पुस्तक समीक्षा
- गगनदीप सिंह
हिमाचल प्रदेश में लगभग 35 सालों से लगातार छप रही सरकारी हिंदी त्रैमासिक पत्रिका ‘विपाशा’ की साहित्यक हलकों में ठीक-ठाक शाख है. हिमाचल के साहित्यकारों को और देश की ‘मुख्यधारा’ के साहित्यकारों के बीच एक पुल का काम यह लंबे समय से निभाती आ रही है. हिमाचल के हिंदी साहित्य पर हिमाचल प्रदेश सरकार के भाषा, कला एवं संस्कृति विभाग की छाप पूरी तरह से देखी जा सकती है. एक तरह से कहा जा सकता है कि हिमचाल का साहित्य सरकारी छत्रछाय में पला बढ़ा है. इस विभाग द्वारा हर साल जिला स्तर से लेकर राज्य स्तर तक कई कार्यक्रम आयोजित और प्रायोजित किये जाते हैं. साहित्यकारों को मिलने वाली मानदेय की सुविधा इनकी बहुत मदद करती है.
पिछले 35 सालों में छपे विशेषांकों और खासकर कविता विशेषांकों से अगर तुलना की जाए तो इस बार का कविता विशेषांक केवल रस्मी तौर पर विशेषांक नहीं था बल्कि यह सचमुच में विशेषांक था. इस अंक में हिमाचल प्रदेश के 200 से अधिक कवियों में पृष्ठों की लिमिट के हिसाब से सही कविताओं और कवियों को चुनाव संपादकों के लिए बहुत मुश्किल भरा था, जो पत्रिका के संपादक ने माना भी. लेकिन इस अंक की जो सबसे शानदार और जबरदस्त बात है वह यह है कि यह महीमामंडन के रोग से मुक्त अंक है. अंक में कविताएं हैं, परिचर्चा है और लेख है. अंक में छपी परिचर्चा समकालीन हिमाचली कविता ही नहीं बल्कि हिमाचल में रचे जा रहे साहित्य के लिए भी नई संभावनाएं खोलती है. परिचर्चा में शामिल कवि अजेय, मोहन साहिल, अनुप सेठी, निरंजन देव और पद्म देव अमिताभ ने जिस आत्मालोचना का सहास किया है वह आमतौर पर महिमामंडित सहित्यकारों में देखने को नहीं मिलता. उन्होंने बहुत बेबाकी के साथ चर्चा कि है कि हिमाचली कविता पिछड़ी क्यों रह गयी, क्यों कविता में स्थानीयता का चश्मा नहीं लगा, क्यों इसकी भाषा में हिमाचलियत नहीं है, क्या हिमाचलियत भी कोई चीज है, क्यों उतराखंड और पंजाब का साहित्य इतना मजबूत है, हमने कविता लिखना कैसे सिखा, किसका प्रभाव है.
इन तमाम बातों पर जब कवि मैदान में उतरे तो उन्होंने कई अच्छे निष्कर्ष निकाले जो हिमाचल के साहित्य में आए गतिरोध को तोड़ने के लिए जरूरी हैं. कवि और आलोचक विजय विशाल के लेख सहित यह परिचर्चा इस बात की निशानदेही करने में सफल रही है कि हमारे यहां पर कविता की धार इस लिए तेज नहीं है, इस लिए मजबूत नहीं कि वह आंदोलनों से उपजी या आंदोलनों से जुड़ी कविता नहीं है या बहुत कम है. हमारे साहित्यकारों ने लिखना सरकारी वर्कशापों, पर्याटन के लिए आए लेखकों के प्रभावों या सानिध्य में सीखा है. कि हमारे पास 1947 से पहले लाहौर साहित्य का केंद्र था, उर्दू के लेखक हमारे यहां हुए, बंटवारे के बाद हम अलग हुए, हिंदी भाषा आई, कई दशक तो हमारे लोगों को हिंदी सिखने में ही लग गये. और जो हिंदी सीखी वह रामचंद्र शुक्ल वाली हिंदी थी, जो संस्कृतनिष्ठ होने के चलते इतनी निरस थी कि आम लोग पढ़े कैसे. सरकारी आयोजनों, वर्कशापों के अलावा कुछ प्रभाव प्रगतिशील लेखक संघ और जनवादी लेखक संघ का भी रहा जिसके चलते कविता के अंदर आम आदमी की समस्याएं भी आई.
विजय विशाल ने अपने लेख में हिमचाली हिंदी कविता का इतिहास से वर्तमान तक का सफर तय किया है. वह एक जौहरी की तरह कविता को देखते हैं. उन्होंने एक कार्यक्रम में कहा था कि कविता पढ़ने की चीज है और कहानी सुनाने की चीज और हमारे यहां कहानी पढ़ी जाती है और कविता सुनाई जाती है. उन्होंने कवियों को शमशेर बहादुर के जरिए एक सलाह दी है कि एक कवि या साहित्य कार के लिए देश, प्रेदश और दूसरी भाषाओं में लिखे जा रहे साहित्य से अवगत होना चाहिए. और यह सलाह बेहद जरूरी है, क्योंकि महामंडित साहित्यक आयोजनों में कोई नया रचनाकार जब कुछ सीखने आता है तो उसको कविता, कहानी की बजाए प्रशंसाओं की झड़ी झेलनी पड़ती है. पद्म देव गुप्त अमिताभ ने भी बहुत दुख के साथ कहा है कि यहां पर आलोचना का स्पेश नहीं है. अच्छे आलोचकों की कमी है.
एक सवाल जिस को कम तरजीह दी गयी, जिस पर नजर नहीं गयी वह यह है कि हिमाचल के साहित्य के पाठक कौन हैं, कितना पढ़ रहे हैं, साहित्यकार और पाठकों के बीच का रिश्ता इतना कमजोर क्यों है. क्यों किसी को ऐसा लगता है कि सब राष्ट्रीय हो जाना चहाते हैं, स्थानीयता छोड़ देना चाहते हैं. इसका जवाब एक जगह विजय विशाल जी देते भी हैं कि हमारे साहित्यकार उस कास्ट और क्लास से नहीं है जिसने सब कुछ अपने तन पर सहा हो. ज्यादातर साहित्यकार सरकारी कर्मचारी रहे हैं. जिसने दुख सहने की बजाए अनुभव किया है और सुना है. अंक पर बहुत मेहनत हुई लगती है. ऐसे अंकों की और जरूरत है. इस अंक को हिमाचल के साहित्य पर नजर रखने वालों को, नए लिख रहे लेखकों को अवश्य पढ़ना चाहिए.
विपाशा, अंक 214-215 अप्रैल-अगस्त 2020 विशेषांक
प्रकाशक – भाषा, कला सांस्कृतिक विभाग हिमाचल प्रदेश
अतिथि – संपादक अजेय
उप संपादक – अजय शर्मा
प्रधान संपादक – पंकज ललित
मूल्य 30 रुपये, पृष्ठ 200