Tag: विद्यालय

‘एक अध्यापक की कोशिश और कशिश की मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति’

‘एक अध्यापक की कोशिश और कशिश की मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति’

संस्मरण
डॉ. अरुण कुकसाल जीवन के पहले अध्यापक को भला कौन भूल सकता है. अध्यापकों में वह अग्रणी है. शिक्षा और शिक्षक के प्रति बालसुलभ अवधारणा की पहली खिड़की वही खोलता है. जाहिर है एक जिम्मेदार और दूरदर्शी पहला अध्यापक बच्चे की जीवन दिशा में हमेशा मार्गदर्शी रहता है. चंगीज आइत्मातोव का विश्व चर्चित उपन्यास ‘पहला अध्यापक’ का नायक इसी भूमिका में है. यह उपन्यास जड़ समाज को जीवंतता की ओर ले जाने वाले एक अध्यापक की कोशिश और कशिश की मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति है. ‘पहला अध्यापक’ उपन्यास 20वीं शताब्दी के तीसरे दशक में सोवियत संघ के किरगीजिया पहाड़ी इलाके के कुरकुरेव गांव की सच्ची घटनाओं से शुरू होता है. उपन्यास के सभी पात्रों ने वही जीवन जिया जो उपन्यास में है. चंगीज आइत्मातोव ने केवल उनके जीवन की बातों और घटनाओं को साहित्यिक प्रवाह दिया है. ‘पहला अध्यापक’ उपन्यास 20वीं शताब्दी के तीसरे दशक में सोवियत संघ...
शिक्षक ‘ज्ञानदीप’ है जो जीवनभर ‘दिशा’ देता है

शिक्षक ‘ज्ञानदीप’ है जो जीवनभर ‘दिशा’ देता है

समसामयिक
गुरु पूर्णिमा पर विशेष डॉ. अरुण कुकसाल बचपन की यादों की गठरी में यह याद है कि किसी विशेष दिन घर पर दादाजी ने चौकी पर फैली महीन लाल मिट्टी में मेरी दायें करांगुली (तर्जनी) घुमाकर विद्या अध्ययन का श्रीगणेश किया था. स्कूल जाने से पहले घर पर होने वाली इस पढ़ाई को घुलेटा (आज का प्ले ग्रुप) कहा जाता था. संयोग देखिये कि जिस ऊंगली से हम दूसरों की कमियों की ओर इशारा या उनसे तकरार करते हैं, उसी से हम ज्ञान का पहला अक्षर सीखते हैं. कुछ दिनों बाद 'आधारिक विद्यालय, कण्डारपाणी' असवालस्यूं (पौड़ी गढ़वाल) में भर्ती हुए तो रोज पढ़ने से पहले बच्चे बोलते...... ‘आगे-पीछे बाजे ढोल, सरस्वती माता विद्या बोल’. घर से स्कूल जाने से पहले सभी बच्चे तमाम कामों में घरवालों का हाथ बांटते. गांव का सयाना जिसकी उस दिन बच्चों को स्कूल छोड़ने की बारी होती वो जोर से धै लगाता ‘तैयार ह्ववे जावा रे’. बस थोड़ी ही देर में ...