स्त्री जीवन के रंग, बस की खिड़की से
सुनीता भट्ट पैन्यूली
उत्तराखंड की कुनकुनी ठंड पार हो गयी है एक नर्म गर्मी और फगुनाहट का अहसास राजस्थान के सीमांत प्रदेश में पहुंचकर देह को प्रफुल्लित कर रहा है.हमने अपने शाल और स्वेटर बस में उतारकर रख लिये हैं.
हरे-भरे कीकर के पेड़, सूखे जर्र-जर्र ताल-तलैयों और कुंओं का सिलसिला अनवरत चल रहा है हमारी आंखों की मिल्कियत तक.
मैं बस की ऊंची वाली बर्थ पर बैठी हूं. बहुत सुखद होता है बस या ट्रेन में बैठकर मन की खिड़की से बाहर जीवन और उससे जुड़े रंगों को महसूस करना. सड़क के किनारे दौड़ लगाते खेतों में गेहूं की विस्तीर्ण अधपकी फसल जिसकी आधी हरी और आधी पीली हो गयी गेहूं की बालियों में अभी कच्चा दूध उतरा ही है. मेरे लिए बहुत आश्चर्यजनक है गेहूं को राजस्थान की जमीन पर हरहराते हुए देखना, ज्वार,बाजरा की पैदावार ही वहां होती है ऐसा मैंने सुना है. इक्का- दुक्का पीली सरसों के खेत भी कहीं-कहीं बिखरे ...