यों ही नहीं कहा गया था प्रताप भैया को पहाड़ का मालवीय

ग्यारहवीं पुण्यतिथि विशेष

भुवन चंद्र पंत

कहते हैं कि यदि एक महिला को शिक्षित करोगे तो उसकी आने वाली पूरी पीढ़ी शिक्षित होगी और यदि एक स्कूल खुलेगा तो 100 जेलों के स्वतः दरवाजे बन्द होंगे. शिक्षा सभ्य because समाज का वह प्रवेश द्वार है, जहां से व्यक्तित्व के विकास के सारे दरवाजे खुलते हैं. इसलिए विद्यादान को सर्वोपरि माना गया है. एक विद्यालय खोलना मतलब अनन्त काल तक उसके माध्यम से अनन्त पीढ़ियों का उद्धार. लेकिन यदि आपने सैंकड़ों स्कूल खोलकर समाज को शिक्षित करने का कार्य किया है, तो निःसंदेह इससे बड़ा परोपकार कोई हो नहीं सकता.

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सैनिक गणवेश मे प्रताप भैया प्रधानमंत्री श्रीमति इन्दिरा गांधी का विद्यालय की ओर से स्वागत करते हुए. साथ मे पंडित कमलापति त्रिपाठी, कृष्ण चन्द्र पंत.

नैनीताल के प्रताप भैया ने दर्जनों विद्यालय खोलकर ऐसा ही कुछ कर दिखाया, जिससे उन्हें उत्तराखण्ड के मालवीय कहा गया. इन विद्यालयों के प्रारंभिक दौर में घर-धर जाकर चन्दा इकट्ठा करने से लेकर आवश्यक संसाधन जुटाने को लेकर किन कठिनाइयों से गुजरना पड़ा यह तो या उन संस्थाओं के संस्थापक सदस्य या प्रताप भैयाbecause स्वयं जानते होंगे. आर्थिक संसाधनों के अभाव का एक दौर वह भी आया जब उनकी धर्मपत्नी श्रीमती बीना जी ने कहा कि था विद्यालय चलाने में मेरे गहने बिक जायें मुझे मंजूर है, लेकिन विद्यालय बन्द नहीं होने चाहिये.

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भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय नैनीताल उनकी ऐसी ही संस्थाओं में सिरमौर है, जो राष्ट्रीय क्षितिज पर अपनी पहचान बना चुका है. 1964 में मात्र एक शिक्षक श्रीमती कला बिष्ट, एक छात्रा तथा एक किराये के कमरे से शुरू किये गये इस विद्यालय के विकास की एक लम्बी दास्तां है. प्रारंभ के वे दिन भी थे, जब नगर के किसी भी because विद्यालय में प्रवेश न पाने वाले छात्रों को इस विद्यालय में प्रवेश देकर छात्रसंख्या जुटाई गयी और आज वो दिन भी सबके सामने है, जब अपने पाल्य को इस विद्यालय में प्रवेश दिलवाने के लिए हर संरक्षक लालायित रहता है. पब्लिक स्कूलों के विकल्प के रूप में तो यह उभरा ही लेकिन वर्तमान में अंग्रेजी माध्यम के प्रति आकर्षण को देखते हुए संरक्षकों की मांग पर अब हाईस्कूल तक की कक्षाओं में अंग्रेजी माध्यम का विकल्प भी छात्रों को मिलने लगा है.

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बोर्ड परीक्षाओं में राज्य की योग्यता सूची में स्थान बनाने के साथ ही इस विद्यालय से शिक्षा ग्रहण कर छात्र आज प्रशासनिक सेवाओं, विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी, आईटी क्षेत्र, पत्रकारिता तथा सैन्य सेवाओं में शीर्षस्थ पदों पर पहुंचकर देश-विदेश में ख्याति अर्जित कर रहे हैं. विद्यालय के दो प्रधानाचार्य राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार तथा एक शिक्षक because राज्य पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं. विगत् वर्ष ही राष्ट्रीय सेवायोजना के अन्र्तगत उल्लेखनीय सेवाओं के लिए महामहिम राष्ट्रपति महोदय द्वारा इसे पुरस्कृत किया गया. शिक्षणेत्तर कार्यकलापों में विद्यालय की नगर तथा नगर के बाहर अपनी विशिष्ट पहचान है. यह सब संभव हो पाया है, प्रबन्धतंत्र के मुखिया प्रताप भैया की दूरदृष्टि व पक्के इरादों और प्रधानाचार्य, शिक्षक व कर्मचारियों के समर्पित सेवाभाव के बदौलत.

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राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ैल सिंह के साथ प्रताप भैया.

प्रताप भैया हालांकि अब इस दुनियां because में नहीं रहे, लेकिन विद्यालय के लिए जो कठोर अनुशासन, समर्पण तथा मूल्यों पर आधारित परम्पराऐं उन्होंने विकसित की आज भी विद्यालय उन्हीं परम्पराओं के नक्शे कदम पर चल रहा है.

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प्रताप भैया के जीवनकाल में कोई ऐसा अतिविशिष्ट व्यक्ति छूटा न होगा, जिनको उन्होंने विद्यालय में आमंत्रित न किया हो. जो अतिविशिष्ट व्यक्तियों को छात्र किताबों में पढ़ा करते थे, इस विद्यालय के छात्रों को उनके सामने रूबरू होने का अवसर मिला. राजनैतिक विचारधारा में मतभेद हो सकता है, लेकिन विद्यालय को हर राजनैतिक विचारधारा के व्यक्तित्वों का आशीर्वाद मिलता रहा. पूर्वप्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गान्धी, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चन्द्रशेखर, इन्द्रकुमार गुजराल, राजीव गांधी, because पूर्वराष्ट्रपति वी.वी. गिरि, राज्यपाल बी.गोपाला रेड्डी, राज्यपाल अकबर अली, राज्यपाल रोमेश भण्डारी, राज्यपाल डॉ. बी. सत्यनारायण रेड्डी, मुख्यमंत्री चैधरी चरण सिंह, नारायण दत्त तिवारी, श्रीपतिमिश्र, बनारसी दास चतुर्वेदी, राम नरेश यादव, हेमवती नन्दन बहुगुणा, के अतिरिक्त राष्ट्रीय व प्रादेशिक राजनेताओं की एक लम्बी फेहरिस्त है, जिनका अपने प्रांगण मे स्वागत करने का सौभाग्य विद्यालय को मिला.

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विद्यालय के एक समारोह में उ.प्र. के तत्कालीन मुख्यमंत्री चैधरी चरण सिंह ने प्रताप भैया के जूनून को देखते हुए विद्यालय को अपनी शुभकामना देते हुए कहा था कि जिस विद्यालय because को प्रताप सिंह जैसा दीवाना मिल गया है, उसकी उन्नति में कोई शंका की गुंजाईश नही रह जाती.

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इसी विद्यालय से  प्रताप भैया ने एक अनूठी शुरूआत की थी सामाजिक समरसता की. विद्यालय में किसी भी छात्र/छात्रा को केवल पहले नाम से जाना जाता था, जातिसूचक शब्दों का प्रयोग कोई भी छात्र नहीं कर सकता था. एक बालमन में सामाजिक भेदभाव को दूर करने का इससे अच्छा कोई तरीका हो नहीं सकता. कौन किस जाति से ताल्लुक रखता है ,छात्रों को परस्पर इसकी जानकारी  नही होती थी और न शिक्षक व कर्मचारियों को जाति का उल्लेख करने की ईजाजत because थी. छात्रों का पहला नाम ही उसकी पहचान होता था.

यों तो जब प्रताप भैया इन्टरमीडिएट के छात्र रहे तभी से शिक्षा समितियों का गठन कर इस पर चिन्तन उनका शौक रहा. शिक्षा प्रसार के प्रति उनका जुनून ही था कि अपने छात्र जीवन में जब ओखलकाण्डा जैसे दूरस्थ क्षेत्र के लिए यातायात की सुविधा नहीं थी तो कुछ अपने संगी-साथियों के साथ मिलकर खुटानी से ओखलकाण्डा तक की लम्बी दूरी तक अपने कन्धों पर फर्नीचर ढोया  यह संयोग ही था कि जब वे लखनऊ विश्वविद्यालय में पढ़ाई के लिए गये तो प्रख्यात समाजवादी चिन्तक व शिक्षाविद् आचार्य नरेन्द्र देव वहां के कुलपति हुआ करते थे.

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प्रताप भैया शिक्षा सम्मेलन को संबोधित करते हुए. because पार्श्व मे प्रधानाचार्य श्रीमतीकाला बिष्ट व उनकी धर्मपत्नी श्रीमती बीना जी.

शिक्षा प्रसार की जो ललक बचपन से उनमें घर कर गयी थी, आचार्य नरेन्द्र देव जैसे शिक्षाविद् का सान्निध्य मिला तो यह ललक जूनून में तब्दील हो गयी  आचार्य नरेन्द्र देव के because राजनैतिक, शैक्षिक व सांस्कृतिक चिन्तन से वे  इतने  प्रभावित हुए कि उन्हें अपना गुरू ही मान लिया और इस गुरू पद को उन्होंने अपने संस्कार पिता का दर्जा दिया तथा आजीवन उनके राजनैतिक सांस्कृतिक एवं शैक्षिक विचारों के ध्वजवाहक बन गये.

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वर्ष 1969 में उन्होंने उन्हीं के नाम पर आचार्य नरेन्द्र देव शिक्षा निधि उ.प्र. नाम से एक संस्था का गठन किया. जिसका उद्देश्य था उन दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा का प्रसार, जो क्षेत्र अब तक शिक्षा के क्षेत्र में उपेक्षित रहे. यद्यपि संस्था के नाम में ’निधि’ शब्द से प्रतीत होता है कि यह कोई फाउन्डेशन सरीखा संगठन होगा, because जिसके पास बजट का अभाव नहीं होगा. लेकिन वास्तविकता ये थी कि इस निधि के पास कुल जमा पॅूजी आचार्य नरेन्द्र देव की शैक्षिक व सांस्कृतिक धरोहर थी. यह प्रताप भैया के व्यक्तित्व व निस्वार्थ सेवा का करिश्मा ही था कि वे जिस क्षेत्र में शिक्षा संस्थान की आवश्यकता महसूस करते, वहां के कुछ जागरूक लोगों को संगठित करते.

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विद्यालय के लिए एक दो कमरे किराये पर अथवा स्वैच्छिक सहयोग पर लेते, वहीं के किसी शिक्षित युवक को शिक्षक का जिम्मा सौंपते. बच्चों से जो भी शुल्क प्राप्त होता, इसी से विद्यालय संचालित होता. कोई बड़े ढांचागत विस्तार व तामझाम के जब स्कूल स्वयं संसाधन जुटाने में समर्थ होता तो शनैः शनैः विद्यालय का विस्तार होता.because इसी प्रक्रिया से गुजरते हुए कई विद्यालय आज जिस स्वरूप में हैं, सोचा भी नहीं जा सकता कि कभी ये भी अपनी शैशवावस्था में इस दौर से गुजरे होंगे. इन सभी विद्यालयों का संचालन आचार्य नरेन्द्र देव शिक्षा निधि के अन्तर्गत ही किया जाता है.

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शिक्षा के प्रति प्रताप भैया के योगदान को देखते हुए वर्ष 1981 में दिनकर प्रकाश जोशी जी की स्मृति में 5 एकड़ भूमि विद्यालय को दान स्वरूप प्राप्त हुई, जिसमें वर्तमान मे राष्ट्रीय शहीद सैनिकbecause स्मारक विद्यापीठ नाम से विद्यालय संचालित किया जा रहा है. नर्सरी से इन्टर तक का यह विद्यालय भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय के नक्शे कदम पर अपना विशिष्ट स्थान बना रहा है.

न केवल माध्यमिक शिक्षा बल्कि because उच्च शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिए भी प्रताप भैया द्वारा अभिनव प्रयोग किये गये. वर्ष 1975 में कुमाऊं विश्वविद्यालय के संस्थापक कुलपति डॉ. डी.डी. पन्त से विमर्श के बाद खटीमा में ’उच्च शिक्षा सम्पर्क केन्द्र’ नाम से उच्च शिक्षा संस्थान खोला गया. तत्कालीन कुलपति डॉ. पन्त ने इस अभिनव योजना की अनुशंसा विश्विद्यालय अनुदान आयोग से की और सौभाग्य से विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने न केवल उच्च शिक्षा सम्पर्क केन्द्रों की अवधारणा को मान्यता दी, बल्कि प्रत्येक उच्च शिक्षा सम्पर्क केन्द्र के लिए 20-20 हजार रूपये की पुस्तकीय सहायता उपलब्ध कराई.

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प्रताप भैया ने इन सम्पर्क केन्द्रों के लिए भी कोई बड़े बजट की आवश्यकता महसूस नहीं की. क्षेत्र के ही किसी न्याय पंचायत भवन अथवा निष्प्रयोज्य सरकारी भवनों के कुछ कक्षों को संबंधित विभाग से आबंटित करवाकर और स्थानीय शिक्षित युवकों को सम्पर्क शिक्षक व सम्पर्काचार्य का जिम्मा सौंपा. जिससे स्थानीय बेराजगार युवकों को because रोजगार का अवसर भी मिला और गांव के किसान का बेटा जो दूर शहरों में जाकर उच्च शिक्षा ग्रहण करने में सक्षम नहीं था, अपने गांव में घर के काम-काज में हाथ बंटाते स्नातक की डिग्री हासिल करने का मौका मिला.

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खटीमा से शुरू हुए इन उच्च शिक्षा सम्पर्क केन्द्र की अवधारणा को विस्तार मिला. कालान्तर में ओखलकाण्डा, (नैनीताल) स्याल्दे, (अल्मोड़ा) काण्डा (बागेश्वऱ) मानिला (अल्मोड़ा) में उच्च शिक्षा सम्पर्क केन्द्रों की स्थापना की गयी. लेकिन यह भी सच्चाई है कि आज जो ’ओपन एअर स्कूल’ या मुक्त विश्वविद्यालय की बात कही जाती है, because इसकी शुरूआत प्रताप भैया ने उच्च शिक्षा सम्पर्क केन्द्र के रूप में वर्ष 1975 में ही कर दी थी. यह बात दीगर है कि बाद में इन स्थानों पर शासन द्वारा सुविधा सम्पन्न महाविद्यालयों की स्थापना की गयी, स्वाभाविक था कि संरक्षकों का रूझान दूसरी तरफ हो गया और ये उच्च शिक्षा सम्पर्क केन्द्र सरकारी चमक-धमक के भेंट चढ़ गये.

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हालांकि प्रताप भैया एक राजनैतिक व्यक्ति थे और उ0प्र0 विधानसभा में सबसे कम उम्र के विधायक और सबसे कम उम्र के कैबिनेट मंत्री होने का खिताब तब उनके नाम था. कैबिनेट मंत्री बनने because पर वर्ष 1967 में प्रथम बार नैनीताल आगमन पर उनके जिस भव्य स्वागत की बातें कही जाती हैं, उतनी शोहरत व इज्जत शायद ही किसी को मिली हो. लेकिन आज उनकी राजनैतिक सफर से भले लोग वाकिफ न हों लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान को उनके धुर विरोधी भी स्वीकार करते हैं.

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स्वतंत्रता दिवस नगर परेड का नेतृत्व करते प्रताप भैया.

अशासकीय विद्यालयों चाहे वे गैर-अनुदानित हों अथवा अनुदानित उनकी समस्याऐं तथा प्राथमिकताऐं राजकीय विद्यालयों से अलहदा होती हैं. चाहे वह आर्थिक संसाधनों को लेकर हों अथवा नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर. प्रताप भैया अविभाजित उ.प्र. में इन अशासकीय विद्यालयों की समस्याओं को मुखर होकर उठाते. प्रसंगवश जब because भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय नैनीताल हाईस्कूल से इन्टर में उच्चीकृत हुआ तो कार्यरत महिला प्रधानाचार्य को इन्टर प्रधानाचार्य के रूप में पदोन्नति का अनुमोदन देने में प्रदेश सरकार ने आपत्ति की कि नियमानुसार बालक विद्यालय में महिला को प्रधानाचार्य नही बनाया जा सकता. प्रताप भैया ने  मुखर होकर इस तर्क के साथ इस नियम का विरोध किया कि जब एक देश की मुखिया प्रधानमंत्री महिला हो सकती हैं तो क्यों नही बालक विद्यालय में महिला को प्रधानाचार्य नहीं बनाया जा सकता? इस तार्किक बहस में उनकी जीत हुई और श्रीमती कला बिष्ट को इन्टर के प्रधानाचार्य केपद पर पदोन्नति दी गयी.

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प्रताप भैया की अशासकीय विद्यालयों के संचालन का गूढ़ अनुभव तथा तर्कसम्मत तरीके से अपनी बात रखने का ही प्रतिफल था कि उन्हें अशासकीय विद्यालयों के संगठन उ.प्र. विद्यालय because प्रबन्धक महासभा का निर्विरोध अध्यक्ष चुना गया तथा उ.प्र. से उत्तराखण्ड के अलग होने पर भी वे उ.प्र. एवं उत्तराखण्ड .विद्यालय प्रबन्धक महासभा के महासंघ के अध्यक्ष रहे.

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काश! सरकारें भी उनके इस शैक्षिक योगदान को समझ पाती और आने वाली पीढ़ी ऐसे शिक्षा प्रेमी से प्रेरणा ले सके, इस उद्देश्य से किसी विश्वविद्यालय या प्रमुख शैक्षिक संस्थान का नाम प्रताप भैया के नाम से कर दिया होता, जिसकी मांग पिछले वर्षों में उनकी पुण्यतिथि समारोह के मौके पर उठी भी थी. यद्यपि उनको याद करने के लिए because उनके द्वारा स्थापित शैक्षिक संस्थाऐं ही काफी हैं, लेकिन सरकारों ने उनके इस योगदान को बिना किसी राजनैतिक पूर्वाग्रह के किस तरह देखा-परखा गेंद सरकारों के पाले में जाती हैं, भले सरकारें किसी भी विचारधारा से प्रेरित हों. क्या प्रदेश के किसी विश्वविद्यालय अथवा शैक्षिक संस्थान को उनका नाम दिये जाने पर हुक्मरान कभी सोचेंगे? यह संभव होता तब, जब उनकी आगे वाली पीढ़ी के लोग सक्रिय राजनीति में होते, लेकिन ऐसा है नहीं. स्वतः संज्ञान लेने की तो कल्पना ही छोड़ दीजिए यहां तो राष्ट्रीय पुरस्कार भी स्वतः संज्ञान लेकर नहीं बल्कि आवेदन कर प्राप्त किये जाते हैं.

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खैर! छोड़िये यह सब हम तो प्रताप becauseभैया की ग्यारहवीं पुण्य तिथि पर भावूपर्ण स्मरण के साथ उन्हें नमन् ही कर सकते हैं.

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(लेखक भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय नैनीताल से सेवानिवृत्त हैं तथा प्रेरणास्पद व्यक्तित्वों, लोकसंस्कृति, लोकपरम्परा, लोकभाषा तथा अन्य सामयिक विषयों पर स्वतंत्र लेखन के अलावा कविता लेखन में भी रूचि. 24 वर्ष की उम्र में 1978 से आकाशवाणी नजीबाबादलखनऊरामपुर तथा अल्मोड़ा केन्द्रों से वार्ताओं तथा कविताओं का प्रसारण.)

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