Tag: सुनीता भट्ट पैन्यूली

स्त्री जीवन के रंग, बस की खिड़की से

स्त्री जीवन के रंग, बस की खिड़की से

लोक पर्व-त्योहार
सुनीता भट्ट पैन्यूली उत्तराखंड की कुनकुनी ठंड पार हो गयी है एक नर्म गर्मी  और फगुनाहट का अहसास राजस्थान के सीमांत प्रदेश में पहुंचकर देह को प्रफुल्लित कर रहा है.हमने अपने शाल और स्वेटर बस में उतारकर रख लिये हैं. हरे-भरे कीकर के पेड़, सूखे जर्र-जर्र ताल-तलैयों और कुंओं का सिलसिला अनवरत चल रहा है हमारी आंखों की मिल्कियत तक. मैं बस की ऊंची वाली बर्थ पर बैठी हूं. बहुत सुखद होता है बस या ट्रेन में बैठकर मन की खिड़की से बाहर जीवन और उससे जुड़े रंगों  को महसूस करना. सड़क के किनारे दौड़ लगाते खेतों में गेहूं की  विस्तीर्ण अधपकी फसल जिसकी आधी हरी और आधी पीली हो गयी गेहूं की बालियों में अभी कच्चा दूध उतरा ही है. मेरे लिए बहुत आश्चर्यजनक है गेहूं को राजस्थान की जमीन पर हरहराते हुए देखना, ज्वार,बाजरा की पैदावार ही वहां होती है ऐसा मैंने सुना है. इक्का- दुक्का पीली सरसों के खेत भी कहीं-कहीं बिखरे ...
बसंत पंचमी: कला का सदुपयोग व आत्मनवीनीकरण…

बसंत पंचमी: कला का सदुपयोग व आत्मनवीनीकरण…

लोक पर्व-त्योहार
सुनीता भट्ट पैन्यूली एक साहित्यिक उक्ति के अनुसार,“प्राण तत्व ‘रस' से परिपूर्ण रचना ही कला है" इसी कला की प्रासंगिकता के परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है कि सृष्टि की रचना, अनादिशक्ति ब्रहमा का अद्भुत चमत्कार है और उसमें अप्रतिम रंग,ध्वनि,वेग,स्पंदन व चेतना का स्फूरण मां सरस्वती की कलाकृति. यही कला का स्पर्श हमें उस चिरंतन ज्योतिर्मय यानि कि मां सरस्वती से एकाकार होने का अनुभूति प्रदान करता है. क्योंकि यही देवी सरस्वती ही ज्ञान, कला, विज्ञान, शब्द-सृजन, व संगीत की अधिष्ठात्री हैं.  सरस्वती मां को मूर्तरुप में ढूंढना उनकी व्यापकता को बहुत संकुचित करता है. दरअसल जहां-जहां कला अहैतुकि,नि:स्वार्थ एवं जगत कल्याण के लिए सजग व सक्रिय है सरस्वती का वहीं वास है. जहां सात्त्विक जीवन,कला के विभिन्न रूपों का अधिष्ठान, अध्यात्म, गहन चिंतन, विसंगति के वातावरण में रहकर भी आंतरिक विकास और ऊंचाई पर पहु...
अपना-अपना नया साल…

अपना-अपना नया साल…

संस्मरण
सुनीता भट्ट पैन्यूली कल नये साल का पहला दिन है। हे ईश्वर ! विश्व के समस्त प्राणियों ,मेरे घर-परिवार में, नये साल में जीवन के शुभ गान और स्फूरित राग हों,इसी अन्तर्मन से बहती हुई प्रार्थना में हिलोरें मारती हुई मैं अपनी दैनंदिन क्रिया के अहम हिस्से का निर्वाह करने, अपने ओसारे में आ गयी, जैसे ही तुलसी के चौबारे में दिया जलाया,तभी दिवार की उस तरफ से आवाज़ आई। कैसी हो बेटी? मैं सुबह से देख रहा था तुम्हें, तुम आज दिखाई नहीं दी। मैंने दीये की पीत वर्ण और बिछुड़ते हुए सूरज की रक्ताभ मिश्रित नारंगी लौ में ताऊजी को देखा। ताऊजी प्रणाम, मैं ठीक हूं आप कैसे हैं ? हां!आज थोड़ी सी व्यस्त थी मैं। कल नया साल का पहला दिन है ना? सोचा आज ही गाजर का हलुआ बनाकर रख लूं कल के लिए..वही सब गाजर को घिसकर उसे दूध में उबाल रही थी। अच्छा! नये साल के स्वागत की तैयारी चल रही है.. मैंने भी तो मनाना था बेटी न...
कहानी: शीशफूल

कहानी: शीशफूल

किस्से-कहानियां
सुनीता भट्ट पैन्यूली कहानियों का नदी की तरह कोई मुहाना नहीं होता ना ही सितारों की तरह उनका कोई आसमान. एक सजग दृष्टि और कानों की एकाग्रता किसी भी विषयवस्तु को कहानियों का चोला पहना देती हैं. पलायन, बाढ़ या भूकंप के कारण लोग अपना घर छोड़कर कुछ अरसे के लिए बाहर ज़रुर चले जाते हैं किंतु आफत कम होते ही वापस अपने घर-परिवेश में आ जाते हैं. किंतु स्त्रियों के संदर्भ में ऐसा विरल ही होता है. वह पलायन नहीं करती हैं किसी भी हारी-बीमारी और विपदा में. उन्हें तो पेड़ की तरह फलने-फूलने के लिए उनकी जड़ों को एक जगह से खोदकर दूसरी जगह पर विस्थापित कर दिया जाता है . यद्यपि,अपनी मूल जगह से जहां कि उनकी जड़ों को मनमाफ़िक खाद-पानी मिल रहा था,मुश्क़िल होता है उनके लिए वह सब छोड़कर दूसरी ज़मीन पर जड़ें जमाकर पुनः हरा-भरा होना. किंतु फिर भी उन्हें जन्म से मिले संस्कार और सीख का परिणाम है कि अपने पैरों को नयी...
मेरे बगीचे के फूल

मेरे बगीचे के फूल

संस्मरण
सुनीता भट्ट पैन्यूली मानसून के पदचापों की आमद हर because तरफ़ सुनाई दे रही है. पेड़ों के अपनी जड़ों से विलगित होने का शोर शायद ही मानवता को सुनाई दे किंतु इस वर्षाकाल में कोरोना का हाहाकार और मानवता के उखड़ने और उजड़कर गिरने का शोर हर रोज़ कर्णों को भेद रहा है. मानसून इस कोरोना के वर्षाकाल में so मानव को वेंटिलेटर की दरकार है कृत्रिम  प्राण वायु मनुष्य के लिए आज कितना अपरिहार्य है इस कोरोनाकाल में हमें महसूस हो रहा है किंतु प्राकृतिक प्राण वायु जो अदृश्य रुप में हमें मिल रही है उसका ज़िक्र कहीं हमारे मानस-पटल पर धुंधलाता जा रहा है. आज उत्तराखंड में हरेला दिवस मनाया जा रहा है उल्लास कम है कोरोना की वजह से किंतु पौधे रोपे ही जायेंगे कुछ प्राचीन पुरोधाओं की स्मृतियों में कुछ उपेक्षित नदियों के तटों पर, स्कूल, बगीचों अपने घरों में श्रलाघनीय है यह और सार्थक भी. मानसून किंतु पर्या...