- चन्द्रशेखर तिवारी
उत्तराखण्ड के अनेक पर्व व त्यौहारों ने स्थानीय गीत, नृत्य, गायन और संगीत को जन्म देकर यहां की सांस्कृतिक परम्परा को समृद्ध करने का कार्य किया है. यहां के पर्व त्यौहारों में धर्म, आस्था और संस्कृति का अद्भुत संगम तो दिखायी ही देता है साथ ही साथ इनमें सामूहिक सहभागिता, लोक जीवन की सुखद कामना और प्रकृति के साहचर्य में रहते हुए उसके प्रति संरक्षण की भावना भी परोक्ष तौर पर परिलक्षित होती है.
उत्तराखण्ड खासकर कुमाऊं अंचल में मनाई जाने वाली होली भी कुछ ऐसी विशिष्टताओं के लिए जानी जाती है. शिशिर ऋतु के अवसान होते ही सम्पूर्ण पहाड़ में बसंत की सुगबुगाहट होने लगती है. ऊंचे शिखरों में खिले लाल बुरांश के फूल पहाड़ के लोगों को बसन्त आगमन की सूचना देने लगते हैं. गुलाबी ठण्डी बयार में सीढ़ीदार खेतों में फूली सरसों इठलाने लगती है. आंगन के आस-पास खडे़ आडू-खुबानी व पंय्या के पेड़ जहां सफेद-गुलाबी फूलों से लकदक हो जाते हैं वहीं यत्र-तत्र उगे प्योंली के नन्हें पीत पुष्प भी अपनी छटा बिखरने को आतुर जान पड़ते हैं. प्रकृति के इस अलौकिक बासन्ती रुप को देखकर पहाड का जन-मानस प्रफुल्लित हो उठता है और उसके अन्र्तमन में भी प्रेम,श्रृंगार और रंग की कोंपले फूटने लगती हैं. इन्हीं दिनों यहां घर-घर में बैठी होलियों का दौर चलने लगता है जिसमें हारमोनियम व तबले के संगीत के साथ बसन्ती बयार में होली गीत की पंक्तियां सुनायी देने लगती हैं.
“आयो नवल बसंत,सखी ऋतुराज कहाये
चम्पा जो फूली,टेसू जो फूले,फूल ही फूल सुहाये
कामिनि के मन मंजरि फूली वा बिच श्याम सुहाये
आयो नवल बसंत,सखी ऋतुराज कहाये.”
पहाड़ की सम्पूर्ण धरा फागुनी रंग से सरोबार हो गयी है. यहां के पर्वत, घाटी, पेड़-पौधें और तो और हिमालय में धूनी रमाने वाले भगवान शिव और उनकी पत्नी पार्वती को भी प्रकृति ने अपने सुनहरे रंगों से रंग दिया है. तभी तो यहां का जन मानस आह्लादित होकर कह उठता है- आओ हम सब लाल बुरांश को कुमकुम अर्पित करें,पहाड़ के सारे शिखर पर्वत बसन्ती रंग से शोभायमान हो गये हैं. पार्वती जी की सुनहरी साड़ी को हिम परियों ने सतरंगी रंगों से रंग दिया है. समूचे हिमांचल में लालिमा फैल गयी है. सूरज की किरणों ने स्वर्ग से लायी हुई रंग की पूरी गागर शिव पर उड़ेल डाली है जिससे भगवान शिव की शोभा देखते ही बन रही है.
“बुरुंशि को फूल को कुमकुम मारो,डाना-काना छाजि गै बसन्त नरंगी
पारबती ज्यू की झिलमिल चादर,ह्यूं की परिनलै रंगै सतरंगी
लाल भयी हिमांचल रेखा,शिबज्यू की शोभा पिंगली दनकारी
सुरज कि बेटियों लै सरगै बै रंग घोलि, सारिही गागर ख्वारन खिति डारी.”
कुमाऊं की होलियां संगीत और गायन दृष्टि से महत्वपुर्ण स्थान रखती हैं. पुराने समय से ही गांव-गांव की चैपाल से लेकर घर-आंगन में गायी जाने वाली होली की यह शानदार परम्परा आज पहाड़ की सामाजिक सहभागिता व समरसता का प्रतीक बन चुकी है. सामान्यतः यहां होली गायन की दो परम्परागत विधाएं दिखायी देती हैं. गायन की पहली विधा ‘खड़ी होली‘ है. खड़ी होली को ग्रामीण परिवेश के अत्यन्त निकट देखा जाता है. कुमाऊं के ग्रामीण इलाकों में हर परिवार के आंगन पर खड़ी होली गाने की परम्परा है. खड़ी होली में गांव के लोग सामूहिक तौर पर अवश्य ही शामिल होते हैं.
खड़ी होली की शुरुआत फाल्गुन एकादशी के दिन सार्वजनिक स्थान पर गाडे़ गये पदम वृक्ष की टहनी में चीर बंधन की रस्म होती है. उसके बाद रंग-अनुष्ठान होता है जिसके बाद खड़ी होलियां का गायन शुरू हो जाता है. खड़ी होलियों का यह क्रम छलड़ी (मुख्य होली) तक चलता है. खड़ी होलियां होल्यारों यानी होली गायकों द्वारा गोल घेरे में खडे़ होकर हाथों के हाव भाव और विशेष पद संचालन के साथ गायी जाती है. चीर-बन्धन के समय यह होली गायी जाती है-
कैलै बांधी हो चीर.
जै रघुनंदन राजा
ब्रह्मा जी बांधी चीर हो, रघुनंदन राजा
विष्णु जी बांधी चीर हो, रघुनंदन राजा
षिवज्यू लै बांधी चीर हो, रघुनंदन राजा”
होली एकादषी के दिन कुमाऊं अंचल के मंदिरों व घर के देवस्थानों में रंग के छींटे डाले जाते हैं. घर परिवार के सदस्यों के सफेद कपड़ों पर भी रंग डाला जाता है. सिद्विदाता गणेष सहित समस्त देवी देवताओं से घर कुटुम्ब व गांव समाज के खुसहाली एवं समृद्वि की मंगलकामना की जाती है और यह होली गायी जाती है –
तुम सिद्वि करो महराज, होरी के दिन में
गणपति जी जीहैं लाख बरीस
रिद्वि-सिद्वि ले के साथ, होरी के दिन में
ब्रह्मा जी जीहैं लाख बरीस...
विष्णु जी जीहैं लाख बरीस
गांव के सभी बच्चे, बूढे़, जवान खडी़ होली के रंग में सारोबार होने लगते हंै. ढोल की गमक और झांझर की झनकार के साथ जब सामूहिक होली गांव के मंदिरं में गायी जाती है तो लगता है कि देवलोक के देवगण भी होल्यारों के साथ होली गायन में षामिल हो गये हैं.
बसन्ती रंग की छटा से मोहित होकर पहाड़ के नर-नारी अत्यंत आल्हादित हैं, उनका रोम-रोम पुलकित हो उठा है और मन में यौवन व श्रंगार की कोपलें फूटने लगी हैं. होली की मस्ती में होल्यार रस भरी होली गीतों को गाने से भी नहीं चूकते.
उड़ि जा भंवर तोके मारेंगे
उड़ि -उड़ि भंवरा बगिया में बैठे
फूलन केा रस लेय भंवर तोके मारेंगे
उड़ि-उड़ि भंवरा स्यूंनिन में बैठे
स्यूंनिन केा रस लेय भंवर तोके मारेंगे
गांव से परदेश गये पिया की राह देखते देखते प्रियतमा की आंखे थक हार जाती हैं. फागुन का महीना आते ही वह अत्यंत व्याकुल व अधीर हो उठी है. उसके प्रीतम भी इस फागुन में घर आने वाले हैं. वह साज-श्रृंगार व वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर तथा तरह-तरह के पकवान बनाकर अपने प्रीतम की प्रतीक्षा कर रही है. भाव विह्वल होकर वह अपने सखी से कहती है-
बलमा घर आये फागुन में
जब से पिया परदेस सिधारे
आम लगाये बागन में
सुन्दर तेल फुलेल लगायो
स्योनि श्रंगार करावन में
भोजन-पान बनाये मन में
लड्डू-पेडा़ लावन में
आये पिया हरष भई हूं
मंगल काज करावन में
बलमा घर आये फागुन में
पूर्णिमा की रात में होलिका जलायी जाती है. उसके अगले दिन छलड़ी यानी रंगों से गीली होली खेली जाती है. इस दिन होल्यार घर-घर जाकर कुटुम्ब परिवार को आशीष वचन देते हैं. छलड़ी के अगले दिन टीका होता है. गांव के मन्दिरों में पूजा अर्चना की जाती है और हलुवे का भोग लगता है. इस पूजा में लोग सामूहिक रुप से एकत्रित होते हैं. इस तरह होली को विदाई देकर होल्यार अगले वर्ष की होली का इन्तजार करते हैं.
गावैं खेले देव अषीष ,होहो होलक रे
बरस दिवाली बरसै फाग,
होहो होलक रे
जो नर जीवैं खेले फाग,
होहो होलक रे
कुमाऊं अंचल में कुछ जगहों पर महिलाओं द्वारा अलग से होली गाने की भी परम्परा दिखयी देती है. महिलाओं द्वारा गाये जाने वाले गीत बैठी व खड़ी होलियों का मिला-जुला रुप होते हैं.महिलाएं ढोलक व मंजीरा बजाकर होली गाती हैं. महिलाओं की यह होली एकादशी से प्रारम्भ हो जाती है. घर व खेती के काम धन्धे निपटाकर महिलाएं अत्यंत उल्लास के साथ वे बैठी होली में भाग लेती हैं. बैठ होली में महिलाएं स्वांग और प्रहसन भी करती हैं. मीठे तीखे व्यंग्य से भरपूर यह स्वांग सम-सामयिक घटनाओं के अलावा परिवार के सास ससुर, बहू, षराबी, व गांव प्रधान व नेताओं के व्यवहार को सहज भाव से उजागर करते हैं.
उत्तराखण्ड में होली गायन की दूसरी विधा ‘बैठ होली‘ के रुप में प्रचलित है. नगरीय परिवेश में ‘बैठ होली‘ का गायन सर्वाधिक दिखायी देता है जिस वजह से इसे नागर होली के नाम से भी जाना जाता है. ‘बैठ होली‘ का गायन देवस्थान, सार्वजनिक भवन अथवा घर में बैठकर (जैसा कि इसके नाम से भी जाहिर है) किया जाता है जिसमें पांच-सात अथवा उससे अधिक लोग शामिल होते हैं. इसके गायन की शुरुआत पूष माह के पहले रविवार से हो जाती है. पूष से लेकर वसन्त पंचमी के पहले दिन तक आध्यात्मिक /निर्वाण होली गीतों का गायन होता है और इसके बाद षिवरात्रि तक रंगभरी तथा इसके बाद ‘छलड़ी‘ तक श्रंगारिक होली गीत गाये जाते हैं.
‘बैठ होली‘ गायन परम्परा का प्रार्दुभाव कुमाऊं में कब से हुआ, हांलाकि इसका लिखित प्रमाण तो नहीं मिलता, परन्तु प्रचलित लोकमान्यता के आधार पर अनेक संस्कृतिकर्मी कुमाऊं में इसका आरंभिक काल आज से ढाई सौ से तीन सौ साल पूर्व का मानते हैं. अल्मोड़ा के वरिष्ठ रंगकर्मी श्री शिवचरण पाण्डे का मत है कि कुमाऊं में चंद राजाओं के शासन के दौरान ‘बैठ होली‘ गायन की परम्परा अवश्य रही होगी. गढ़वाल के तत्कालीन राजा प्रद्युम्नशाह (1786-1803) का जिक्र ‘बैठ होली‘ के एक गीत में इस तरह देखने को मिलता है-’तुम राजा महराज प्रद्युम्नशाह,मेरि करो प्रतिपाल,लाल होली खेल रहे हैं…’ इसी तरह कुमाउनी के आदि कवि लोकरत्न पंत ’गुमानी’ (1790-1846) द्वारा रचित इस होली गीत के आधार से भी माना जा सकता है कि कम से कम उत्तराखण्ड में बैठ होली का इतिहास तकरीबन ढाई सौ वर्ष पुराना अवश्य ही रहा है.
मोहन मन लीनो,वंशी नागिन सौं
मुरली नागिन सौं
केहि विधि फाग रचायो
बृज बांवरो बांवरी कहत है
अब हम जानी
बांवरो भयो नंदलाल
केहि विधि फाग रचायो
मीरा के प्रभु गिरधर नागर
कहत ’गुमानी’
अंत तेरो नहीं पायो
केहि विधि फाग रचायो
कुमाऊं में ‘बैठ होली’ गायन की परम्परा आम समाज तक कैसे पहुंची इस पर होली के जानकार व संगीतज्ञ डॉ. पंकज उप्रेती का मानना है कि वस्तुतः’बैठ होली‘ के गीतों का आगमन मैदानी भाग से हुआ है. राजदरबार में होने वाली महफिलों में तब बाहर से पेशेवर गायक बुलाये जाते थे. इन गायकों की संगति में रहकर कुछ स्थानीय कलाकार भी गायन विधा में पारंगत हो गये. कालान्तर में राज दरबार से निकलकर यह परम्परा धीरे-धीरे संभ्रात परिवार से होते हुए आम जन के बीच पहुंच गयी. चंद राजाओं की राजधानी होने से कुमांउनी ‘बैठ होली’ की नींव अल्मोड़ा शहर में पड़ी. होली के जानकारों के अनुसार राजदरबार की ’बैठी होली’ समाज के विशिष्ट व आम जनों के बीच उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में पहुंची.
रंगकर्मी श्री शिवचरण पाण्डे के अनुसार अल्मोड़ा में मल्ली बाजार के हनुमान मंदिर से इसकी शुरुआत हुई. शुरुआती दौर में स्व. गांगी लाल वर्मा के आवास में भी होली की बैठकें होती थीं जिसमें उस समय की विख्यात गायिका रामप्यारी की भी शिरकत होती थी. अल्मोड़ा की परम्परागत बैठी होली को सजाने संवारने में कई मुस्लिम गायकों का भी योगदान रहा है जिसमें उस्ताद अमानत हुसैन का नाम आज भी आदर से लिया जाता है.
वर्तमान में ’बैठ होली‘ की इस समृद्ध विरासत को शहर की प्रसिद्ध सांस्कृतिक संस्था ’हुक्का क्लब’ आगे बढ़ाने का प्रयास कर रही है. यहां पूष के पहले इतवार से फागुन की पूर्णिमा तक जमने वाली महफिल में रसिक जन होली गायन का भरपूर आनन्द उठाते हैं. नैनीताल में शारदा संघ व नैनीताल समाचार,व युगमंच, हल्द्वानी में हिमालय संगीत शोध समिति, पौड़ी में श्री रामलीला समिति तथा देहरादून की कुर्मांचल परिषद् सहित लखनऊ, जयपुर,दिल्ली आदि महानगरों के पहाड़ी प्रवासी संस्थाएं भी हर साल बैठ होली का आयोजन कर रही हैं और इस पुरानी परम्परा को समृद्ध बनाने का कार्य कर रही हैं.
कुमाउनी ’बैठ होली‘ में प्रेम, वियोग व श्रृंगारिक गीतों की प्रधानता तो रहती ही है परन्तु इनमें जनमानस को भक्ति, धर्म, दर्शन व वैराग्य का संदेश देने वाली होलियां भी शामिल रहती हैं. सासांरिक माया से परे हटकर एक भक्त को न तो गंगा नहाने की जरुरत पड़ रही है न तीरथ जाने की उसे तो प्रभु के गुण गाने मात्र से ही प्रकृति में प्रभु के साक्षात दर्शन हो गये हैं.
भव गुंजन गुन गाऊं
मै अपने हरि को रिझाऊं
गंगा न न्हाऊं,जमुना न न्हाऊं
न कोई तीरथ जाऊं
पात-पात में बसे अविनाशी
उन्हीं के दरशन पाऊं
भव गुंजन गुन गाऊं
मै अपने हरि को रिझाऊं
हांलाकि कुमाउनी ’बैठ होली‘ के गीतों में ब्रज व अवध इलाके छाप पूरी तरह दिखायी देती है परन्तु इनमें पहाड़ की महक अवश्य महसूस की जाती है. इनका गायन-वादन व प्रस्तुतिकरण का प्रवाह यहां सतत रुप चलता रहा और समय-समय पर इनमें स्थानीय राग व रंग भी समाहित होते रहे. इसी विशिष्टता के चलते यहां की ‘बैठ होली’ ने अपनी अलग पहचान बनायी है.
कुमाऊं की बैठ होलियां कुछ अन्य मायनों में भी खास हैं. ‘बैठ होली’ के गीत विविध रागों में ढले होने के बावजूद भी इन्हें यहां के लोक ने शास्त्रीय बन्धनों से कुछ हद तक मुक्त रखा हुआ हैं. होली गायकों को गायन में शिथिलता दी हैै. रागों से अनजान गायक भी मुख्य गायक के स्वर में अपना सुर आसानी से मिलाकर महफिल में समा बांध देते हैं.कुमाउनी बैठी़ होली लम्बे समय तक गाये जाने के वजह से भी विशेष मानी जाती है क्योंकि इनके गायन का क्रम पूष के प्रथम रविवार से आरम्भ होकर फाल्गुन की मुख्य होली तक चलता ही है परन्तु कुछ जगहों पर होली गायन की यह परम्परा चैत्र संवत्सर अथवा रामनवमी तक भी दिखायी देती है. ’बैठी होली’ में समय, दिन और पर्व विशेष का विशेष ध्यान रखा जाता है और इसी आधार पर निर्वाण, भक्ति तथा श्रृंगार-वियोग प्रधान होलियों को अलग-अलग राग और रूपों में गाने की परम्परा है.
वरिष्ठ रंगकर्मी श्री शिवचरण पाण्डे के अनुसार ’बैठी होली’ की शुरुआत राग श्याम कल्याण या काफी से की जाती है और फिर सिलसिलेवार राग जंगला-काफी, खमाज्ज, सहाना, झिझोटी, विहाग, देश, जैजैवन्ती, परज तथा भैरव में गायन किया जाता है. दिन में होने वाली बैठकों में राग पीलू, सारंग, भीमपलासी, मारवा, मुल्तानी व भूपाली आदि रागों पर आधारित होलियां गायी जाती हैं. राग जैजैवन्ती, ताल चांचर में निबद्ध यह गीत होली की बैठकों में अक्सर सुनने को मिलता है.
बीतत रैन गिनत हम तारे
जाय कहो कोई सैय्यां से हमारे
होरी आई पिया नहीं आये
गयोरी जोबन फिर आवत नाहीं
दरअसल ’बैठ होली’ की गायन शैली श्रुत परम्परा से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक चलती आयी है और इसी तरह से इन गीतों में सुर देते हुए एक सामान्य जन भी गायक बन जाता है. इसलिए ही यहां की बैठी होली को समाज ने विशुद्ध शास्त्रीय गायन में कुछ शिथिलता दी हुई है. बैठ होली की बैठकों में गुड़ की डली, पान, सुपारी, लौंग, इलायची के साथ ही पहा़डी़ व्यंजन यथा चटपटे ’आलू के गुटकों’ व सूजी से बने स्वादिष्ट ’सिंगलों’ को भी परोसा जाता है.
कई तरह की विषेषताएं दिखती हैं कुमाउनी होली में: कुमाऊं अंचल की होली में विविश तरह की आंचलिक विशेषताएं मिलती हैं. उत्तर भारत के ब्रज-अवध से निकलकर आयी इस होली ने धीरे-धीरे पहाड़ के स्थानीय तत्वों को अपने में समाहित किया है और उसे एक नया स्वरूप देने की कोशिश की है. विभिन्न काल खण्डों में इसमें लोक के रंग भी घुलते रहे. होली के इसी रूप को आज हम उत्तराखंड की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के तौर पर सामने पाते हैं .
1) होली गायन की अवधि: कुमाऊं इलाके में होली गायन का आरम्भ बैठी होली के रुप में पूष के प्रथम रविवार से हो जाता है जो फाल्गुन माह के पूर्णिमा के बाद आने वाली छरड़ी तक या उससे आगे चैत्र के संवत्सर अथवा कहीं-कहीं रामनवमी तक भी चलता है. बसंत पंचमी से पूर्व तक बैठी होली में निर्वाण व भक्ति प्रधान होलियां तथा इसके बाद रंगभरी व श्रृंगारिक होलियां गायीं जाती हैं.पदम वृक्ष की टहनी को सार्वजनिक स्थान पर गाड़ने व चीर बंधन के बाद फाल्गुन एकादशी को रंग-अनुष्ठान होता है, और खड़ी होलियां शुरू हो जाती हैं. इतने लम्बे दौर तक होली गायन का प्रचलन सम्भवतः कहीं और नहीं दिखायी देता है.
2) होली गायन के विविध रुप: कुमाऊं में होली गायन के तीन रुप मिलते हैं- बैठ होली, खड़ी होली और महिलाओं की होली. इन सभी होलियों का विवरण पूर्व में दिया जा चुका है.
3) बैठ होलियों में गायन की शिथिलता: बैठ होली जो कि शास्त्रीय रागों पर आधारित होती है उसमें आम व्यक्ति जो इसके गायन में बहुत प्रवीण न भी हो वह भी अपने स्वर की भागीदारी बिना हिचकिचाहट के साथ कर लेता है. बैठ होली गीतों में शास्त्रीय रागों की बाध्यता को यहां के समाज ने गायन के दौरान थोड़ी शिथिलता के साथ कम किया है. शास्त्रीय रागों से अनभिज्ञ गायक भी मुख्य गायक द्वारा उठाई गयी होली में अपना स्वर जोड़ लेता है.
4) आध्यात्म और प्रकृति से जुडे़ हैं होली गीत: यहां गायी जाने वाली होलियों का यदि विश्लेषण करें तो हमें इनके अन्दर विविध भाव और संदेश दिखायी देते हैं. निर्वाण व भक्ति प्रधान होली गीत जहां समाज को सासांरिक माया-मोह से उबरने तथा ईश्वरीय शक्ति को अनुभूति करने का संदेश देते हैं तो वहीं श्रृंगार व रसभरी होलियां प्रकृति के साथ ही सम्पूर्ण मानव जगत में राग-रंग, उल्लास व प्रेम के भाव को संचारित करती हैं.
5) होली गीतों का सामयिक आन्दोलनों से जुड़ना: अनेक बार सामाजिक और समयामयिक आंदोलनों में यहां के होली गीतों को माध्यम बनाने का जो अभिनव प्रयोग किया गया है.यह भी एक तरह से यहां की होली की बड़ी विशेषता है. होली गीतों की तर्ज पर कुमाऊं के कवि गौर्दा व बाद में चारू चन्द्र पाण्डे व गिर्दा ने जिन होली गीतों को रचकर सामाजिक चेतना व आन्दोलन से जोड़ा वह अद्भुत कार्य था. स्वतंत्रता संग्राम के दौर में गौर्दा की होलियों तथा बाद में पहाड़ के वन व शराब आन्दोलनों में गिर्दा ने जिन गीतों ने भूमिका निभाई वह बहुत महत्वपूर्ण था. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पहाड़ के लोगों में देश प्रेम की भावना पैदा करने में अल्मोड़ा के लोक कवि गौर्दा की होलियों का बड़ा योगदान माना जाता है. उनकी एक कुमाउनी होली इस तरह है.
“होली अजब खिलाई मोहन अवतार कन्हाई
सूत कातकर चरखे से मोहन खद्दर चीर पहनाई
विदेशी माल गुलाल उड़ायो स्वदेशी रंग उड़ायी
गोरे सब नाचे नाच रंग बिरंगी पिचकारी मारी
स्वराज पताका उड़ायी जी हुजुरों को भांग पिलाई”
6) सामाजिक एकता की प्रतीक हैं यह होलियां: परम्परागत तौर पर वर्षों से यहां की होलियां सामाजिक समरसता ,सामूहिक एकता व भाई-चारे का भी प्रतीक रही हैं. आज भी पहाड़ के गांवो में सामूहिक तौर पर होली गांव के हर घर के आंगन में जाती है. यही नहीं कई स्थानों पर आसपास स्थित एक दूसरे के गांवो में भी होल्यार होली गाने जाते हैं. कुमाऊं के नगरों व कस्बों में होली के पर्व-आयोजन में सभी वर्ग-संप्रदाय के लोग समान रुप से हिस्सा लेते हैं. अल्मोड़ा की पुरानी बैठी होली में बाहर से आये कई पेशेवर मुस्लिम गायकों का भी योगदान रहा है. पहाड़ से प्रवास पर गये कई लोगों ने आज भी होलियों में अपने घर गांव आने की परम्परा कायम रखी है. लखनऊ,दिल्ली व मुम्बई जैसे अन्य महानगरों में होली के पर्व में प्रवासी लोगों को यहां की परम्परागत होलियां पहाड़ लौट आने को विवश कर देती हैं.
7) आशीष देने की निराली परम्परा मौजूद है यहां की होलियों में: कुमाऊं में होल्यारों की टोली घर के आंगन में पंहुचने के बाद जब दूसरे आंगन की ओर प्रस्थान करती है तब होल्यारों के मुखिया द्वारा सभी पारिवारिक सदस्यों को स्नेह युक्त आशीष दी जाती है. आशीष के ये वचन वसुधैव कुटुम्बकम् और जीवेत शरद शतम् की अवधारणा को पूरी तरह चरितार्थ करते हैं. आशीष का भाव यह है कि बरस दीवाली बरसे फाग…जीते रहो रंग भरो…घर का मुखिया,पारिवारिक जन…बाल बृन्द सब जीते रहें…पांचों देव दाहिने रहें और बसन्त इस घर की देहरी पर उतरता रहे.
सतराली की होली
अल्मोड़ा के समीप सतराली क्षेत्र (ताकुला,खाड़ी लोहना, काण्डे, कोतवालगांव, थापला एवं पनेरगांव) की खड़ी होली पूरे कुमाऊं में प्रसिद्व है. यहां होली के दिनों में परिवार के सदस्य जो गांव से बाहर गये होते हैं छूट्टी लेकर गांव जरुर पहुंचते हैं. गांव के हर घर में बारी-बारी से खड़ी होली गायी जाती है. अबीर-गुलाल, गुड़-गुझिया व आलू के चटपटे गुटकों से होल्यारों का स्वागत होता है. चतुर्दशी के दिन ऊंचे पहाड़ पर स्थित गणनाथ के षिवमंदिर में सातों गांव के होल्यार अपने-अपने निर्धारित गायन स्थल (खोले) में शिव की होली गाते हैं. पूरा मंदिर शिवमय हो जाता है. होली गायन के बाद ढोल वादन प्रतियोगिता भी होती है.
सतराली की होली की एक और विषेषाता है कि सात गांवों के होल्यार एक दूसरे के गांव जाकर भी उनके खोले में यानि मुख्य सामूहिक जगह पर होली गाते हैं. पूर्णिमा के दिन सभी होल्यार ताकुला के प्राचीन त्रयम्बकेश्वर मंदिर में एकत्रित होकर होली का गायन करते हैं. यहां की होली कुमाऊं के अन्य क्षेत्रों की तुलना में अलग लय व अन्दाज में गायी जाती है. परम्परानुसार सतराली के होल्यार शिवरात्रि को बागेश्वर के बागनाथ मन्दिर से सामूहिक रुप से खड़ी होली की शुरुआत करते हैं. बागेश्वर के बागनाथ मन्दिर में इस होली की छटा दर्शनीय होती है. सतराली की होली की तरह कुमाऊं अंचल में काली कुमांऊ (चम्पावत-लोहाघाट), की बनजारा होली गंगोली, सोर घाटी, चैगढ़, छखाता, चैखुटिया-गिंवाड, बौर-रौ, कत्यूर व दानपुर क्षेत्र की खडी होलियां भी प्रसिद्व मानी जाती हैं.
बैठ होली की रंगत
अल्मोड़ा की बैठ होली अपने में विशेष स्थान रखती है. बैठ होली की परप्परा चंद राजाओं के समय से चली आ रही है. पौष माह के पहले रविवार से ही नगर के मुहल्लों से हारमोनियम, तबला,सारंगी,चिमटा,मजीरा,ढोलक व सितार और वायलन जैसे वाद्य यंत्र के मधुर संगीत के साथ विविध राग-रागिनियों में गायी गयी होलियां सुनायी पड़ती हैं. शास्त्रीय संगीत में होली गायन दुष्कर है, इस दृष्टि से यहां के पहले के बुर्जुग कलाकारों ने इनके ताल में थोड़ा बदलाव लाकर इसे सुगम बना दिया है. बैठ होली के प्रत्येक गीत में ताल को ठेका, तीन ताल, सितारखानी व कहरुवा के क्रम में बजाया जाता है. बैठ होली खमाज, काफी, जैजैवन्ती, पीलू, बिहाग, देश व सहाना जैसे राग-रागनियों में गायी जाती हैं. यह परम्परा जाखनदेवी, रानीधारा, त्रिपुरासुन्दरी, नन्दादेवी, चीनाखान, धारानौला, गंगोला मुहल्ला, रघुनाथ मंदिर एवं पाण्डेखोला सहित कई स्थानों में दिखाई देती है. प्रसिद्ध सांस्कृतिक संस्था श्री लक्ष्मी भंण्डार (हुक्का क्लब) सहित कई स्थानों में होली की बैठकें जमती हैं.अ कुमाऊं में अल्मोड़ा नगर के अलावा नैनीताल,हल्द्वानी,काशीपुर, पिथौरागढ़, गंगोलीहाट, चम्पावत, लोहाघाट, पाटी तथा रानीखेत में भी बैठ होली की धूम मची रहती है.
(लेखक पहाड़ के विकास व नियोजन, पर्यावरण तथा संस्कृति से जुड़े विविध विषयों पर सतत लेखन व सम्पादन. कई राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में आलेख प्रकाशित एवं आकाशवाणी व दूरदर्शन के नियमित वार्ताकार हैं. ‘कुमायूं अंचल में रामलीला’, ‘हिमालय के गावों में’, ‘उत्तराखंड: होली के लोक रंग’ व ‘लोक में पर्व और परम्परा’ आदि पुस्तकें प्रकाशित.)