गणतंत्र दिवस पर विशेष
- डॉ. मोहन चंद तिवारी
आज 26 जनवरी का दिन पूरे देश में गणतंत्र दिवस के रूप में बड़े धूमधाम से मनाया जा रहा है. 26 जनवरी सन् 1950 को देश का संविधान लागू किया गया
और हमारे देश भारत को गणतंत्र देश के रूप में घोषित किया गया था.उसी उपलक्ष में भारत देश के प्रत्येक नागरिक के द्वारा गणतंत्र दिवस को बड़े उत्साह और उमंग के साथ मनाया जाता है.माथा
भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास में यह दिन इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि 31 दिसम्बर,1929 को पं.जवाहर
लाल नेहरू की अध्यक्षता में लाहौर में हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासकों के सामने यह मांग रखी गई थी, कि यदि अंग्रेज सरकार 26 जनवरी,1930 तक भारत को ‘डोमेनियम स्टेटस’ नहीं प्रदान करेगी तो भारत अपने को पूर्ण स्वतंत्र घोषित कर देगा. किन्तु अंग्रेज सरकार पर इस घोषणा का कोई असर नहीं हुआ तो कांग्रेस ने 26 जनवरी,1930 को पूर्ण स्वराज आन्दोलन को प्रारम्भ कर दिया. इसी दिन पहली बार कांग्रेस ने ‘वन्दे मातरम्’ के नारों के साथ तिरंगे झण्डे को भी फहराया था.तब से लेकर भारतवासियों के लिए 26 जनवरी का दिन महज एक गणतंत्र दिवस ही नहीं बल्कि पूर्ण स्वराज प्राप्ति का एक राष्ट्रीय मंगलमय पर्व भी है तथा ‘वंदे मातरम्’ और तिरंगा झंडा स्वराज प्राप्ति के दो गौरवशाली प्रेरणा गीत व राष्ट्रीय प्रतीक हैं.माथा
हमारे देश के महान स्वतंत्रता सेनानियों के द्वारा जो संघर्ष किया गया और अपने प्राणों की आहुति दी गयी थी, उसके कारण ही भारत को गणतांत्रिक स्वराज मिल पाया.
माथा
‘गणतंत्र’ का अर्थ है जनता के द्वारा जनता के लिए शासन. भारत में गणतंत्रीय प्रणाली से राजकाज चलाने की एक दीर्घकालीन परम्परा रही है. पिछले पांच हजार वर्षों से स्थानीय ग्राम
सभाओं, नगर सभाओं एवं पंचायतीराज प्रणाली द्वारा आम सहमति बनाकर राज-काज चलाया जाता रहा है.वैदिक काल में ‘सभा’ और ‘समिति’ ऐसी ही लोकतांत्रिक राज्य संस्थाएं थीं जिनका निर्णय मानना राजा के लिए अनिवार्य होता था.इन संस्थाओं की इतनी शक्ति थी कि वे राजा को भी अपने सिंहासन से पदच्युत कर सकती थीं.उधर बौद्ध परम्परा तथा जैन परम्परा ने गणतांत्रिक शासनप्रणाली का स्वर्णिम इतिहास कायम किया है. बौद्धग्रन्थ ‘महापरिनिर्वाणसुत्त’ में प्राचीन भारतीय गणतांत्रिक प्रणाली का महत्त्वपूर्ण निदर्शन मिलता है जिसके अनुसार ‘लिच्छवी’ गणराज्य में निरन्तर रूप से जनता के मध्य आम सभाएं होती थीं.माथा
“सच्ची लोकशाही केन्द्र में
बैठे हुए 20 आदमी नहीं चला सकते.वो तो नीचे हर गांव के लोगों द्वारा चलाई जानी चाहिए ताकि सत्ता के केन्द्र बिन्दु जो इस समय दिल्ली, कलकत्ता, बम्बई जैसे बड़े शहरों में हैं,मैं उसे भारत के सात लाख गावों में बांटना चाहूँगा.”
माथा
भारतीय इतिहास में स्थानीय स्तर पर लोकतंत्र को मजबूत करने वाली ऐतिहासिक मिसाल सातवीं शताब्दी के कांचीपुरम जिले में स्थित ‘उत्तीरामेरु’ नामक मन्दिर की दीवार पर टंकित
भित्ती अभिलेख में पूर्ण स्वराज को अभिव्यक्ति प्रदान करने वाली ग्रामसभा तथा स्थानीय प्रशासन की कार्य प्रणाली का संविधान खुदा हुआ है,जिसके अनुसार चुनाव लड़ने की आवश्यक योग्यता,चुनाव की विधि, चयनित उम्मीदवारों का कार्यकाल, उम्मीदवारों के अयोग्य ठहराए जाने की परिस्थितियां तथा आम आदमी के अधिकारों की भी चर्चा है जिसके तहत लोग अपने जनप्रतिनिधि को वापस भी बुला सकते थे यदि वह अपनी जिम्मेदारियों का ठीक से निर्वहन नहीं करता था.माथा
गांधी जी ने सन् 1909 में अपनी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ में भारत के वास्तविक लोकतंत्र का स्वरूप ‘ग्राम स्वराज’ के रूप में प्रस्तुत करते हुए कहा कि “सच्ची लोकशाही केन्द्र में
बैठे हुए 20 आदमी नहीं चला सकते.वो तो नीचे हर गांव के लोगों द्वारा चलाई जानी चाहिए ताकि सत्ता के केन्द्र बिन्दु जो इस समय दिल्ली, कलकत्ता, बम्बई जैसे बड़े शहरों में हैं,मैं उसे भारत के सात लाख गावों में बांटना चाहूँगा.” गांधी जी के ‘ग्राम स्वराज’ का सपना था कि सत्ता पंचायती राज के माध्यम से आम जनता के हाथों में होनी चाहिए न कि चुने हुए कुछ चंद लोगों के हाथ में.10 फरवरी,1927 को ‘यंग इंडिया’ में गांधी जी ने लिखा ”सच्चा स्वराज मुट्ठी भर लोगों के द्वारा सत्ता प्राप्ति से नहीं आएगा बल्कि सत्ता का दुरुपयोग किए जाने की सूरत में उसका प्रतिरोध करने की जनता की सामर्थ्य विकसित होने से आएगा.”माथा
चिन्ता की बात है कि आजादी
मिलने के 74 वर्षों के बाद भी केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकारों की ओर से गांधी जी के पूर्ण स्वराज के स्वप्न को पूरा करने की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की गई.सन् 1993 में राजीव गांधी सरकार ने संविधान में 73वां एवं 74वां संशोधन पास करवा कर आम आदमी को यह अहसास अवश्य कराया था कि ग्राम पंचायतों एवं नगर सभाओं को शासन प्रणाली की मुख्य धारा में जोड़कर पूर्ण स्वराज प्राप्त करने के लिए ठोस प्रयास किए जाएंगे किन्तु राजनैतिक पार्टियों की आपसी दलबन्दी एवं प्रशासनिक निकायों में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण आम आदमी की जन समस्याओं और ग्राम-सभाओं को लोकतंत्र की मुख्य धारा में कमजोर,असहाय तथा सत्ता में भागीदारी की दृष्टि से उपेक्षित ही रखा गया.वातानुकूलित भवनों में बैठकर
देश के योजनाकर धनबलियों,बाहुबलियों और कारपोरेट घरानों के दबाव में आकर देश की आर्थिक नीतियों का खाका तैयार करने लगे एवं मजदूर,किसान,जवान,छोटे व्यवसायी स्वयं को ठगा सा महसूस करते रहे.माथा
गांधी जी ब्रिटिश साम्राज्य
द्वारा पोषित समाज को बांटने वाली इन विकृत राजनैतिक अवधारणाओं को स्वतंत्रता तथा स्वराज का घोर विरोधी मानते थे तथा ‘भारतराष्ट्र’ के स्वदेशी मूल्यों के आधार पर जन सामान्य के शासन से जुड़ी ग्राम पंचायत जैसी लोकतांत्रिक संस्थाओं को ताकतवर बनाना चाहते थे.
माथा
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे देश की अधिकांश राजनैतिक पार्टियां चाहे वे राष्ट्रीय स्तर की हों या क्षेत्रीय स्तर की आज भी ब्रिटिश कालीन छद्म धर्म निरपेक्षता,सम्प्रदायवाद,जातिवाद तथा
अल्पसंख्यकवाद की विभाजनकारी राजनीति से ग्रस्त होकर वोटतंत्र की फसल काटने में लगी हुई हैं जिसके कारण गांधी जी के पूर्ण स्वराज का सपना पूरा नहीं हो सका. गांधी जी ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा पोषित समाज को बांटने वाली इन विकृत राजनैतिक अवधारणाओं को स्वतंत्रता तथा स्वराज का घोर विरोधी मानते थे तथा ‘भारतराष्ट्र’ के स्वदेशी मूल्यों के आधार पर जन सामान्य के शासन से जुड़ी ग्राम पंचायत जैसी लोकतांत्रिक संस्थाओं को ताकतवर बनाना चाहते थे.माथा
विडम्बना यह भी है कि हमारे देश की अधिकांश राजनैतिक पार्टियां चाहे वे राष्ट्रीय स्तर की हों या क्षेत्रीय, ब्रिटिश कालीन छद्म धर्म निरपेक्षता, सम्प्रदायवाद, जातिवाद तथा
अल्पसंख्यकवाद की विभाजनकारी राजनैतिक मूल्यों से ग्रस्त होकर वोटतंत्र की फसल काटने में लगी हुई हैं जिसके कारण गांधी जी के पूर्ण स्वराज का सपना पूरा नहीं हो सका है. महात्मा गांधी ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा पोषित इन राजनैतिक अवधारणाओं को स्वतंत्रता तथा स्वराज का घोर विरोधी मानते थे तथा भारतराष्ट्र के स्वदेशी मूल्यों के आधार पर लोकतांत्रिक संस्थाओं को नई दिशा देना चाहते थे.माथा
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 1950 में प्रो.इन्द्र ने संस्कृत भाषा में ‘गांधी-गीता’ (अहिंसायोग) के नाम से देश के नेताओं के मार्गदर्शन हेतु आधुनिक गीता की रचना की है. अठारह
अध्यायों में लिखी इस संस्कृत रचना का इतिवृत्त सर्वथा आधुनिक है और गणतांत्रिक मूल्यों से प्रेरित है. इस आधुनिक गीता में सेनानायक महात्मा गांधी अर्जुन की भांति बाबू राजेन्द्र प्रसाद को प्रजातंत्र सम्बन्धी शंकाओं का निराकरण करते हुए समझाते हैं कि ‘प्रजातंत्र में प्रजा का,प्रजा के द्वारा,प्रजा के लिए शासन व्यवस्था होती है और उस प्रजातंत्र का मुखिया भी वस्तुत: प्रजा का मुख्य सेवक ही कहलाता है’-माथा
”प्रजाया: प्रजया तस्मिन्, प्रजायै शासनं भवेत्.
अशेषजनकल्याणं, तदुद्देश:शुभो भवेत्..
तद्राष्ट्रस्य महाध्यक्षो, विज्ञातो राष्ट्रनायक:.
नृपतिर्वा प्रजाया: स्यात्,यथार्थो मुख्यसेवक:..”
-गांधी-गीता,18.24-25
माथा
चिंता की बात है कि लम्बे
संघर्ष और हजारों स्वतंत्रता सेनानियों के आत्म बलिदान के फलस्वरूप प्राप्त आजादी आज चन्द हाथों तक सिमट कर रह गई है. भारतीय संविधान में कल्याणकारी राज्य की जो रूपरेखा डॉ.अम्बेडकर ने निर्धारित की थी, शासन तंत्र उसे पूरा करने में विफल होता जा रहा है. ‘गांधी-गीता’ के अनुसार रामराज्य में एक तरफ अकूत सम्पत्ति नहीं होती और दूसरी तरफ अकिंचनता का कारुणिक दृश्य नहीं दिखाई देता जैसा कि आज भारत में दिखाई दे रहा है. अमीर पहले से ज्यादा अमीर हो रहे हैं तथा गरीबों,मजदूरों और किसानों की दशा बदतर होती जा रही है.माथा
नेता जी की गणतांत्रिक
सोच बहुत महान् थी. वे गांधी जी से वैचारिक मतभेद रखते हुए भी मानव मात्र के लिए कल्याणकारी उनके गणतांत्रिक मूल्यों का आदर करते थे. क्योंकि नेता जी ने गांधी जी को एक राजनैतिक नेता के रूप में देखा ही नहीं, बल्कि एक मनुष्य जाति के मुक्तिदाता के रूप में देखा.
माथा
पिछले दस-बारह वर्षों से
विभिन्न राजनैतिक दलों की सरकारों की कारपोरेट धर्मी आर्थिक नीतियों से जिस प्रकार देश में बेरोजगारी,महंगाई और भ्रष्टाचार के आंकडों में निरन्तर रूप से वृद्धि हुई है, उससे संविधान सम्मत कल्याणकारी राज्य की अवधारणा भी धूमिल हुई है. बिजली,पानी, खाद्यान्न से लेकर स्वास्थ्य, शिक्षा, महिला सुरक्षा जैसी आम आदमी की समस्याओं के प्रति जन आक्रोश का स्वर आज तीखा होता जा रहा है. भारत जैसे अत्यन्त प्राचीन और समृद्ध गणतांत्रिक देश के लिए यह चिन्ता की बात है.माथा
अभी तीन दिन पहले ही देश ने भारत के क्रांतिकारी वीर नेता सुभाषचन्द्र बोस की 125वीं जयंती पूरे देश में मनाई गई. किन्तु नेताजी सुभाष पहले क्रांतिकारी नेता थे, जिन्होंने महात्मा
गांधी जी को ‘राष्ट्रपिता’ का सम्मान दिया. नेता जी की गणतांत्रिक सोच बहुत महान् थी. वे गांधी जी से वैचारिक मतभेद रखते हुए भी मानव मात्र के लिए कल्याणकारी उनके गणतांत्रिक मूल्यों का आदर करते थे.क्योंकि नेता जी ने गांधी जी को एक राजनैतिक नेता के रूप में देखा ही नहीं, बल्कि एक मनुष्य जाति के मुक्तिदाता के रूप में देखा. सन् 1938 में नेताजी ने कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष के रूप में हरिपुरा (गुजरात) में अपना ऐतिहासिक भाषण देते हुए कहा-माथा
“सारे देश को एकता के सूत्र में
बांधने के लिए हमें उनकी (गांधी जी की) परम आवश्यकता है. हमें उनकी इसलिए जरूरत है कि हमारा राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम कटुता और द्वेष से बचा रहे. भारतीय स्वतंत्रता के लिए हमें उनकी अत्यंत आवश्यकता है.और इन सबसे बड़ी बात यह है कि मानव जाति के कल्याण के लिए हमें उनकी नितांत आवश्यकता है. हमारा संग्राम केवल ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध नहीं है, यह तो विश्व के उन सभी समराज्यो के विरुद्ध है,जिनकी नींव ब्रिटिश साम्राज्यवाद पर है. इसलिए हम भारत के स्वार्थ के लिए नहीं,बल्कि सारी मनुष्य जाति के स्वार्थ के लिए लड़ रहे हैं. स्वाधीन भारत का अर्थ ही है मनुष्यमात्र की मुक्ति.”माथा
गणतंत्र दिवस के अवसर पर
भारतीय गणतांत्रिक मूल्यों के पुरोधा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और नेताजी सुभाषचंद्र बोस को शत शत नमन !! और समस्त देशवासियों को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं.(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के
रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित।)