दिनेश रावत

बात संग्रांद (संक्रांति) से पहले एक रोज की है. शाम के समय माँ जी से फोन पर बात हो रही थी. उसी दौरान माँ जी ने बताया कि- ‘अम अरसू क त्यारी करनऽ लगिई.’ ( हम अरसे बनाने की तैयारी में लगे हैं.) अरसे बनाने की तैयारी? मैं कुछ समझ नहीं पाया और मां जी से पूछ बैठा- ‘अरस! अरस काले मां?(अरसे! अरसे क्यों माँ?) तो माँ ने कहा- ‘भोव संग्रांद कणी. ततराया कोख भिजऊँ अर कुठियूँ.’ (कल संक्रांति कैसी है. उसी वक्त कहाँ भीगते और कूटे जाते हैं.) ‘काम भी मुक्तू बाजअ. अरस भी लाण, साकुईया भी उलाउणी, स्वाअ भी लाण अर त फुण्ड भी पहुंचाण.’ (काम भी बहुत हो जाता है. अरसे भी बनाने हैं. साकुईया भी तलनी है.

स्वाले यानी पूरी भी बनानी है और फिर वह पहुंचाने भी हैं.) माँ जी से बात करते-करते मैं सोचने को विवश हो गया कि आख़िर गांव-घर से दूर होते ही हम कितनी चीजों से दूर हो जाते हैं. हमारी जीवन शैली कितनी बदल जाती है. अपना समाज-संस्कृति, प्रथा-परंपरा,  रीति-रिवाज आदि तो बहुत दूर की बात है. बदलते दौर और डीजिटल जमाने में जनवरी-फरवरी तथा संडे-मंडे गीनते-दोहराते हुए जरूरत पड़ने पर संक्रांति और गते भी कुछ वैसे ही तलाशने पड़ते हैं जैसे बेटी के विवाह के दौरान बेदी बनाने के लिए फल-फूल से लकदक केले का वृक्ष खोजना पड़ता है.

खैर जो भी हो. साकुईयों के बहाने साकुईया संग्रांद से जुड़ी तमाम यादें ताजा हो गई. जैसे दोफारया की गिल्ली, स्वालों का स्वाद, अरसों की मिठास और साकुल्यों का चुरमुराट आदि-आदि. क्यों कि आज भले ही दूर हूं मगर पला-बढ़ा तो वहीं हूं. इसलिए बेहद करीब से मात्र देखा ही नहीं है बल्कि जीया-भोगा है.

साकुल्यों की कंडी को माँ मात्र साकुईया, स्वाले और अरसों से ही नहीं भरती है बल्कि अपनी ममता, प्यार-दुलार,  स्नेह-आशीष सब उसमें उडेल देती है. प्यार-पकवान और परंपराओं की संवाहक इस कंडी को उठाते हुए भाई का मन अनायास ही गा उठता है- ‘चुल्लि पियारो चुलियाणो, तारूए से प्यारी गैण, दिशा पियारी तैकी होंदी, जैकी पीठी की बैण.’’ यानी कंडी उठाने में भाई शर्म-संकोच नहीं बल्कि स्वयं को सौभाग्यशाली मानता है कि मुझे अपनी बहिन के होते ही एक नई दिशा यानी उसके ससुराल की तरफ दोफारी पहुँचाने का अवसर प्राप्त हुआ है. बहिनों की दोफारी पहुँचाने तथा कुशल-मंगल जानने के लिए प्रायः गाँव के लड़के टोली बनाकर साथ-साथ निकलते हैं ताकि दुर्गम पहाड़ी रास्तों को हंसी-मजाक, बातचीत के सहारे सुगम बनाया जा सके.

पीठ पर साकुल्यों से भरी गिल्ली लिए उबड़-खाबड़ रास्तों से होते हुए, पगड़डियों पर चढ़ते-उतरते, दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र के दूर-दराज गाँवों में ब्याही बहिनों तक वह अपार स्नेह की इस भेंट ‘दोफारी’ को इस क्रम में पहुँचाते हैं कि सबसे पहले पास के गांव में ब्याही बहिन, फिर दूर और अंत में रात के लिए सबसे दूर वाली बहिन के घर पहुँचते हैं.

दूसरी तरफ चैत्र महिना शुरु होते ही पहाड़ के दूर-दराज गाँव एवं घाटियों में ब्याही बहू-बेटियों को भी मायके की याद आने लगती है. संग्रांद के दिन तो आँखें इस आस के साथ गाँव-घर को आने वाले रास्ते पर ही टिकी रहती हैं कि अब दिखता है या तब दिखता है मेरा भाई. लोकगीत की पंक्तियां साक्षी हैं- ‘‘बळदू कू व्यवार भैजी, बळदू कू व्यवार; तऊँ एणु जागलू भैजी, जणु पूष कू त्यार.’’

इस प्रकार से प्यार-पकवान-परिधान सम्बंधी दोफारी की यह परंपरा उत्तराखण्ड के सीमांत उत्तरकाशी के रवाँई क्षेत्र में प्यूंली-बुरांश खिलते ही बसंत शुभारंभ के साथ शुरू हो जाती है. चैत्र माह के अतिरिक्त माघ माह तथा मंगसीर (मार्गशीर्ष) माह में दोफारी देने की परंपरा इस क्षेत्र में खासी प्रचलित है. इनके अतिरिक्त मायके में शादी-ब्याह जैसे शुभ व मांगलीक आयोजन तथा थौल-मेलों आदि के असवरों पर बहू-बेटियाँ जब भी मायके आती हैं उन्हें दोफारी के रूप में अरसे, स्वाले तथा कपड़ों के रूप में सूट-साड़ी आदि सस्नेह भेंट किए जाते हैं.

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संभव है इस परंपरा का शुभारंभ उस दौर में हुआ होगा जब पहाड़ों में आने-जाने के कोई साधन उपलब्ध नहीं थे. संचार के साधन भी सपने से लगते होंगे. आज भले ही हर हाथ में मोबाइल और लगभग हर क्षेत्र तक सड़क की पहुँच है फिर भी ‘दोफारी’ की आस बराबर बनी हुई है. यह बात अलग है कि अब कई बार लोग अतिरिक्त श्रम व समय खपत से बचने के लिए लोग बाजार में बने लड्डू भी देने-लेजाने लगे हैं. पर बदलाव की आवोहवा के बीच परंपरा आज भी यथावत वजूद बनाए हुए है, जिसे इस क्षेत्र का लोक वैशिष्ट्य कहा जा सकता है.

(लेखक कविसाहित्यकार एवं वर्तमान में अध्यापक के रूप में कार्यरत हैं)

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1 Comment

    Beautiful

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