Tag: स्याल्दे मेले

चाहे बल्द  बैचे जो, स्याल्दे जरूर जांण छू!

चाहे बल्द  बैचे जो, स्याल्दे जरूर जांण छू!

लोक पर्व-त्योहार
चारु तिवारी, वरिष्ठ पत्रकार  मनेरगा में काम चलि रौ, डबलों रनमन, मदना करूं दिल्ली नौकरी, खात में डबल छन। आज जब मैं अपने अग्रज, साहित्यकार, रंगकर्मी और लोक के चितेरे उदय किरौला जी से बात कर रहा था तो उन्होंने मुझे द्वाराहाट में इस बार लगे झोड़े के बारे में बताया। आज द्वाराहाट में स्याल्दे का मेला लगेगा। स्याल्दे मेले के बारे में द्वर्यावों (द्वाराहाट वाले) मे एक मुहावरा प्रचलित है ‘बल्द बिचै जाओ लेकिन स्याल्दे जरूर जांण छू। इस बार भी स्याल्दे मेले न जा पाने की कसक तो है, लेकिन किरौला जी के सुनाये झोड़े ने द्वाराहाट की स्मृतियों को हमेशा की तरह ताजा कर दिया। उन सामूहिक स्वरों को भी जो हमारी चेतना आ आधार रहे हैं। इन स्वरों में युगो-युगों से संचित चेतना है। यही वजह है कि यहां लगने वाले झोड़ों ने आज भी उन सामूहिक अभिव्यक्तियों को नहीं छोड़ा है जो आज किसी न किसी तरह खामोश किये जा रहे हैं। सर...
‘ओ इजा’ उपन्यास में कल्पित इतिहास चेतना और पहाड़ की लोक संस्कृति

‘ओ इजा’ उपन्यास में कल्पित इतिहास चेतना और पहाड़ की लोक संस्कृति

साहित्यिक-हलचल
शम्भूदत्त सती का व्यक्तित्व व कृतित्व-2 डॉ. मोहन चन्द तिवारी पिछले लेख में शम्भूदत्त सती जी के 'ओ इजा' उपन्यास में नारी विमर्श से सम्बंधित चर्चा की गई थी. इस उपन्यास का एक दूसरा खास पहलू पहाड़ के लोगों की इतिहास चेतना और लोक संस्कृति से भी जुड़ा है,जिसकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है. पहाड़ वालों ने अपने इतिहास और धार्मिक तीर्थस्थानों के सम्बन्ध में सदियों से जो अनेक प्रकार की भ्रांतियां और अंधरूढ़ियां पालपोष रखी हैं,ज्यादातर वे या तो किंवदंतियों या जनश्रुतियों पर आधारित हैं या साम्राज्यवादी अंग्रेज इतिहासकारों की सोच के कारण पनपी हैं. पहाड़ी समाज में कस्तूरी की गंध की तरह रची बसी इन भ्रांतियों को आज कोई प्राचीन ऐतिहासिक साक्ष्यों और तथ्यों के आधार पर खारिज भी करना चाहे तो नहीं कर सकता, क्योंकि ये आस्था और विश्वास के रूप में अपनी गहरी पैंठ बना चुकी हैं.यहां पहाड़ के विभिन्न मंदिरों और यह...