आज की अपरिहार्य आवश्यकता है योग

योग दिवस (21 जून) पर विशेष 

प्रो. गिरीश्वर मिश्र 

चिकित्सा-विज्ञान के ताजे अनुसंधान हमारी जीवन-शैली और स्वास्थ्य के बीच बड़ा निकट का रिश्ता बता रहे हैं. इस बात की पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि अवसाद, चिंता, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, कैंसर और मधुमेह जैसे जानलेवा रोगों के शिकार लोगों की संख्या में जो तेज़ी से इज़ाफ़ा हो रहा है वह बहुत हद तक जीवन-शैली में आ रहे बदलावों के समानांतर है. जीवन-शैली मुख्यतः हमारे स्वभाव, रहन-सहन, तथा खान–पान की आदतों से जुड़ी होती है. अब सुख-सुविधा के अधिकाधिक साधन आम लोगों की पहुँच के भीतर आते जा रहे हैं. वैश्वीकरण के साथ ही सामाजिक और भौगोलिक गतिशीलता भी तेज़ी से बढ रही है. ऊपर से सूचना और संचार की प्रौद्योगिकी घर और बाहर (नौकरी) के कार्य का स्वरूप भी अधिकाधिक डिजिटल बनाती जा रही है. इन सब परिवर्तनों के चलते शरीर के रख-रखाव के लिए ज़रूरी व्यायाम का अभ्यास करने से लोग चूक रहे हैं. बैठकी बढ रही है, इंस्टैंट फ़ूड का उपयोग बढ रहा है और जिम में तेज़ी से पसीना बहाने के चलते हृदय रोग के ख़तरे से  भी लोग जूझ रहे हैं. कुल मिला कर ज़िंदगी का ढर्रा एक यंत्र-बद्ध मनुष्यता की दिशा में आगे बढ़ रहा है.

कभी संस्कार, सदव्यवहार, सद्विचार और सत्कर्म यानी अच्छाई की ओर उन्मुख बने रहना भारतीय जीवन-शैली का केंद्रीय सरोकार हुआ करते थे. इसमें योग की विशेष भूमिका निर्धारित की गयी थी. आज फिर योग (या योगा!) का प्रचलन तेज़ी से हो रहा है. ख़ास तौर पर आसन, प्राणायाम और योग-निद्रा अब फ़ैशन में आ रहे हैं. इनके लिए सस्ते-मंहगे एकल या सामूहिक शिक्षण-प्रशिक्षण के आन लाइन तथा साक्षात कई तरह के पाठ्यक्रम लोकप्रिय हो रहे हैं. बड़ी संख्या में योग-गुरु भी तैयार बैठे हैं जो योग में रुचि रखने वालों की जिज्ञासाओँ को शांत कर रहे हैं. निश्चय ही इन सब फ़ौरी कार्य-कलापों का योग से तो सम्बन्ध है पर  सिर्फ़ यही योग है ऐसा कहना ठीक नहीं होगा. सिद्धांत और व्यवहार को जाँचें-परखें तो योग एक समग्र जीवन-दर्शन है. महर्षि अरविंद के शब्द में कहें तो ‘सारा जीवन ही योग’ है.

योग-विद्या को कई लोग परमात्मा और आत्मा के मिलन से जोड़ कर देखते हैं. हालाँकि ऐसा कहीं भी ज़िक्र नहीं है. महर्षि पतंजलि तो ईश्वर को ‘पुरुषविशेष’ घोषित करते हैं. भक्ति-योग में इसे उच्च चैतन्य की अवस्था के रूप समझाया गया है. सच तो यह है कि बुद्धि, भावना और व्यवहार मानवीय प्रतिभा के ऐसे उपकरण है जिनका अच्छी तरह  से विकास हो जाए तो जीवन के भौतिक जीवन और आध्यात्मिक दोनों पक्षों में उन्नति और सफलता मिल सकती है. पर हो उल्टा रहा है. विभिन्न क्षमताओं का विकास, स्वास्थ्य, शांति और सजगता जैसे आवश्यक पर दुर्लभ होते जा रहे हैं. ये मानवीय गुण यौगिक जीवन-शैली के अंग और परिणाम दोनों कहे जा सकते हैं. योग-शास्त्र को मानें तो योग मुख्यतः चित्तवृत्तियों को शांत करने और उच्च चैतन्य की अवस्था के अनुभव के लिए अग्रसर करता है. योग के आसन प्राणिक ऊर्जाओं को व्यवस्थित और संतुलित करने में सहायक होते हैं. योग के साथ जीवन-यात्रा शुरू करते हुए अभ्यास, साधना और फिर उसे जीवन में उतारने का क्रम आता है. कक्षा में योग के आसन करना, घर पर अभ्यास करना ताकि तनाव दूर हो जाय लाभकर है पर यौगिक सोच को जीवन-शैली के रूप में अपनाना एक गम्भीर मामला है. आज प्रदूषण तथा शारीरिक बीमारियों आदि को ध्यान में रख कर स्वास्थ्य की रक्षा, प्रतिरक्षा तंत्र (इम्यून सिस्टेम) की सुदृढ़ता और मानसिक शांति की तलाश महत्वपूर्ण होती जा रही है. योग इस अधेरे होते समय में रोशनी लाने वाली खिड़की जैसा है. सजग हो कर योग को जीवन शैली में उतार कर सकारात्मक परिवर्तन लाना ही महत्वपूर्ण है.

हमारे स्वभाव की चंचलता हमारे उद्दाम और अपरिमित सुख और संतुष्टि की (बेतुकी!) कामना से जुड़ी हुई है. असंयमित राह पर चलते हुए जो आदत बनती है उससे हमारे चित्त की चंचलता में इज़ाफ़ा होता है और जीवन की दिशा भ्रमित हो जाती है. यौगिक जीवन शैली में हमारी प्रकृति या स्वभाव और आत्म-संयम मुख्य आधार स्तम्भ का काम करते हैं.  गौर तलब है कि जैविक प्राणी (पशु) के रूप में हमारी दिनचर्या (यानी आहार, निद्रा, भय और मैथुन) भी हमारे स्वभाव पर निर्भर करती है. याद रहे कि आहार  में हमारे शरीर और मन दोनों से जुड़ा वह सब आता है जिसे पा कर हम तृप्त और संतुष्ट होना चाहते हैं अर्थात् भोग करना चाहते हैं. निद्रा विश्राम है यानी हम वर्तमान में चल रही क्रिया से विरत होते हैं . आजकल टी वी मोबाइल, आई पैड, लैप टाप के बढ़ते चलन के साथ हमारे ऊपर कई तरह के विक्षेप हावी हो रहे हैं. मैथुन या सेक्स-जीवन में मर्यादाओं को तोड़ते हुए लैंगिक सम्बन्धों में उदार दृष्टिकोण अपनाया जा रहा है जिसके चलते स्वेच्छा और आपसी सहमति को अधिकाधिक निर्णायक महत्व दिया जा रहा है. मातृत्व का विकल्प सरोगेसी या किराए की कोख के साथ आ रहा है. लिव इन रिलेशन के साथ अब समलैंगिक जीवन की नई धारा भी प्रवाहित हो रही है. सेक्स जीवन में संयम को दर किनार कर सभी सामाजिक मर्यादाएँ तोड़ती जीवन-शैली तनाव, मादक द्रव्य सेवन, हिंसा, विश्वासघात और अस्थिरता की ओर आगे बढ रही है . संतुलन और शांति की जगह प्रयोगशीलता, आश्वस्ति की जगह संशय और आत्म-विस्तार की जगह आत्म-संकोच की दिशा में आगे बढ़ती जीवन-शैली व्यापक मानव कल्याण की उपेक्षा करती दिख रही है . वास्तव में यह शैली वियोग की शैली है जो ख़तरनाक रूप से दुःख के साथ हमारे संयोग को बढ़ाती है.

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योग की जीवन-शैली दुःख के साथ होने वाले संयोग से वियोग करने वाली या बचाने वाली है. यौगिक जीवन-शैली का प्रमुख अंग शारीरिक स्वास्थ्य है जिसके लिए सतत प्रयास करना पड़ता है. संतुलित और व्यवस्थित जीवन जीते हुए शरीर पर समुचित ध्यान और परिश्रम आवश्यक है. आसन और प्राणायाम इसके लिए हितकारी होते हैं. चूँकि मन सभी क्रियाओं को परिचालित करता है इसलिए इसे बैटरी भी कह सकते हैं. जब वह चार्ज रहती है तो थकान की जगह स्फूर्ति रहती है परंतु तनाव, चिंता, झुँझलाहट बनी रहे तो इसकी शक्ति घट जाती है. इन सबके समाधान के लिए यौगिक जीवन-शैली अर्थात् आहार और निद्रा पर विशेष ध्यान दिया गया है. सूर्योदय के बाद और सूर्यास्त के पूर्व सात्विक भोजन किया जाना लाभ कर होता है क्योंकि देर से भोजन करने पर पाचन क्रिया मन्द रहती और नींद नहीं आती है. इसके लिए उत्तेजना और तनाव दो प्रमुख कारण पाए गए हैं. ऐसे में जीवन को द्रष्टा के भाव से देखना और समझना ज़रूरी है. इसके लिए भगवद्गीता एक मैनुअल सरीखी है. उसके अनुसार जो व्यक्ति कर्म-फल का आश्रय लिए बिना कर्म में जुटता है वही योगी होता है. भोगी व्यक्ति सिर्फ़ अपने लिए आसक्त भाव से और योगी दूसरे के लिए अनासक्त भाव से क़र्म करता है. वह त्याग पूर्वक भोग करता है. इंद्रिय-भोगों और कर्मों में आसक्ति से मुक्त हो कर व्यक्ति योगारूढ होता है.

इस तरह स्वयं अपने द्वारा अपना उद्धार करना चाहिए. मनुष्य स्वयं अपना मित्र और शत्रु दोनों हो सकता है. जिसने खुद को जीत लिया वह अपना बंधु होता है अन्यथा, अपना ही अनात्मा हो, कर शत्रु की तरह बर्ताव करता है. अपने पर विजय से निर्विकार मनुष्य अनुकूल और प्रतिकूल सभी तरह की परिस्थितियों में रह सकता है क्योंकि उसे सुख दुःख से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. सम-बुद्धि होने के कारण विभिन्न परिस्थितियों में वह मनुष्य एक सा बना रहता है. वह न अधिक न कम खाता या सोता है. यथायोग्य आहार-विहार करने वाले, कर्म में यथायोग्य चेष्टा करने वाले, यथायोग्य सोने और जागने वाले के दुःख को योग दूर करता है.

जब आदमी का चित्त उसके वश में हो और सभी वस्तुओं से नि:स्पृह रहे तो उसे युक्त कहा जाता है . इस यात्रा में चित्त की चंचलता ही सबसे बड़ी बाधा है. इसीलिए चित्त को ‘दुर्निग्रह’ कहा गया है परंतु इसे अभ्यास और वैराग्य से साधा जा सकता है. योग करने से निरुद्ध चित्त उपराम हो जाता है यानी स्वयं अपने को देखता हुआ अपने आप से संतुष्ट हो जाता है. सर्वत्र परमात्मा की ही छवि के अनुभव से योगी अपने स्वरूप को सभी प्राणियों में और सभी प्राणियों को अपने स्वरूप में देखता है.

गीता की मानें तो योगी तपस्वियों, ज्ञानियों और कर्मियों आदि में सबसे श्रेष्ठ होता है. आज बड़ी संख्या में लोग अवसाद (डिप्रेशन) और कई तरह की दूसरी अस्वस्थ मनोदशाओं के शिकार हो कर मनोरोगियों की श्रेणी में पहुँचने लगे हैं. मानसिक विकारों की सूची दिन-प्रतिदिन लम्बी होती जा रही है और अमीर हो या गरीब सभी उसमें शामिल हो रहे हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन की रपट के अनुसार आज विकसित और विकासशील दोनों तरह के देश इस तरह की भयावह हो रही परिस्थिति की ओर आगे बढ़ रहे हैं. इस पश्चिमी पूंजीवाद के विपरीत समग्रता में जीवन जीने की यौगिक दृष्टि अहंकार और मोह से परे वास्तविक स्व या आत्म की ओर  चलने को प्रेरित करती है. इसमें सीमित भौतिक स्व के अहंकार की सीमाओं से छुटकारा पाने की व्यवस्था है. जैसा कि पंचकोश की प्रसिद्ध अवधारणा में कहा गया है मनुष्य की रचना कई स्तरों वाली है. अन्नमय कोश सबसे बाहर की सतह है जिसके बाद प्राणमय कोश आता है, विज्ञानमय कोश आता है, तब मनोमय कोश और सबके बाद है आनंदमय कोश. इन सबसे मिल कर  सम्पूर्ण अस्तित्व की रचना होती है.  इसमें भौतिक स्तर के जीवन का नकार या तिरस्कार नहीं है पर वही सर्वस्व भी नहीं है. हमारे बहुत सारे कष्ट इसीलिए उपजते हैं कि हम अपने को इसी शरीर के स्तर तक सीमित मान लेते हैं. हालांकि तनिक विचार करने से ही यह बात साफ़ हो जाती है कि शरीर हमारा है पर हम शरीर मात्र नहीं हैं. मृत्यु के बाद शरीर या देह तो रहता है पर देही नहीं रहता. इस तरह शरीर की सीमा को समझने से संजीदगी भी आती है और स्वयं को चैतन्य से जोड़ कर पूर्णता, व्यापकता की सांभावना भी बनती है.

आसन और प्राणायाम शरीर को साधते हैं जिसमें स्नायु मंडल भी शामिल है. ध्यान  के बाद अंतर्यात्रा शुरू होती है. इस तरह योगशास्त्र जीवन जीने की मैनुअल सरीक्षा है. हमारी स्कूली शिक्षा में बौद्धिक कार्य पर बहुत अधिक बल दिया जाता है. मानव मूल्यों और चरित्र निर्माण का जिक्र भी आता है पर अपने को समझने, अपने शरीर और मन को जानने समझने के लिए बहुत कम अवसर रहता है. आज के तनाव और चिंता के दौर में जीवन कौशल का महत्व बहुत बढ गया है.

महर्षि पतंजलि कहते हैं कि बाह्य विषयों के साथ अतिआसक्ति से मानसिक वृत्तियों ( प्रमाण या ज्ञान प्राप्ति, विपर्यय या मिथ्या ज्ञान , विकल्प या कल्पित ज्ञान, निद्रा, स्मृति) यदि यम(सत्य, अहिंसा,अपरिग्रह, अस्तेय , ब्रह्मचर्य), नियम(शौचअर्थात  स्वच्छता , संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान), आसन ,  प्राणायाम (श्वास प्रश्वास का नियमन), प्रत्याहार ( इंद्रियों का विषयों से खीच कर वापिस चित्त में लगाना) , धारणा (चित्त को किसी वस्तु पर ठहराना) तथा ध्यान (ठहरे हुए चित्त को स्थिर रखना), से होते हुए समाधि की यात्रा की जाय तो अनावश्यक मोह से छ्टकारा मिल सकेगा और अपने वास्तविक स्वरूप का अनुभव हो सकेगा . तब जीवन जीते हुए ही अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश जैसे क्लेशों से मुक्त हुआ जा सकेगा. हाँ, इसके लिए अभ्यास और वैराग्य दोनों की जरूरत पड़ती है.

आज योग के प्रति आम जनों में भी उत्सुकता बढी है पर या तो उसे सिर्फ आसनों में समेट लिया जाता है या फिर साधारण व्यक्ति की पहुंच से दूर कुछ अलौकिक बना दिया जाता है. जैसा कि योग के विभिन्न चरणों से स्पष्ट होता है योग जीवन के सभी पक्षों से जुड़ा हुआ है. उसके यम पूरी तरह से सामाजिक जीवन को सम्बोधित करते हैं तो नियम निजी जीवन को. आसन और प्राणायाम शरीर को साधते हैं जिसमें स्नायु मंडल भी शामिल है. ध्यान  के बाद अंतर्यात्रा शुरू होती है. इस तरह योगशास्त्र जीवन जीने की मैनुअल सरीक्षा है. हमारी स्कूली शिक्षा में बौद्धिक कार्य पर बहुत अधिक बल दिया जाता है. मानव मूल्यों और चरित्र निर्माण का जिक्र भी आता है पर अपने को समझने, अपने शरीर और मन को जानने समझने के लिए बहुत कम अवसर रहता है. आज के तनाव और चिंता के दौर में जीवन कौशल का महत्व बहुत बढ गया है. योग के विभिन्न पक्षों की शिक्षा और अभ्यास न केवल शरीर और मन को स्वस्थ और संतुलित रखेगा बल्कि अध्ययन और सर्वांगीण विकास का मार्ग भी प्रशस्त करेगा”.

इसलिए योग का क्रमबद्ध पाठ्यक्रम स्कूली शिक्षा के सभी स्तरों पर अनिवार्य रूप से लागू करने की आवश्यकता है. देश विदेश में योग का आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन तेज़ी से बढ़ रहा है और वह किसी धर्मविशेष से नहीं सारी मानवजाति  की अनमोल विरासत है, जिसका शिक्षा में उपयोग भावी पीढी के निर्माण में लाभकर होगा. शिक्षा की पूर्णता और समग्रता के लिए योग का प्राविधान एक अनिवार्य कदम है.

(लेखक शिक्षाविद् एवं पूर्व कुलपतिमहात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा हैं.)

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