Author: Himantar

हिमालय की धरोहर को समेटने का लघु प्रयास
ऋषिगंगा आपदा : 12 दिन में 3000 लोगों को कराया भोजन

ऋषिगंगा आपदा : 12 दिन में 3000 लोगों को कराया भोजन

चमोली
हिमांतर ब्यूरो, देहरादून7 फरवरी 2021 को जनपद चमोली के धौली गंगा, तपोवन, ऋषिगंगा घाटी में ग्लेशियर टूटने की वजह से आयी बाढ़ के कारण भीषण तबाही हुई थी. इस आपदा में 205 से so अधिक लोगों के अकाल मृत्यु का आंकलन है. इस प्राकृतिक आपदा से पैंग, मुरूंडा, जुग्जु, जुवाग्वाड़ के अलावा चिपको की जननी गौरा देवी के गांव वल्ला रैणी और पल्ला रैणी में 5 लोगों की मृत्यु हुई, स्थानीय स्तर पर अभी तक 28 लोगों के शव बरामद हुए हैं.आपदा15 फरवरी से 26 फरवरी तक कुल 12 दिन तक रैस्क्यू और बचाव के कार्यों में लगे एन.डी.आर.एफ., एस.डी.आर.एफ., भारत तिब्बत सीमा पुलिस but और उत्तराखण्ड पुलिस के जवानों के साथ-साथ सड़क और पुल निर्माण में लगे सीमा सड़क संगठन के कर्मचारियों और मजदूरों को नियमित रूप से दोपहर का भोजन कराते रहे.आपदा इस प्राकृतिक आपदा के तुरंत बाद प्रभावित क्षेत्र में राहत और बचाव के कार्य प्रारंभ हुए ...
जनपद पौड़ी में लोकपाल पद पर नियुक्त हुए डॉ. अरुण कुकसाल

जनपद पौड़ी में लोकपाल पद पर नियुक्त हुए डॉ. अरुण कुकसाल

सोशल-मीडिया
वरिष्ठ समाज विज्ञानी, प्रशिक्षक, लेखक एवं घुमक्कड़ डॉ. अरुण कुकसाल को भारत सरकार के महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना यानी 'मनरेगा' से सम्बद्ध so शिकायतों के निवारण एवं उनके अनुश्रवण के लिए जनपद पौड़ी में लोकपाल के पद पर नियुक्त होने पर सभी क्षेत्रवासियों में खुशी की लहर है. ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना उत्‍तराखंड गढ़वाल के चामी गांव (असवालस्यूं) में 8 अक्टूबर, 1959 को जन्मे डॉ. अरुण कुकसाल ने उत्तर because प्रदेश एवं उत्तराखंड में विभिन्न विभागों में अपनी सेवाएं दी हैं. अर्थशास्त्र में पीएच.डी. डॉ. कुकसाल हिमालयी समाज के सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक मुद्दों के गहन जानकार हैं. वे विगत कई वर्षों से पत्र-पत्रिकाओं तथा because सोशियल मीडिया में नियमित रूप से लेखन में सक्रिय हैं. उद्यमिता विकास, यात्रा, साहित्य तथा सांस्कृतिक विषयों पर उनकी 7 पुस्तकें प्रका...
‘कस्तूरबा’ से ‘बा’ तक का गुमनाम सफर

‘कस्तूरबा’ से ‘बा’ तक का गुमनाम सफर

साहित्‍य-संस्कृति
भावना मासीवाल22 फरवरी को ‘बा’ की पुण्यतिथि थी. उन पर न कोई आयोजन था न ही कोई चर्चा-परिचर्चा. हर तरफ थी तो सिर्फ ख़ामोशी. जबकि ‘बा’ इतिहास के पन्नों में दफन कस्तूरबा गाँधी का नाम है. यह नाम आज़ादी की लड़ाई में अपनी पूरी निष्ठा व बलिदान के साथ मौजूद था. यह नाम दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की नीति व भारतीयों के साथ गैर बराबरी पूर्ण व्यवहार के खिलाफ़ न केवल अहिंसा आंदोलन में खड़ा था बल्कि आंदोलन में जेल भी गया था. दक्षिण अफ्रीका में जब ईसाई धर्म के अनुसार क़ानूनी रूप से पंजीकृत विवाह को वैध और अन्य को अवैध बनाया गया. उस समय वहाँ इसके खिलाफ सत्याग्रह आंदोलन किया गया और सभी सत्याग्रहियों को जेल में डाला गया था. इसमें ‘बा’ कस्तूरबा गाँधी भी थी. विरोध का यह वही नाम था जो दक्षिण अफ्रीका के बीमार मजदूरों की निष्ठा व श्रद्धा भाव से सेवा करता है. जिसने अपने संपूर्ण परिवार पति, बच्चों को समाज व देश सेवा के ...
पुत्र तर्क-वितर्कों में मस्त, मां एक कोने में बेबस!

पुत्र तर्क-वितर्कों में मस्त, मां एक कोने में बेबस!

समसामयिक
नरेन्द्र कठैतमातृभाषा दिवस अर्थात 21 फरवरी नियत तिथि! किंतु कैसे भूल सकते हैं नियति की वह परिणति जो इसी माह की सातवीं तिथि को ऋषिगंगा घाटी में ग्लेशियर टूटने के बाद because घटित हुई. और...... रैणी तपोवन में  हमारे हिस्से में आंसूओं का न थमने वाला सैलाब छोड़ गई. किसी ने पुत्र खोया- किसी ने पति - किसी ने सगा भाई ! किंतु थे तो वे सभी मां के लाल ही!! और हां! वे पालतू मवेशी भी जिनपर कई परिवारों because की रोजी रोटी टिकी हुई थी उनको भी विपदा लील गई. हर बार विपदा में हमें ढांढस बंधाने वाले यही कहते है कि ‘हिम्मत रखिए!! पहाड़ विकट परिस्थितियों में भी नहीं झुकते!!’ लेकिन ये कौन कहे कि मां का हृदय पत्थर का नहीं है. मित्र यह तिथि को जो पर्वप्रिय मित्र पर्व के रूप में मना रहे हैं वे बधाई स्वीकार करें!  किंतु सत्य कहें हम आज की तिथि में इसे पर्व के रूप में मनाने की स्थिति में कदापि नहीं हैं. क्योंक...
भैया! क्या कोई नरक आश्रम भी है…

भैया! क्या कोई नरक आश्रम भी है…

संस्मरण
पसंद आ गया न, कुछ पैसे दे तो बाकी जब शिफ्ट करोगे तब दे देना, स्वर्ग आश्रम से अच्छा तुमको कहीं मिलेगा भी नहीं...प्रकाश उप्रेती  अतीत में... बात 2012 की है. कॉलेज की जिंदगी निपटने में बस एक बसंत ही बाकी था. उसी बसंत में उत्तरप्रदेश पीसीएस का फॉर्म भर दिया था क्योंकि तब अपने इर्दगिर्द यूपीएससी वालों का जमावड़ा था. because कोई तैयारी कर रहा था, किसी के भैया कर चुके थे, किसी का दोस्त इलाहाबाद से दिल्ली तैयारी के लिए आ रहा था, किसी के सीनियर का हो गया था, कोई बाबा बन चुका था और कोचिंग सेंटर चलाने लग गया था. because इस माहौल में भला हम कैसे किनारे पर खड़े रहते. हमने भी उस 'कोसी' में डुबकी लगा ही ली.अब मसला तैरने का था तो उसके लिए सबसे पहले कोसी के तट यानि मुखर्जीनगर के आसपास कमरे की तलाश शुरू कर दी थी.यूपीएससीनॉर्थ कैंपस में रहते हुए because दाढ़ी निकल आई थी लेकिन इस कॉलोनी के ...
असहमति के साथ चलने वाला साथी

असहमति के साथ चलने वाला साथी

स्मृति-शेष
प्रखर समाजवादी एवं उत्तराखंड राज्य आंदोलन के शिल्पी बिपिन त्रिपाठी की जयन्ती (23 फरवरी) पर विशेषचारु तिवारीअल्मोड़ा जनपद के द्वाराहाट विकासखंड में एक छोटी सी जगह है बग्वालीपोखर. वहीं इंटर कालेज में हम लोग पढ़ते थे. कक्षा नौ में. यह 1979 की बात है. पिताजी यहीं प्रधानाचार्य थे. उन्होंने बताया कि पोखर में विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. डीडी पंत आने वाले हैं. पिताजी कर्इ बार उनके बारे में बताते थे. जब वे डीएसबी कालेज, नैनीताल because में पढ़ते थे तब पंतजी शायद वहां प्रवक्ता बन गये थे. हम गांवों के रहने वाले बच्चे. हमारे लिये वैज्ञानिक जैसे शब्दों का मतलब ही किसी दूसरे लोक की कल्पना थी. बड़ी उत्सुकता हुई उन्हें देखने की. बग्वालीपोखर उस समय बहुत छोटी जगह थी. बस कुछ दुकानें. एक रामलीला का मैदान. पुराने पोखर में. उसके सामने एक धर्मशाला. उसके बगल में जशोदसिंह जी की दुकान. वहीं पर एक चबूतरा. ...
मातृभाषा और शिक्षा का लोकतंत्रीकरण

मातृभाषा और शिक्षा का लोकतंत्रीकरण

शिक्षा
मातृभाषा दिवस (22 फ़रवरी) पर विशेषप्रो. गिरीश्वर मिश्रमनुष्य इस अर्थ में भाषाजीवी कहा जा सकता है कि उसका सारा जीवन व्यापार भाषा के माध्यम से ही होता है. उसका मानस भाषा में ही बसता है और उसी से रचा जाता है.because दुनिया के साथ हमारा रिश्ता भाषा की मध्यस्थता के बिना अकल्पनीय है. इसलिए भाषा सामाजिक सशक्तीकरण के विमर्श में प्रमुख किरदार है फिर भी अक्सर उसकी भूमिका की अनदेखी की जाती है. भारत के राजनैतिक-सामाजिक जीवन में ग़रीबों, किसानों, महिलाओं, जनजातियों यानि हाशिए के लोगों को सशक्त बनाने के उपाय को हर सरकार की विषय सूची में दुहराया जाता रहा है. शरदआत्म-निर्भरता के लिए ज़रूरी है because कि अपने स्रोतों और संसाधनों का उपयोग को पर्याप्त बनाया जाए ताकि कभी दूसरों का मुँह न जोहना पड़े. इस दृष्टि से ‘स्वदेशी’ का नारा बुलंद किया जाता है. कभी इस तरह की बातें ग़ुलाम देश को अंग्रेज़ी...
कौन कहता है मोहन उप्रेती मर गया है!

कौन कहता है मोहन उप्रेती मर गया है!

स्मृति-शेष
लोक के चितेरे मोहन उप्रेती की जयंती (17 फरवरी, 1928) पर विशेषचारु तिवारीउस शाम मैं गुजर रहा था उद्दा की दुकान के सामने से, अचानक दुकान की सबेली में खड़े मोहन ने आवाज दी- ‘कहां जा रहा है ब्रजेन्द्र? यहां तो आ.’ क्या है यार? because घूमने भी नहीं देगा.’ और मैं खीज कर उदेसिंह की दुकान के सामने उसके साथ घुस गया. उसके सामने ही लगी हुर्इ लकड़ी की खुरदरी मेज थी. मोहन कुछ उत्तेजित-सा लग रहा था. मेज को तबला मानकर वह उसमें खटका लगाकर एक पूर्व प्रचलित कुमाउनी गीत को नितान्त नई धुन तथा द्रुत लय में गा रहा था. वह बार-बार एक ही बोल को दुहरा रहा था. उस गीत की नर्इ और चंचल because धुन मुझे भी बहुत अच्छी लग रही थी. गीत था-अपनेपन बेडू पाको बारामासा हो नरैण काफल पाको so चैता मेरी छैला. रूणा-भूणा because दिन आयो हो नरैण पूजा but म्यारा मैता मेरी छैला. मोहन बार-बार यही धुन दुहरा रहा था. ‘अर...
हाँ! सच है कि रवाँई में जादू है

हाँ! सच है कि रवाँई में जादू है

साहित्‍य-संस्कृति
दिनेश रावतकभी दबे स्वर तो कभी खुलम-खुला अकसर चर्चा होती ही रहती है कि रवाँई में जादू है. बहुत से दिलेरे या रवाँईवासियों की अजीज मित्र मण्डली में शामिल साथी सम्बंधों का because लाभ उठाते हुए चार्तुयपूर्ण अंदाज में कुशल वाक्पटुता के साथ किन्तु-परन्तु का यथेष्ट प्रयोग करते हुए उन्हीं से ही पूछ लेते हैं कि ‘हमने सुना है कि रवाँई में जादू है...!’ यद्यपि इस दौरान ‘हमने सुना है’ पर विशेष बलाघात रहता है. मत के अनु समर्थन या पुष्टि के लिए वे तकिया कलाम बन चुके- ‘जो गया रवाँई वो बैठा घर ज्वाई’ का भी सहज सहारा ले लेते हैं. ऐसे ही प्रश्नों से जब भी because मेरा सामना हुआ है मैंने सहज स्वीकारा है कि— हाँ! सच है कि रवाँई में जादू है, मगर वह बंगाल के काले जादू जैसा नहीं बल्कि उससे बहुत भिन्न मान-सम्मान, स्वागत-सत्कार, अनूठे अपनेपन-आत्मीयता व विश्वास का जादू है जो जाने-अनजाने, चाहते-न-चाहते हुए भी कई ...
गढ़वाली भाषा और साहित्य को समर्पित बहुआयामी व्यक्तित्व- संदीप रावत

गढ़वाली भाषा और साहित्य को समर्पित बहुआयामी व्यक्तित्व- संदीप रावत

पुस्तक-समीक्षा
डॉ. अरुण कुकसालप्रायः यह कहा जाता है कि जो समाज में प्रचलित और घटित हो रहा है, वह उसके समसामयिक साहित्य में स्वतः प्रकट हो जाता है. परन्तु इस धारणा के विपरीत यह भी कहा जा सकता है कि जो सामाजिक प्रचलन में अप्रासंगिक हो रहा है, ठीक उसी समय उसकी अभिव्यक्ति उसके साहित्य और संगीत में प्रमुखता से होने लगती है. लोक भाषायें और संगीत सामाजिक जीवन व्यवहार से हट रही हैं, परन्तु लोकभाषा और संगीत रचने का शोर चहुंओर है. गढ़वाळि भाषा-संगीत के विकास की बात करने वाले आये दिन और मुखर हो रहे हैं, पर उसको सामाजिक व्यवहार में लाने में उनमें से अधिकांश के प्रयास बस किताबी ही हैं.शरद लोक साहित्यकार संदीप रावत जैसे विरले ही हैं जो गढ़वाळि भाषा को पूरे समर्पण भाव से जवान हो रही पीढ़ी की मुख्य जुबान बनाने का प्रयास कर रहे हैं. गढ़वाळि साहित्य की प्रत्येक विधा में पारंगत उनकी लेखनी में कमाल का आकर्षण है. गढ़वाळि...