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युवा लेखक ललित फुलारा की कहानी ‘घिनौड़’ और ‘पहाड़ पर टैंकर’ पर एक विमर्श…

युवा लेखक ललित फुलारा की कहानी ‘घिनौड़’ और ‘पहाड़ पर टैंकर’ पर एक विमर्श…

साहित्यिक-हलचल
अरविंद मालगुड़ी पिछले दिनों ललित फुलारा की कहानी 'घिनौड़' और 'पहाड़ पर टैंकर' पढ़ी. इन दोनों ही कहानियों को मैंने छपने से पहले और छपने के बाद एक नहीं, दो-दो बार पढ़ा है. 'घिनौड़' (गौरेया) जहां एक वैज्ञानिक सोच वाली मनोवैज्ञानिक कहानी है, वहीं 'पहाड़ पर टैंकर' जड़ों से कट चुके उत्तराखंड के नौजवानों को जड़ों की तरफ लौटने की प्रेरणा देनी वाली. 'घिनौड़' को लेकर उत्तराखंड के कहानीकार और वरिष्ठ पत्रकार नवीन जोशी ने टिप्पणी की 'कहानी लिखी तो अच्छी है, शिल्प एवं भाषा की दृष्टि से. शुरुआत रोचक है लेकिन अधूरी सी लगी. आखिर कथा पहुँची कहाँ?' यह बात सही है कि इस कहानी को पढ़ते हुए पाठकों को लगता है कि पिरदा और उनके बच्चे घनु की कहानी को आगे पहुंचाया जा सकता था. पर हो सकता है कि लेखक ने कहानी को वहीं इसलिए छोड़ा हो कि पाठक खुद ही अंदाजा लगा लें कि पिरदा और घनु की जिंदगी में आगे क्या हुआ होगा? पि...
नदी कभी वापस नहीं लौटती…

नदी कभी वापस नहीं लौटती…

साहित्‍य-संस्कृति
पुरातन वर्ष एक दस्तावेज़ भी है हमारे अनुभव हमारी स्मृतियों का जिसमें अनगिनत अनगढा, अनसुलझा, so कुछ तुर्श, कुछ सड़ा-गला, कुछ थोड़ा बहुत उपयोगी भी है यह हमें तय करना है कि नवीनता की ड्योढी पर हमें क्या-क्या साथ लेकर पांव रखना है. सुनीता भट्ट पैन्यूली समय धारा प्रवाह बहती because अविरल नदी है जिसकी नियति बहना है, जो किसी के लिए नहीं ठहरती, हां विभिन्न कालखंडों में विभाजित विविध घाटों के पड़ावों से टकराकर अपने होने का आभास कराती हुई जा पहुंचती है उस भवसागर में  जिसका प्रारब्ध उस अदृश्य शक्ति ने या विधि के विधान ने सुनिश्चित किया है. जहां न अंत है, न आरंभ है, न अफसोस की गुंजाइश है, न हर्ष का पारावार, न किंतु-परंतु, न सवाल-जवाब, न उल्लसिता की कोई परिभाषा. because सब कुछ छुटता चला जाता है. साथ बहकर चली आती हैं उस नदी के साथ तो वह हैं स्मृति खंड जिसके दांये-बांये से होकर समय रूपी नदी...