बंद सांकल

लघु कथा  

  • डॉ. कुसुम जोशी 

ऊपर पहाड़ी में खूब हरी भरी घास देख कर लीला को अपनी गैय्या गंगी की खुशी आंखों में नाच उठी. गंगी की उम्र बढ़ रही है, इसीलिये उसे मुलायम-सी हरी घास, भट्ट और आटे को पीस कर बनाया दौ बहुत पसन्द था.

अधिक से अधिक घास काटने के चक्कर में लीला को घर पहुंचते बहुत देर हो गई थी. ऊपर से घास का गट्ठर भी बहुत भारी होने से तेज चलना भी मुश्किल था,  उसे थकान महसूस होने लगी, उसने घास का गट्ठर सर से नीचे पटक कर रखा और वहीं पर पांव फैला कर वहीं पर बैठ गई.

लम्बी गहरी सांस ली और आंगन में सरसरी नजरें दौड़ाई. बिखरी हुई घास, पत्तियां, लकड़ी के टुकड़े ज्यों के त्यों पड़े थे, सुबह जंगल जाते समय उनसे सोये हुये पति को चाय का गिलास पकड़ाते हुये आग्रह किया था  कि “उसके घास लेकर आने तक अगर वे आंगन बुहार लेगें तो कल से काटे  गेहूं को धूप लगाने के लिये फैला देगीं”.  घर पर नजर पड़ी तो द्वार पर सांकल लगी हुयी थी. “मतलब कि ‘ये’ और ‘सासू’ दोनों ही घर पर नहीं है.

सांकेतिक फोटो: गूगल से साभार

ये फिर आज ताश की चौपाल लगाने निकल गये हैं, सासु उन्हें भी कोई चिन्ता नहीं… ऊपर से अपने बेटे को भी कुछ नहीं कहती… रोज की यही कहानी है”, मन ही मन लीला बड़बड़ाई,

खाना बना भी है या नहीं… बच्चे स्कूल से आते ही होंगें… उसे पता है कि सांकल में लगे ताले की चाबी गोठ में बने छोटे से जाले में धरी होगी, पर जंगल से आकर घर के द्वार खुले मिलते से उसे खुशी होती है. यह सोचते उसका मन गहरी उदासी में डूबने लगा.

लीला को अनायास ही मां याद आई, और भूख का अहसास हुआ. प्यास भी लग आई थी, पर बंद दरवाजा मुंह चढ़ाते महसूस हुये. तेजी से बढ़ कर  गाय के गले में बांह डाल दी, गाय ने लीला की बांह को हौले चाटा, लीला का सालों से संभाल के रखा सब्र का बांध फूट पड़ा. 

“यहां पर सब कुछ ऐसा ही पड़ा है, किसी को चिन्ता नहीं. गेहूं को ही धूप लगा देते… पेट मेरे क्या अकेले का है, मरुं तो तभी चैन मिले इन सब को… बड़बडाती लीला ने झाडू पकड़ा और आंगन बुहारने लगी, तभी आंगन के एक कोने में बंधी गाय और बछिया मा-मा कर कुलबुलाने लगी. झाडू वहीं पटक  बाल्टी का भरा पानी नाद में पलट दिया. कुछ हरी घास गाय के आगे डाल दी. गाय ने पानी पिया, ताजी घास को सूंघा और लीला की और देखा. लगा मानो अपनी भरी आँखों से कह रही हो “धन्यवाद… पर तुम भी कुछ खा-पी लेती, सुबह से भूखी हो”.

सांकेतिक फोटो: गूगल से साभार

लीला को अनायास ही मां याद आई, और भूख का अहसास हुआ. प्यास भी लग आई थी, पर बंद दरवाजा मुंह चढ़ाते महसूस हुये. तेजी से बढ़ कर  गाय के गले में बांह डाल दी, गाय ने लीला की बांह को हौले चाटा, लीला का सालों से संभाल के रखा सब्र का बांध फूट पड़ा.

(लेखिका साहित्यकार हैं एवं छ: लघुकथा संकलन और एक लघुकथा संग्रह (उसके हिस्से का चांद) प्रकाशित. अनेक पत्र-पत्रिकाओं में सक्रिय लेखन.)

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