हाईकमान और आलाकमान की राजनीति में ‘कमानविहीन’ हुआ उत्तराखंड

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प्रकाश उप्रेती

उत्तराखंड के पहाड़ी इलाके पिछले कुछ दिनों से भयंकर ठंड से ठिठुर रहे हैं वहीं चुनावी तापमान ने देहरादून को गर्म कर रखा है. देहरादून की चुनावी तपिश से पहाड़ के इलाके बहुत प्रभावित तो नहीं होते लेकिन दुर्भाग्य because यह है कि उनके भविष्य का फैसला भी इसी तपिश से होता है. इसलिए ही जब उत्तराखंड के लोग गैरसैंण राजधानी की माँग करते हैं तो उसके पीछे पर्वतीय प्रदेश की संरचना और जरूरतें हैं क्योंकि देहरादून की नज़र तो दिल्ली की तरफ और पीठ पहाड़ की तरफ होती है. दिल्ली ही देहरादून को चलाती है. इसलिए उत्तराखंड के पहाड़ी इलाके अलग उत्तराखंड राज्य के 21 वर्ष पूरे हो जाने के बाद भी स्वास्थ्य, शिक्षा, चिकित्सा, सड़क, जमीन, रोजगार, कृषि, जलसंकट और पलायन जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं.

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उत्तराखंड को बने 21 वर्ष हो गए हैं. इन 21 वर्षों में 11 मुख्यमंत्रियों के साथ बीजेपी- कांग्रेस की सरकारें ही सत्ता में रहीं. उत्तराखंड आंदोलन के गर्भ से सन् 1979 में उपजी क्षेत्रीय पार्टी उक्रांद को लेकर जनता के because मन में सहानुभूति के अतिरिक्त आज कुछ बचा नहीं है. बीजेपी- कांग्रेस की राजनैतिक हैसियत के सामने भी उक्रांद की स्थिति दिनों-दिन कमजोर होती जा रही है. ऐसे में हाईकमान और आलाकमान से संचालित पार्टियों की निष्ठा उत्तराखंड की जनता से ज्यादा दिल्ली के प्रति नज़र आती है. इसलिए हर चुनाव में पहाड़ के मुद्दे गौण और दिल्ली के मुद्दे प्रमुख हो जाते  हैं.

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इस चुनाव में तो बीजेपी-कांग्रेस के अलावा आप ने भी उत्तराखंड की राजनीति में एंट्री कर ली है. इन तीनों पार्टीयों के पर प्रमुख देहरादून में आकर रैली कर चुके हैं. तीनों के लिए पहाड़ की समस्याओं और मुद्दों के नाम पर सैनिक, because राष्ट्रवाद, धार्मिक राजधानी जैसे सवाल ही प्रमुख हैं. इधर पहाड़ की राजनीति में उत्तर प्रदेश की तरह हिंदू- मुस्लिम (86% -14 %) का मुद्दा आँकड़ों की शक्ल में तो नहीं लेकिन टोपी, मुस्लिम यूनिवर्सिटी, मस्जिद, मंदिर के रूप देहरादून के आसमाना में छाया है. वर्चुअल दौर की राजनीति ने इन मुद्दों को व्हाट्सप के जरिए घर- घर तक पहुँचा दिया है. अब यही पहाड़ के असल मुद्दे हो गए हैं  जबकि पहाड़ की समस्याएँ कुछ और हैं. उक्रांद के नेता पहाड़ के असल मुद्दों को उठा तो रहे हैं लेकिन कॉन्क्लेवि और वर्चुअल राजनीति के दौर में उनकी आवाज पहाड़ के गधेरों में ही टकरा कर खत्म हो जा रही है.

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आज पहाड़ के असल मुद्दे

स्वास्थ्य सुविधाएं  21 वर्षों में भी पहाड़ की चिकित्सा व्यवस्था खस्ताहाल है. एक तरफ जहाँ कई पहाड़ी इलाकों में 30 से 40 किलोमीटर तक कोई सरकारी हॉस्पिटल because नहीं है तो वहीं सुविधा के लिहाज से कई तहसील तक में बने सरकारी हॉस्पिटल में अल्ट्रासाउंड की मशीन और अन्य जाँच के उपकरण तक नहीं हैं. अल्मोड़ा जिले के ही 83 गांवों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं है. आज भी छोटी से छोटी बीमारी के लिए लोगों को सैकड़ों किलोमीटर दूर मैदानों की तरफ आना पड़ता है.

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शिक्षा की दुर्दशा  पहाड़ों का जीवन जितना कठिन है, उससे कहीं कठिन वहाँ शिक्षा हासिल करना है. प्राइमरी शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक का हाल बुरा है. कुछ समय पहले आई रिपोर्ट के अनुसार 1689 प्राइमरी स्कूलों में केवल 1-1 अध्यापक हैं. इन स्कूलों में 39000 बच्चे पढ़ते हैं. पिछले कुछ वर्षों में  सरकार ने सैकड़ों प्राइमरी स्कूल बंद कर दिए हैं. उच्च शिक्षा की हालत यह है कि बी. ए. करने भी पहाड़ों से बच्चों देहरादून या दिल्ली आना पड़ता है.

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बेरोजगारी की मार पहाड़ की जवानी और पहाड़ का पानी वहाँ के काम नहीं आता है. यह बात आज से 20 वर्ष पहले जितनी सच थी, because उतनी ही आज भी है. पहाड़ों में रोजगार की संभावनाओं पर सरकारों ने कभी कोई काम नहीं किया. पहाड़ की जवानी रोजगार की तलाश में पहाड़ को छोड़ने पर आज भी मजबूर है. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) के आंकड़ों के मुताबिक, उत्तराखंड में बेरोजगारी दर 22.3% है लेकिन राजनैतिक पार्टियों के लिए यह कोई मुद्दा नहीं है.

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सरकारी पलायन आयोग की रिपोर्ट के because अनुसार उत्तराखंड के 1702 गांव भुतहा हो चुके हैं. मतलब एकदम खाली हो चुके हैं और तक़रीबन 1000 गांव ऐसे हैं जहां 100 से कम लोग बचे हैं. पलायन आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक 50% लोग रोजगार के कारण, 15% शिक्षा के चलते और 8% लचर स्वास्थ्य सुविधा की वजह से पलायन करने को मजबूर हुए.

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व्यवस्थाजनित पलायन- पलायन उत्तराखंड की एक बड़ी समस्या है. यह कुप्रबंधन और पहाड़ की अनदेखी से व्यवस्थाजनित पलायन है. 21 वर्षों में राज्य के सैकड़ों गांवों खाली हो चुके हैं. because पृथक राज्य बनने के बाद तकरीबन 32 लाख लोग पलायन कर चुके हैं. सरकारी पलायन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड के 1702 गांव भुतहा हो चुके हैं. मतलब एकदम खाली हो चुके हैं और तक़रीबन 1000 गांव ऐसे हैं जहां 100 से कम लोग बचे हैं. पलायन आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक 50% लोग रोजगार के कारण, 15% शिक्षा के चलते और 8% लचर स्वास्थ्य सुविधा की वजह से पलायन करने को मजबूर हुए.

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प्राकृतिक संसाधनों की लूट प्राकृतिक संसाधनों की लूट के मामले में तो इस राज्य का कोई मुकाबला ही नहीं है.  because सरकारी तन्त्र और भू-माफिया के गठजोड़ ने पूरे पहाड़ को फोड़ डाला है. खनन माफियाओं ने नदियों को खत्म कर दिया है. आज पहाड़ आपदाओं का केंद्र बन गया है. पहाड़ की जरूरतों के हिसाब से विकास का कोई मॉडल आज तक पहाड़ों के लिए बना ही नहीं.

गाँव तक कनेक्टिविटी  राज्य के बहुत से गाँव आज भी सड़कों की कनेक्टिविटी से अछूते हैं. गाँव से सड़क तक 15-20 किलोमीटर चलकर गाँवों के लोगों को आना पड़ता है. बीमारी की स्थिति इस पैदल दूरी के कारण सड़क तक पहुँचने के लिए जो कष्ट उठाने पड़ते हैं उसकी देहरादून और दिल्ली के लिए कल्पना करना भी मुश्किल है.

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जंगली जानवरों में बढोत्तरी और कृषि भूमि का घटना-  becauseउत्तराखंड में वन क्षेत्र सबसे अधिक है. सरकार की नीतियों के चलते जहाँ कृषि भूमि घटी है तो वहीं जो कुछ लोग गाँव में खेती कर रहे उन्हें जंगली सुअर, बंदर, गुलदार, भालू जैसे जानवरों से दो-चार होना पड़ता है. पिछले कुछ वर्षों में इन जंगली जानवरों के कारण कई लोगों को जान भी गंवानी पड़ी है. सरकार के वन विभाग की अनदेखी इस समस्या को विकराल किया है.

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इस बार उत्तराखंड के चुनावों में मुख्यमंत्रियों की अदला-बदली, सत्ताधारी पार्टी के अंतिम समय में किए सैकड़ों घोषणाएं, कोविड के दौरान हुई अव्यवस्था को विपक्षी पार्टियाँ उठा रही हैं. देखना यह है कि इन मुद्दों से because इतर जमीनी मुद्दे और समस्याओं पर कौन कितनी देर में आता है. अभी जिस तरह से देहरादून की राजनीति चल रही है उसे देखते हुए लगता है कि कॉन्क्लेवि राजनीति में पहाड़ के असल मुद्दे नेपथ्य में ही रहेंगे.

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भूकानून का मुद्दा हिमालय राज्यों में जमीन, जल, जंगल का सवाल हमेशा से ही जनता के बीच रहा है क्योंकि ये सवाल उनके जीवन से जुड़ते हैं. राजनीतिक पार्टीयों के लिए ये कभी सवाल के रूप में भी नहीं रहे लेकिन पिछले कुछ वर्षों से खिसकती जमीन, because पिघलते हिमालय, बिकते बुग्याल और लुटती धरोहर को देखते हुए भू- कानून पर राजनैतिक दल कम से कम बात कर रहे हैं. जबकि जमीन का सवाल पहाड़ के जीवन से जुड़ा बड़ा सवाल है. परंतु आज भी यह किसी राजनीतिक पार्टी के लिए बड़ा सवाल नहीं है.

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इस तरह पहाड़ के और भी कई सवाल हैं लेकिन because राजनीतिक पार्टियों के एजेंडे में ये सवाल लंबे दूरी तय नहीं करते हैं. इन सवालों को वह अवसरानुकूल उठाते हैं और फिर नेपथ्य में डाल देते हैं. वामपंथी पार्टियाँ जरूर इन सवालों को जनता के बीच लेकर जाती हैं लेकिन उनकी आवाज सीमित है.

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वैसे इस बार उत्तराखंड के चुनावों में मुख्यमंत्रियों की अदला-बदली, सत्ताधारी पार्टी के अंतिम समय में किए सैकड़ों घोषणाएं, कोविड के दौरान हुई अव्यवस्था को विपक्षी पार्टियाँ उठा रही हैं. देखना यह है कि इन मुद्दों से because इतर जमीनी मुद्दे और समस्याओं पर कौन कितनी देर में आता है. अभी जिस तरह से देहरादून की राजनीति चल रही है उसे देखते हुए लगता है कि कॉन्क्लेवि राजनीति में पहाड़ के असल मुद्दे नेपथ्य में ही रहेंगे. जैसे-जैसे चुनाव की तारीख नजदीक आएगी राजनीति फिर घूम फिर कर हिंदू-मुस्लिम, धर्म और राष्ट्रवाद के इर्दगिर्द सिमट जाएगी और उत्तराखंड का भविष्य हाईकमान-आलाकमान की कठपुतलियों के हाथों में होगा.

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(डॉ. प्रकाश उप्रेती दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर एवं हिमांतर पत्रिका के संपादक हैं और
पहाड़ के सवालों को लेकर हमेशा मुखर रहते हैं.)

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