Tag: कृषि

उत्तराखंड में उद्यानीकरण की हकीकत

उत्तराखंड में उद्यानीकरण की हकीकत

उत्तराखंड हलचल
पलायन ‘व्यक्तिजनित’ नहीं ‘नीतिजनित’ है भाग-3चारु तिवारी सरकार बार-बार कह रही है कि उद्यानीकरण को रोजगार का आधार बनायेगी. मुख्यमंत्री अपने हर संबोधन में बता रहे हैं कि वे फलोत्पादन और नकदी फसलों से लोगों की आमदनी बढ़ायेंगे, ताकि वे महानगरों की ओर न भागें. सरकार अगर इस तरह सोच रही है तो निश्चित रूप से उसने उद्यानीकरण पर अपना रोडमैप जरूर तैयार किया होगा. मुख्यमंत्री और सरकार की ओर से वही पुरानी बातें कही गई हैं, जो योजनाओं और कागजों तक सीमित रहती हैं. इनके धरातल में न उतरने की वजह से ही लोगों का फलोत्पादन से मोहभंग हुआ. परंपरागत रूप से फलोत्पादन हमारी अर्थव्यवस्था का आधार रही है. फल, सब्जियों, कृषि उपजों आदि से ही ग्रामीण अपना भरण-पोषण करते रहे हैं. पहाड़ में मनीआर्डर की अर्थव्यवस्था एक साजिश है. बहुत तरीके से लाई गई है. यह साबित कराने के लिये कि पहाड़ों में कुछ नहीं हो सकता. बाहर ...
बंजर होते खेतों के बीच ईजा का दुःख

बंजर होते खेतों के बीच ईजा का दुःख

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—9प्रकाश उप्रेतीहमारे खेतों के भी अलग-अलग नाम होते हैं. 'खेतों' को हम 'पटौ' और 'हल चलाने' को 'हौ बहाना' कहते हैं. हमारे लिए पटौपन हौ बहाना ही कृषि या खेती करना था. कृषि भी क्या बस खेत बंजर न हो इसी में लगे रहते थे. हर खेत के साथ पूरी मेहनत होती लेकिन अनाज वही पसेरी भर.हमारे हर पटौ की अपनी कहानी और पहचान थी. हमारे कुल मिलाकर 40 से 45 पटौ थे. हर एक का अलग नाम था. हर किसी में क्या बोया जाना है, वह पहले से तय होता था। कई खेतों में तो मिट्टी से ज्यादा पत्थर होते थे. हर पत्थर और खेत अपनी पहचान रखता था. उनके नाम थे, जैसे - तेसंगड़ी पाटौ, बटौपाटौ, घरज्ञानणय पाटौ, ठुल पाटौ, रूचिखाअ पाटौ, बघोली पाटौ, किवांड़ीं पाटौ, कनहुंड़ीं पाटौ, मलस्यारी पाटौ, रतवाडो पाटौ, गौंपारअ पाटौ, बगड़अ पाटौ, इस तरह और भी नाम थे. पेड़, पत्थर या भौगोलिक स्थिति के अनुसार उनका नामकरण हुआ...
पिठाड़ी—पिदें की बाकर्या अर बाकर्यों कु त्यार

पिठाड़ी—पिदें की बाकर्या अर बाकर्यों कु त्यार

साहित्‍य-संस्कृति
लोक पर्वदिनेश रावतवर्ष का एक दिन! जब लोक आटे की बकरियाँ बनाते हैं. उन्हें चारा—पत्ती चुंगाते हैं. पूजा करते हैं. धूप—दीप दिखाते हैं. गंध—अक्षत, पत्र—पुष्ठ चढ़ाते हैं. रोली बाँधते हैं. टीका लगाते हैं. अंत में इनकी पूजा—बलि देकर आराध्य देवी—देवताओं को प्रसन्न करते हैं. त्यौहार मनाते हैं, जिसे 'बाकर्या त्यार' तथा संक्रांति जिस दिन त्यौहार मनाया जाता है 'बाकर्या संक्रांत' के रूप में लोक प्रसिद्ध है.बाकर्या त्यार की यह परम्परा उत्तराखण्ड के सीमान्त उत्तरकाशी के पश्चितोत्तर रवाँई में वर्षों से प्रचलित है. जिसके लिए लोग चावल का आटा यानी 'पिठाड़ी' और उसकी अनुपलब्धता पर 'पिदें' यानी गेहूँ के आटे को गूंथ कर उससे घरों में एक—दो नहीं बल्कि कई—कई बकरियाँ बनाते हैं, जिनमें 'बाकरी', 'बाकरू' अर्थात नर, मादा बकरियों के अतिरिक्त 'चेल्क्यिा' यानी ' मेमने' भी बनाए जाते हैं.बाकर्या त्यार की...