- नीलम पांडेय
वे घुमंतु नही थे, और ना ही बंजारे ही थे। वे तो निरपट पहाड़ी थे। मोटर तो तब उधर आती-जाती ही नहीं थी। हालांकि बाद में 1920 के आसपास मोटर गाड़ी आने लगी लेकिन शुरुआत में अधिकतर जनसामान्य मोटर गाड़ी को देखकर डरते भी थे, रामनगर से रानीखेत (आने जाने) के लिए बैलगाड़ी और पैदल ही सफर करने की लंबी कठिन यात्रा को जब वे पूरा कर लेते तो वापस लौटते हुए, एक दो रात्रि चैन का पड़ाव रानीखेत में भी गुजारा करते थे। आने—जाने की इसी प्रक्रिया में पड़ाव के साथ-साथ कुछ जगह रहने के ठिकाने भी बनते गए।
उनके पास मेरे लिए पढ़ने के आलावा भविष्य बनाने का अचूक उपाय भी था, जो एक लोक गीत के रूप में मुझे रटाया भी गया था “बानरे आंखी छिलूकै की राखी, बौज्यू मै बनार कैं दिया, बानर जांछ हांई फांई बौजयू मैं बानर कै दिया,” मां को विश्वास हो गया था इस गीत और पारम्परिक कहानियों से मैं पांचवीं पास भी कर लूं तो गनीमत होगी।
कहते हैं कि उस बख़त भी कुछ रुकने के लिए रात्रि के ठिकाने थे, कुछ विश्राम गृह जहां वे बेझिझक रुकते थे या फिर अपनी बैलगाड़ियों में ही रात काट लेते थे, यह रानीखेत नगर के बसने से पहले और उसके आसपास की बात हो सकती है या उससे भी पहले की, मेरे पास इन बातों की सत्यता के कोई प्रमाण नहीं है, सिवाय मेरी मकोट की आमा की लगाई गई कई कथा कंथों के कुछ टुकड़े हैं,जिनमें से कुछ बातें मैं यहां पर बता रही हूं सब सुनी हुई बातें हैं, जो मैंने करीब 30—35 साल पहले उनसे सुनी और उन्होंने भी अपने बड़े-बुजुर्गों से देखी, सुनी थी, क्योंकि मेरे पास भी गणित के कठिन सवालों से बचने के लिए अम्मा से अच्छा सहारा कोई नहीं था। उनके पास मेरे लिए पढ़ने के आलावा भविष्य बनाने का अचूक उपाय भी था, जो एक लोक गीत के रूप में मुझे रटाया भी गया था “बानरे आंखी छिलूकै की राखी, बौज्यू मै बनार कैं दिया, बानर जांछ हांई फांई बौजयू मैं बानर कै दिया,” मां को विश्वास हो गया था इस गीत और पारम्परिक कहानियों से मैं पांचवीं पास भी कर लूं तो गनीमत होगी। अम्मा की गोद में जाने के बाद मुझे पढ़ाने की हिम्मत किसी में नहीं थी और उनसे कहानी सुनना मेरे गणित नहीं आने के छुटपन तनाव को दूर कर देता था और कहानी सुनने का शौक भी था ही। वैसे वह कोई कहानीकार तो थी नहीं पर उनके पास अपने जीऐ, भोगे, यथार्थ के अलावा और कहानियां भी कहां से आती, वह जो जीती रही थी, वही सुना देती थी, इस प्रकार से तो वह कहानियों का जखीरा थी, और अनुभवों की चलती फिरती—किताब थी। उस पर उनके पास आखें फाड़-फाड़ कर सुनने वाली एक नन्ही श्रोता जिसके बचपन के दस बारह साल का सत्तर प्रतिशत समय उनके साथ बिता हो। कहानी सुनाने के उस दौर में आमा यानी नंदी देवी एक अच्छी वैद्य थी, दवा पिसते, पकाते और गर्जिया के जंगलों (कॉर्बेट पार्क) से जड़ी—बूटी खोजते हुए ना जाने कितने किस्से वह मुझे बताती थी। उनके पिता भी वैद्य थे और उन्हीं से उन्होंने यह सब सिखा और जाना। क्योंकि अपने पूर्वजों के बाद और अपने बाद के समय में अपने पिता और फिर पति के साथ वह खुद भी कुछ मिलती—जुलती घटनाओं में इस अहर्निश यात्रा की साक्षी रही थी, इसीलिए उनकी स्मृतियों में मुझ तक सुनाने के लिए कुछ बातें सुरक्षित रह गई थी या फिर अपने एकाकीपन में वह बीते जीवन की स्मृतियों को दोहराती होंगी, जो मेरे लिए कहानी बन जाती थी।
राम नगर, हल्द्वानी इसके तराई क्षेत्र में भगौलिक स्थिति अच्छी थी, पानी वाली जमीन थी और जनसंख्या भी कम थी तब लोग धीरे-धीरे वहां रुकने लगे और मेरी नानी के परिवार के लोग भी वहीं रूक गए, और वहीं के वाशिंदे हो गए। लेकिन उन्होंने अपनी पहाड़ की परंपरा, संस्कृति को उसी तरह जीवित रखा जैसे अपने पहाड़ में।
वर्तमान में रामनगर के गर्जिया में जहां मेरा मांकोट (मां का मायका) हुआ करता है, बताते हैं कि मेरी मांकोट की आमा के परिवार के लोग और उनके कुनबे के कुछ लोग तिमला कफुल्टी से थे। जो रामनगर आकर बस गऐ थे, क्योंकि उस दौरान गर्मी भर जितना भी अनाज अपने गांव में उगा सकते थे, उसमें से कुछ अनाज लेकर परिवार के कुछ सदस्य ठंड के समय रामनगर और भाबर के तराई क्षेत्र में चले जाते थे ताकि बदले में कुछ चीजें अपने लिए, अपने मोटे झोटे राशन, मोटा चावल, मडूवा, दालें, राई, हल्दी, तिल और हाथ से बनाए हुए औजारों आदि के बदले अपने लिए कुछ सामान ले सकें, जिनकी उन्हें बहुत जरूरत थी, जैसे नूून, तेल, गहने व वस्त्र आदि। कई लोग लकड़ी की कशीदाकारी में भी बहुत निपुण थे, कशीदाकारी का प्रयोग वे व्यावसायिक रूप से नहीं करते थे किंतु अपने घरों की नक्काशी में इसका बहुत प्रयोग करते थे। यह केवल किसी एक परिवार की बात नहीं थी। उस समय पहाड़ के बहुत सारे परिवार रामनगर, हल्द्वानी आदि तराई क्षेत्र में जाते थे। इसका एक और कारण यह भी था कि वहां पर उनको सिंचित खेती का काम और जानवरों का कामकाज तथा चारा भी मिल जाता था, इस दौरान कुछ धनराशि भी उनके हाथ में आ जाती थी, जिसको लेकर वह पुनः गर्मी आते-आते अपने गांव वापस लौट जाते थे। तराई क्षेत्र से वापस गांव लौटते हुए वे जगह-जगह बीच-बीच में सुरक्षित स्थान देखकर अपनी पड़ाव भी डालते थे, अपनी बैलगाड़ी जिसमें छोटा बाबिल की घास फूस का घर बना हुआ होता था तथा साथ में जानवर भी रहते थे, उन सभी को लेकर वे रात्रि विश्राम करते थे। वे अपने बच्चों और परिवार को लेकर रात भर वहां रुकते थे। वे ऐसी जगह पड़ाव डालते थे, ताकि उनकी सुरक्षा व्यवस्था भी हो सके, शाम ढलने से पहले ही खाना वगैरह बना कर, खा कर, वे बच्चों को सुला देते थे और रात में पहरेदारी भी करते थे। उस वक्त उनके पास कमाए हुए गहने और धन संपत्ति भी होती थी, कई बार डकैती पड़ जाती थी और डकैत महिलाओं के गहने लूट ले जाते थे और पैसा टका भी जो भी उनके पास होता था वह सब लूट ले जाते थे और जब किसी के पास कुछ नहीं मिलता था तो उसके बदले उनके जानवर ही ले जाते थे। कई बार जंगली जानवर मानवों को मार देते थे या पशु हानि कर देते थे, साथ ही प्राकृतिक आपदाओं में भी कुछ लोग जान गंवा देते थे। और जो सुरक्षित समान और परिवार के साथ पहाड़ पहुंच जाता था तब पूरे गांव के लिए बहुत हर्ष का विषय होता था। राम नगर, हल्द्वानी इसके तराई क्षेत्र में भगौलिक स्थिति अच्छी थी, पानी वाली जमीन थी और जनसंख्या भी कम थी तब लोग धीरे-धीरे वहां रुकने लगे और मेरी नानी के परिवार के लोग भी वहीं रूक गए, और वहीं के वाशिंदे हो गए। लेकिन उन्होंने अपनी पहाड़ की परंपरा, संस्कृति को उसी तरह जीवित रखा जैसे अपने पहाड़ में। उनसे ही जुड़ी कुछ बातें हैं जो मैंने भी देखी थी। सर्दियों में रानीखेत में एक महीने की छुट्टी हो जाती थी, ठंड बहुत होती थी, और हमारी स्कूलों की छुट्टियां भी होती थी, तो मां हम (बच्चों को लेकर) लेकर रामनगर चली जाती थी।
माणा एक लकड़ी का गहरा बर्तन होता था जिसमें माणे भर राशन आ जाता था। लोग घर में राशन चावल, आटा, दाल निकालने के लिए भी इसका प्रयोग करते थे। लेकिन जब कोई घर में भिक्षा मांगने आता था या जब किसी को अनाज दान करना होता था तो उसी से दान किया करते थे।
एक बात जो मुझे हमेशा याद रहती है, वह थी दान देने वाली बात, चाहे भाबर में बसे हुए पहाड़ियों की बात कहें या फिर अपने पहाड़ की बात करें, दोनों जगह यह बात समान थी। उस वक्त मकोट की आमा और अपनी घर की आमा, अनाज का थोड़ा—सा भाग किसी मांगने वाले को देने के लिए रखती थी। पहाड़ के लोग मांगने नहीं आते थे लेकिन कुछ नाचने वाली हुड़क्याणी और हुड़किए होते थे और कुछ बाबा लोग, साधु महात्मा भिक्षा के लिए आतेे थे। नानी और दादी के घर में एक बर्तन था, उसे वह लोग माणा कहते थे। माणा एक लकड़ी का गहरा बर्तन होता था जिसमें माणे भर राशन आ जाता था। लोग घर में राशन चावल, आटा, दाल निकालने के लिए भी इसका प्रयोग करते थे। लेकिन जब कोई घर में भिक्षा मांगने आता था या जब किसी को अनाज दान करना होता था तो उसी से दान किया करते थे। यह बातें मेरी समझ से उस वक्त बिल्कुल अलग थी, जब भी मैंने उनसे पूछा तो बताया कि इसी माणे से अनाज दान देना इस बात का प्रतीक होता है कि अगर हमने कहीं कभी कोई कर्ज लिया हो या कभी हमारे पूर्वजों ने कोई कर्ज लिया हो या हम ही किसी कारणवश किसी का कर्ज लौटाना भूल गए हों, तो इस माणे के द्वारा दिया गया अनाज उस कर्ज से मुक्ति दिलाता है। उसकी लकड़ी उपयोग करते—करते चिकनी हो जाया करती थी। इस घटना से एक और घटना जुड़ी है कि एक बड़े सरकारी ओहदे से सेवानिवृत नाना जी थे, जिनको ओबरसेर साब भी कहते थे और काफी वृद्ध भी थे जब वे बहुत बीमार पड़ गए तो बिस्तर में पड़े-पड़े अपनी मृत्यु की कामना किया करते थे, वे अपनी बीमारी से बड़े आजीज आ चुके थे, घर में रुआब भी बहुत था तो सेवा भी खूब होती थी लेकिन घर के लोग भी उनकी लंबी अवचेतन नीद के बीच में ‘हे राम’ उठा ले सुनते रहते थे और उनके दर्द से बैचेन होते थे, पर उनके प्राण ना तो जा रहे थे और ना वह सही हो रहे थे। वे बिस्तर से पापड़ के पतेल (पिंदालू के पत्ते- कहावत है) जैसे चिपक कर सुख रहे थे। धीरे—धीरे सब चाहने लगे कि उनको दुख से मुक्ति मिले पर कैसे? तब एक वृद्ध व्यक्ति ने घर के लोगों को सुझाव दिया कि या आर होगी या पार क्योंकि हो ना हो ओबरसेर सैब ने किसी का कोई कर्ज देना है, अतः उनकी छाती में मणा भर कर अनाज रखा जाए तब ही मुक्ति संभव है और मोक्ष भी मिलेगा। इससे ये होगा कि हो सकता है ये सांसारिक दुनिया में लौट आए या फिर इनको दुखों से हमेशा के लिए मुक्ति मिल जाएगी। सभी उनकी बात पर सहमत हो गए और एक माणा अनाज भरकर उनकी छाती में रखा और थोड़ी ही देर में ओबरसेर सैब ने ‘हे राम’ कहा और पंचतत्व में विलीन हो गए।
जिस बर्तन और जिस मात्रा में जरूरत पड़ने पर (किसी खास मेहमान के आने पर या किसी और जरूरत पर) जो कुछ भी उधार सामग्री ली जाती थी, उसे उसी बर्तन में उतनी ही मात्रा के अनुपात में लौटानी भी होती थी और यदि माणा से माणा के बराबर उधार लिया है तो वह उसी से चुकाया भी जाता था
कुछ जगह पहाड़ में जब कोई कर्ज नहीं देता तो अकसर उस पर रोष प्रकट कर यह भी कह देते हैं ‘जाधिन मरोल उधिन माण धरबेर जाल येक प्राण’ यानी जब भी मृत्यु आए आसानी से ना मरे जब तक माणा भर अनाज ना रखा जाए इसकी छाती में, इसीलिए पहाड़ों में बैकर, पैंच (कोई जरूरत की खाद्य अथवा प्रयोग सामग्री आदि पड़ोस, मित्रो या परिवार से उधार लेने) लेने के बाद, जिस बर्तन और जिस मात्रा में जरूरत पड़ने पर (किसी खास मेहमान के आने पर या किसी और जरूरत पर) जो कुछ भी उधार सामग्री ली जाती थी, उसे उसी बर्तन में उतनी ही मात्रा के अनुपात में लौटानी भी होती थी और यदि माणा से माणा के बराबर उधार लिया है तो वह उसी से चुकाया भी जाता था अन्यथा मृत्यु के समय कष्ट के आलावा भी पारिवारिक संकट दुख व्याधि आदि का भी भय रहता था। कई बार हितैषी लेनदार खुद भी बैकर भूलने की बात देनदार को इसलिए याद दिलाता था ताकि वे कष्ट में ना पड़े इसलिए नहीं कि उसे अपने सामान कि जरूरत है। उस समय इस बात का बुरा भी नहीं माना जाता था।
(लेखिका कवियत्री एवं कहानीकार हैं)