

चलो गुंइयां आज खेले होरी कन्हैया घर. इसी प्रकार ध्रुपद में भी होली के सुन्दर वर्णन मिलते है.

भारतीय शास्त्रीय संगीत में कुछ राग ऐसे है जिनमें होली के गीत विशेष रूप् से गाये जाते हैं. जैसे राग बसन्त, राग बहार, राग हिंडोल और राग काफी ऐसे ही राग है. बसन्त राग पर आधारित बंदिश…

‘फगवा ब्रज देखने को चलो रे, फगवे मे मिलेगें,  कुंवर का.

राग बहार पर आधारित-

‘‘ छमछम नाचत आई बहार‘‘
राग काफी पर आधारित –

‘आज खेलो शाम संग होरी, पिचकारी रंग भरी सोहत री’ प्रसिद्ध बंदिशे है.

राजस्थान के अजमेर शहर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ची की दरगाह पर गाई जाने वाली एक विशेष होली है. ‘आज रंग है री मन रंग है, अपने महबूब के घर रंग है री’ . ख्वाजा मोइउद्दीन ने होली को विशेष महत्व दिया है. कहते हे कि वे खुद भी होली खेला करते थे. उनकी भक्ति में जो कव्वालियां गायी जाती है , उसमें भी रंगों का उल्लेख आता है.

होलीपर गाने बजाने का अपने आप वातावरण बन जाता है. और जन-जन पर इसका रंग छाने लगता है. उप शास्त्रीय संगीत में चैती, दादरा और ठुमरी में अनेक प्रसिद्व होलियां है. होली के अवसर पर संगीत की लोकप्रियता का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि संगीत की एक विशेष शैली का नाम ही होली है, जिसमें उस स्थान का इतिहास और धार्मिक महत्व छुपा होता है. जहां ब्रज में राधा कृष्ण के होली खेलने का वर्णन मिलता है. जैसे – ‘ आज बिरज में होली रे रसिया, होरी रे रसिया, बरजोरी रे रसियावहीं अवध में राम और सीता के – ‘ होली खेले रघुवीरा अवध में होली खेले रघुवीरा’.

 

राजस्थान के अजमेर शहर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ची की दरगाह पर गाई जाने वाली एक विशेष होली है. ‘आज रंग है री मन रंग है, अपने महबूब के घर रंग है री’ . ख्वाजा मोइउद्दीन ने होली को विशेष महत्व दिया है. कहते हे कि वे खुद भी होली खेला करते थे. उनकी भक्ति में जो कव्वालियां गायी जाती है , उसमें भी रंगों का उल्लेख आता है.

इसी प्रकार शंकर जी से सम्बन्धित एक होली में ‘दिगम्बर खेले मसाने में होली ‘ शिव द्वारा श्मशान में होली खेलने का वर्णन मिलता है.

इसी तरह रंग और संगीत चोली दामन की तरह एक दुसरे से जुड़े हुए है. उनका असर मन पर कैसे और किस हद तक होता है, यह होली के त्योहार में दिखायी देता है, मन की खुशी, प्रेम, उमंग, तरंग इन सब भावों को अभिव्यक्त करने के लिए रंग और संगीत होली के त्योहार का अनोखा माध्यम बन जाते है. लोग अपने मन के दुःख और द्वेष भाव को मिटाकर रंगों की दुनिया में सुर और ताल के संग अपने आप को डूबो लेते है. चारों तरफ खुशी प्यार और अपने पन का एक अलग वातावरण बन जाता है. रंग मन के भावों को अभिव्यक्त करते है. संगीत जीवन की साधना है, और इन दोनों के समन्वय की मिसाल है होली का बेमिसाल त्यौहार!

और इस प्रकार हम देख पाते हैं कि, होली मनुष्य की आत्मिक उद्गार की वह बेला है जो उसके संप्रेषण में मनुष्य द्वारा निर्मित सामाजिक, धार्मिक, भौगोलिक सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए आत्मिय संवाद स्थापित करती है. चाहे वह होली का लोक रंग हो या उप-शास्त्रीय संगीत हो अथवा परिस्कृत अभिजात्य शास्त्रिय संगीत!

(मंजू काला मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल से ताल्लुक रखती हैं. इनका बचपन प्रकृति के आंगन में गुजरा. पिता और पति दोनों महकमा-ए-जंगलात से जुड़े होने के कारण, पेड़पौधों, पशुपक्षियों में आपकी गहन रूची है. आप हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लेखन करती हैं. आप ओडिसी की नृतयांगना होने के साथ रेडियो-टेलीविजन की वार्ताकार भी हैं. लोकगंगा पत्रिका की संयुक्त संपादक होने के साथसाथ आप फूड ब्लागर, बर्ड लोरर, टी-टेलर, बच्चों की स्टोरी टेलर, ट्रेकर भी हैं. नेचर फोटोग्राफी में आपकी खासी दिलचस्‍पी और उस दायित्व को बखूबी निभा रही हैं. आपका लेखन मुख्‍यत: भारत की संस्कृति, कला, खान-पान, लोकगाथाओं, रिति-रिवाजों पर केंद्रित है.)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here