मानसिक स्वास्थ्य के लिए चाहिए शान्ति और सौहार्द

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विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस (10 अक्टूबर) पर विशेष

  • प्रो. गिरीश्वर मिश्र

बचपन से यह कहावत सुनते आ because रहे हैं “जब मन चंगा तो कठौती में गंगा” यानी यदि मन प्रसन्न हो तो अपने पास जो भी थोड़ा होता है वही पर्याप्त होता है.  पर आज की परिस्थितियों मन चंगा नहीं हो पा रहा है और स्वास्थ्य और खुशहाली की जगह रोग व्याधि के चलते लोगों का जीवन अस्त-व्यस्त होता जा रहा है. लोगों का मन खिन्न होता जा  रहा है और वे निजी जीवन में भी असंतुष्ट रह रहे हैं और संस्था तथा समुदाय के लिए भी उनका योगदान कमतर होता जा रहा है. समाज के स्तर  पर जीवन की गुणवत्ता घट  रही है और हिंसा, भ्रष्टाचार, दुष्कर्म, अपराध और सामाजिक भेद-भाव जैसी घटनाएं बढ़ रही हैं. चिंता की बात यह है की उन घटनाओं के प्रति संवेदनशीलता भी घट रही है और उनकी व्याख्या अपने लाभ के अनुसार की जा रही है.

बचपन

हम एक because  नए ढंग का भौतिक आत्मबोध विकसित कर रहे हैं  जो सब कुछ तात्कालिक प्रत्यक्ष तक सीमित रखता है. कभी हम सभी पूरी सृष्टि को ईश्वर के करीब पाते थे और सबके बीच निकटता देखते थे. सभी को ईश्वराधीन या किसी परम सत्ता से अनुप्राणित पाते थे. भौतिक उपभोग का प्रमाण ही अस्तित्व की सीमा नहीं बताता था.

बचपन

व्यक्ति और समाज दोनों के because कल्याण की मात्रा में गिरावट स्वास्थ्य की दृष्टि  से हानिकर है और इसका नकारात्मक असर उत्पादकता पर पड़ता है. इस तरह के बदलाव के कई कारण हैं. इसका एक बड़ा कारण हमारी विश्व दृष्टि भी है. हम एक  नए ढंग का भौतिक आत्मबोध विकसित कर रहे हैं जो सब कुछ तात्कालिक प्रत्यक्ष तक सीमित रखता है. कभी हम सभी पूरी सृष्टि को ईश्वर के करीब पाते थे और सबके बीच निकटता देखते थे. सभी को ईश्वराधीन या किसी परम सत्ता से अनुप्राणित पाते थे. भौतिक उपभोग का प्रमाण ही अस्तित्व की सीमा नहीं बताता था. सबकी समानता का अभौतिक अर्थात आध्यात्मिक आधार भी था. आदमी को उस ‘पूर्ण’ की चिंता थी जिसमें से पूर्ण को निकाल लेने पर भी पूर्ण बचा रहता था.

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सभी सांकेतिक फोटो गुगल से साभार

आदमी सबके जीवन में because अपना जीवन और अपने जीवन में सबका जीवन देखता था क्योंकि ‘आत्मा’ निजी नहीं सबका था और सबसे बड़ा यानी ‘ब्रह्म’ होने के नाते उसके आगे सारे पैमाने छोटे पड़ जाते थे. आदमी जल, थल, वनस्पति, वायु, अग्नि, और अंतरिक्ष सबकी शान्ति की कामना करता था.  मनुष्य भी एक जीव था. इस नजरिए में सारा जीवन केंद्र में था न कि सिर्फ मनुष्य. मनुष्य की मनुष्यता उसके अपने आत्मबोध के विस्तार में थी  और  वह सबकी चिंता करता था. उसका धर्म अभ्युदय (अर्थात भौतिक समृद्धि) और नि:श्रेयस (आध्यात्मिक श्रेष्ठता या मोक्ष) दोनों को पाने की चेष्टा करता था. आदमी सिर्फ धन दौलत ही नहीं  बल्कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों लक्ष्यों की उपलब्धि के लिए सचेष्ट रहता  था.

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आधुनिक चेतना ने धर्ममुक्त समाज की कल्पना की और मनुष्य की तर्क बुद्धि की सीमा जानते हुए भी उसे  विराट चैतन्य के भाव से मुक्त कर दिया  और भौतिक सुख के because साधन जुटाने में सबको लगा दिया जिसके नशे में सभी दौड़ रहे हैं पर दौड़ पूरी नहीं हो रही है और अतृप्ति की वेदना से सभी आहत हैं. इस मिथ्या मरीचिका के असह्य होने पर लोग आत्म ह्त्या तक करने को उद्यत होने लगे हैं.

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जीवन का गणित अब विज्ञान के ईश्वरविहीन होते दौर में लड़खड़ाने लगा है . इसके परिणाम सामने हैं. अपने और पराए , मैं और तुम तथा  हम और वे के बीच की खाई बढ़ती जा रही है.so अपने ‘मैं’ को ले कर हम सब सचेष्ट हैं तथा  उसकी सुरक्षा और सेवा-टहल के लिए समर्पित हैं. मैं से अलग जो अन्य या दूसरा है वह भिन्न है और मैं न होना उसकी उपेक्षा, निंदा और हिंसा के लिए पर्याप्त आधार हो जाता है. दूसरा हमारे लिए (अपने जैसे मनुष्य के स्तर से खिसक कर) वस्तु हो जाता है.

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हम  उपयोगिता के हिसाब से उसकी because कीमत लगाते हैं और उससे होने वाले नफे नुकसान के आधार पर व्यवहार करते हैं. अपने आत्म को संरक्षित और समृद्ध  करने के लिए दूसरे के  शोषण या हानि को स्वाभाविक ठहराते जा रहे हैं या उसके प्रति  तटस्थ होते जा रहे हैं. सभी अपने अपने मैं (अर्थात स्वार्थ) के लिए कटिबद्ध हो रहे हैं. एकांत स्वार्थ भीषण होता है और अपना ही नाश करता है.

अभाव की सतत अनुभूति के बीच मन और शरीर दोनों खिन्न रहते हैं. ऐसे में शान्ति, आनंद, सुख, मस्ती,  प्रसन्नता, खुशी, उल्लास और आह्लाद जैसे शब्द अब so लोगों की आम बातचीत से बाहर हो रहे हैं. इस तरह के अनुभव जीवन से जहां दूर होते जा रहे हैं वहीं उनकी जगह चिंता, उलझन,  दुःख, तनाव, परेशानी, कुंठा, संत्रास, अवसाद, घुटन, कलह और द्वंद्व जैसी अनुभूतियां लेती जा रही हैं और जीवन भार सरीखा  होता जा रहा है.

बचपन

आज के दौर हर कोई अधिकाधिक पाने की दौड़ में इस कदर व्यस्त हो चला है कि कुछ भी मिल जाय मन बेचैन ही रहता है. अभाव की सतत अनुभूति के बीच मन और शरीर दोनों खिन्न रहते हैं. ऐसे में शान्ति, आनंद, सुख, मस्ती,  प्रसन्नता, खुशी, उल्लास और आह्लाद जैसे शब्द अब लोगों की आम बातचीत से बाहर हो रहे हैं. because इस तरह के अनुभव जीवन से जहां दूर होते जा रहे हैं वहीं उनकी जगह चिंता, उलझन,  दुःख, तनाव, परेशानी, कुंठा, संत्रास, अवसाद, घुटन, कलह और द्वंद्व जैसी अनुभूतियां लेती जा रही हैं और जीवन भार सरीखा  होता जा रहा है. आज मनो रोग आज तेजी से बढ़ रहे हैं और गरीब तथा धनी दोनों ही प्रभावित हो रहे हैं.

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आत्म भाव को स्थूल और मूर्त बनाने के क्रम में शरीर केन्द्रिकता हमारी मनस्थिति का एक मुख्य भाग होती जा रही है. आज शरीर को उपभोग की वस्तु बना कर उसे हमारी चेतना but का एक बेहद ख़ास हिस्सा बना दिया गया है  शरीर का रख-रखाव और प्रस्तुति आज एक जरूरी और पेचीदा काम हो गया है. सौन्दर्य प्रसाधन का बाजार जितनी गहनता से विविधता पूर्ण हुआ है उसकी किसी और क्षेत्र से तुलना नहीं की जा सकती. नैसर्गिक सौन्दर्य को परे हटा कर मीडिया और विज्ञापन की दुनिया घेर घेर कर कहती जा रही है हमारे पास एक सभ्य , योग्य और सम्मान जनक अस्तित्व  के लिए क्या क्या होना चाहिए.

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तीव्र सामाजिक बदलाव के because दौर में आज मनो रोगियों की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ रही है परन्तु इनके लिए आवश्यक परामर्श और उपचार के लिए उपलब्ध सुविधाएं बहुत ही सीमित है जिन पर सरकार को वरीयातापूर्वक ध्यान देने की जरूरत है. कोविड महामारी के दौरान आर्थिक संकट और विस्थापन जैसी मुश्किलों ने मानसिक रोग की की चुनैतियों को और बढाया है.

नख-शिख तक पूरे शरीर को  so संवारने -सजाने  के उपकरण, उपचार और वस्त्राभूषण की नित्य नवीन शैलियों की जानकारी का प्रचार-प्रसार इस तेजी से हो रहा है कि किसी न किसी कोण से हर कोई अपने को कभी अधूरा ही महसूस करता है. उसमें नवीनता को बनाए रखना एक बेहद जटिल चुनौती होती जा रही है. because इससे जुड़ा बाजार नित्य नई वस्तुओं को प्रतुत कर आबाल वृद्ध सब में अभाव ग्रस्तता और कमी की अनुभूति को तीखा करने में जुटा रहता है. हमारी अतिरिक्त या अनावश्यक आवश्यकताओं की सूची दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है. उनकी पूर्ति में श्रम, धन और समय का बड़ा अनुपात जाया होता है जिसके कारण जीवन के और कामों की उपेक्षा होती है या फिर उनमें व्यवधान आता है.

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इन उपादानों के प्रयोग से so उपजने वाली स्वास्थ्य की समस्याएँ दूसरे तरह के व्यतिक्रम पैदा करती रहती हैं. तीव्र सामाजिक बदलाव के दौर में आज मनो रोगियों की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ रही है परन्तु इनके लिए आवश्यक परामर्श और उपचार के लिए उपलब्धbecause सुविधाएं बहुत ही सीमित है जिन पर सरकार को वरीयातापूर्वक ध्यान देने की जरूरत है. कोविड महामारी के दौरान आर्थिक संकट और विस्थापन जैसी मुश्किलों ने मानसिक रोग की की चुनैतियों को और बढाया है.

बचपन

मन की चंचलता से विचलित होना तो स्वाभाविक है परन्तु उसे साध कर के अपने नियंत्रण में लाना एक जरूरी चुनौती है जिसे सचेत हो कर स्वीकार करना पडेगा. because इस दृष्टि से योग और ध्यान को जीवन में स्थान देना होगा. जीवन स्वयं एक योग है उसे संयोग के हवाले करना बुद्धिमानी नहीं होगी. निजी जीवन में प्रसन्नता के लिए समृद्धि और संतोष का समीकरण जरूरी है.

मानसिक स्वास्थ्य की समस्या की जड़ में सामाजिक तुलना भी एक प्रमुख कारक बन रहा है. दूसरों को देख कर हम अपने सुख दुःख और लाभ हानि को समझने की कोशिश करते हैं. because इसका दुष्परिणाम  होता है कि हम अपने में न केवल लगातार कमी और हीनता की अनुभूति करते हैं  बल्कि दूसरों के प्रति दुराव और वैमनस्य का भाव भी विकसित करने लगते हैं. हम भूल जाते हैं कि एक व्यक्ति के रूप में शरीर का रूप रंग ही नहीं सभी विशेषताओं में हर व्यक्ति सबसे अलग और ख़ास होता है. दूसरे की तरह होना और प्रतिस्पर्धा करने से अधिक उपयोगी है कि हम अपनी राह खुद बनाएं और अपनी अलग पहचान बनाएं. स्वास्थ्य के लिए मन, शरीर और आत्मा सबकी खुराक मिलनी चाहिए.

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शरीर का उपयोग न होना but और श्रम हीनता आज इज्जत का पर्याय सा बन गया है जिसके कारण मोटापा, मधुमेह  और ह्रदय रोग जैसे रोग पनपने लगे हैं. इन सबके पीछे हमारे द्वारा आवश्यकता और लोभ के बीच अंतर  न कर पाना एक बड़ा कारण है. संयम और  संतुष्टि का अभ्यास ही इसका एक मात्र समाधान है. तभी आत्म नियंत्रण हो सकेगा.

बचपन

मन की चंचलता से विचलित होना तो स्वाभाविक है परन्तु उसे साध कर के अपने नियंत्रण में लाना एक जरूरी चुनौती है जिसे सचेत हो कर स्वीकार करना पडेगा. so इस दृष्टि से योग और ध्यान को जीवन में स्थान देना होगा. जीवन स्वयं एक योग है उसे संयोग के हवाले करना बुद्धिमानी नहीं होगी. निजी जीवन में प्रसन्नता के लिए समृद्धि और संतोष का समीकरण जरूरी है. इसके लिए आधार भूमि है लोक में सौमनस्य और परस्पर निर्भरता. आज इनके सांस्कृतिक आधारों को घर बाहर हर जगह मजबूत करने की जरूरत है.

(लेखक शिक्षाविद् एवं पूर्व कुलपतिमहात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा हैं.)

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