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पहाड़ की अनूठी परंपरा है ‘भिटौली’

पहाड़ की अनूठी परंपरा है ‘भिटौली’

उत्तराखंड हलचल, संस्मरण, साहित्‍य-संस्कृति
दीपशिखा गुसाईं मायके से विशेष रूप से आए उपहारों को ही ‘भिटौली’ कहते हैं। जिसमें नए कपड़े, मां के हाथों  से बने कई तरह के पकवान आदि  शामिल हैं। जिन्हें लेकर भाई अपनी बहिन के घर ले जाकर उसकी कुशल क्षेम पूछता है। एक तरफ से यह त्यौहार भाई और बहिन के असीम प्यार का द्योतक भी है। पहाड़ की अनूठी परंपरा ‘भिटौली’ ‘अब ऋतु रमणी ऐ गे ओ चेत क मेहना,  भटोई की आस लगे आज सोरास बेना...’ यह गीत सुन शायद सभी पहाड़ी बहिनों को अपने मायके की याद स्वतः ही आने लगती है, ‘भिटौली’ मतलब भेंट... कुछ जगह इसे ‘आल्यु’ भी कहते हैं। चैत माह हर एक विवाहिता स्त्री के लिए विशेष होता है। अपने मायके से भाई का इंतजार करती, उससे मिलने की ख़ुशी में बार—बार रास्ते को निहारना... हर दिन अलसुबह उठकर घर की साफ—सफाई कर अपने मायके वालों के इंतजार में गोधूलि तक किसी भी आहट पर बरबस ही उठखड़े होना शायद कोई आया हो। मायके से विशे...
अब न वो घुघुती रही और न आसमान में कौवे

अब न वो घुघुती रही और न आसमान में कौवे

लोक पर्व-त्योहार, संस्मरण
हम लोग बचपन में जिस त्योहार का बेसब्री से इंतजार करते थे वह दिवाली या होली नहीं बल्कि ‘घुघुतिया’ था। प्रकाश चंद्र भारत की विविधता के कई आयाम हैं इसमें बोली से लेकर रीति-रिवाज़, त्योहार, खान-पान, पहनावा और इन सबसे मिलकर बनने वाली जीवन पद्धति। इस जीवन पद्धति में लोककथाओं व लोक आस्था का बड़ा महत्व है। हर प्रदेश की अपनी लोक कथाएं हैं जिनका अपना एक संदर्भ है। इन लोक कथाओं और उनसे संबंधित त्योहारों के कारण ही आज भी ग्रामीण समाज में सामूहिकता का बोध बचा हुआ है। उसके उलट महानगरों में लगभग सामूहिकता का लोप हो चुका है। इस कारण से ही महानगरों में पलने और पढ़ने वाली पीढ़ी के लिए त्योहारों का महत्व धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। त्योहार अब उत्सव से ज्यादा ‘इवेंट’ में तब्दील हो रहे हैं। ऐसे समय उन त्योहारों को फिर से याद करना समय के चक्र के साथ बचपन में लौटने जैसा है। हम लोग बचपन में जिस त्योहार क...