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हरेला पर्व, अँधेरे समय में विचार जैसा है

हरेला पर्व, अँधेरे समय में विचार जैसा है

लोक पर्व-त्योहार
प्रकाश उप्रेती पहाड़ों का जीवन अपने संसाधनों पर निर्भर होता है. यह जीवन अपने आस-पास के पेड़, पौधे, जंगल, मिट्टी, झाड़ियाँ और फल-फूल आदि से बनता है. इनकी उपस्थिति में ही जीवन का उत्सव मनाया जाता है. पहाड़ के जीवन में प्रकृति अंतर्निहित होती है. दोनों परस्पर एक- दूसरे में घुले- मिले होते हैं. एक के बिना दूसरे की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. यह रिश्ता अनादि काल से चला आ रहा है. 'पर्यावरण' जैसे शब्द की जब ध्वनि भी नहीं थी तब से प्रकृति पहाड़ की जीवनशैली का अनिवार्य अंग है. वहां जंगल या पेड़, पर्यावरण नहीं बल्कि जीवन का अटूट हिस्सा हैं. इसलिए जीवन के हर भाव, दुःख-सुख, शुभ-अशुभ, में प्रकृति मौजूद रहती है. जीवन के उत्सव में प्रकृति की इसी मौजूदगी का लोकपर्व है, हरेला. हरेला का अर्थ हरियाली से है. यह हरियाली जीवन के सभी रूपों में बनी रहे उसी का द्योतक यह लोक पर्व है. एक वर्ष में तीन बार मनाया जाने व...
पर्यावरण को समर्पित उत्तराखंड का लोकपर्व हरेला

पर्यावरण को समर्पित उत्तराखंड का लोकपर्व हरेला

साहित्‍य-संस्कृति
अशोक जोशी देवभूमि, तपोभूमि, हिमवंत, जैसे कई  पौराणिक नामों से विख्यात हमारा उत्तराखंड जहां अपनी खूबसूरती, लोक संस्कृति, लोक परंपराओं धार्मिक तीर्थ स्थलों के कारण विश्व भर में प्रसिद्ध है,  तो वहीं यहां के लोक पर्व भी पीछे नहीं, जो इसे ऐतिहासिक दर्जा प्रदान करने में अपनी एक अहम भूमिका रखते हैं. हिमालयी, धार्मिक व सांस्कृतिक राज्य होने के साथ-साथ देवभूमि उत्तराखंड को सर्वाधिक लोकपर्वों वाले राज्य के रूप में भी देखा जाता है. विश्व भर में कोई त्यौहार जहां वर्ष में सिर्फ एक बार आते हैं तो वही हरेला जैसे कुछ लोक पर्व देवभूमि में वर्ष में तीन बार मनाए जाते हैं. हरेला लोक पर्व उत्तराखंड में मनाया जाने वाला एक हिंदू पर्व है, जो विशेषकर राज्य के कुमाऊं क्षेत्र में अधिक प्रचलित है. कुछ लोगों के द्वारा चैत्र मास के प्रथम दिन  इसे बोया जाता है, तथा नवमी के दिन काटा जाता है. तो कुछ जनों के द्वारा साव...
हरेला : पहाड़ की लोक संस्कृति और हरित क्रांति का पर्व

हरेला : पहाड़ की लोक संस्कृति और हरित क्रांति का पर्व

साहित्‍य-संस्कृति
डॉ. मोहन चंद तिवारी इस बार हरेला संक्रांति का पर्व उत्तराखंड में 16 जुलाई को मनाया जाएगा.अपनी अपनी रीति के अनुसार नौ या दस दिन पहले बोया हुआ हरेला इस श्रावण मास की संक्रान्ति को काटा जाता है.सबसे पहले हरेला घर के मन्दिरों और गृह द्वारों में चढ़ाया जाता है और फिर  माताएं, दादियां और बड़ी बजुर्ग महिलाएं हरेले की पीली पत्तियों को बच्चों,युवाओं, पुत्र, पुत्रियों के शरीर पर स्पर्श कराते हुए आशीर्वाद देती हैं- “जी रये,जागि रये,तिष्टिये,पनपिये, दुब जस हरी जड़ हो, ब्यर जस फइये. हिमाल में ह्यूं छन तक, गंग ज्यू में पांणि छन तक, यो दिन और यो मास भेटनैं रये. अगासाक चार उकाव, धरती चार चकाव है जये, स्याव कस बुद्धि हो, स्यू जस पराण हो.” परम्परा के अनुसार हरेला उगाने के लिए पांच अथवा सात अनाज गेहूं, जौ,मक्का, सरसों, गौहत, कौंड़ी, धान और भट्ट आदि के बीज घर के भीतर छोटी टोकरियों अथवा लकड़ी के ...