Tag: लम्फू

जीवन का अँधेरा दूर करने वाला ‘लम्फू’

जीवन का अँधेरा दूर करने वाला ‘लम्फू’

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—36 प्रकाश उप्रेती आज बात रोशनी के उस सीमित घेरे की जहां से अंधेरा छटा. जीवन की पहली किताब उस रोशनी के नाम थी जिसे हम 'लम्फू' कहते थे. 'लम्फू' मतलब लैम्प. वह आज के जैसा लैम्प नहीं था. उसकी रोशनी की अदायगी निराली थी. पढ़ाई से लेकर लड़ाई तक लम्फू हमसफर था. ईजा और लम्फू दोनों रोशनी देते रहे लेकिन उनके इर्द-गिर्द अंधेरा बड़ा घेरा बनाता गया. दिन ढलते ही लम्फू में मिट्टी का तेल डालना, उसकी बत्ती   को ऊपर करना, रोज का नियम सा था. ईजा जब तक 'छन' (गाय-भैंस बांधने की जगह) से आती हम 'गोठ'(घर का नीचे का हिस्सा), 'भतेर' (घर का ऊपर का हिस्सा) में लम्फू जला कर रख देते थे. लम्फू रखने की जगह भी नियत थी. भतेर में वह स्थान 'गन्या' (दीवार का कुछ हिस्सा बाहर को निकला और ऊपर से थोड़ा समतल) होता था. वहाँ से पूरे भतेर में रोशनी पहुँच जाती थी. गोठ में चूल्हे के सामने की दीवार...
माकोट की आमा   

माकोट की आमा   

संस्मरण
‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—5 रेखा उप्रेती माकोट की आमा (नानी) को मैनें कभी नहीं देखा. देखती कैसे!! जब मेरी माँ मात्र दो-ढाई बरस की थी तभी आमा चल बसी. नानाजी ने दूसरा विवाह किया नहीं…. पर फिर भी माकोट में मेरी एक आमा थी जिसे मैंने कभी नहीं देखा… मेरा माकोट बहुत दूर था और पहाड़ों में तब आवागमन के साधन न के बराबर थे. मेरे होने तक माँ का मायके से रिश्ता बस चिट्ठी-पत्री तक सिमट कर रह गया था. जब तक मैं इस लायक हुई कि माँ को लेकर अपने ननिहाल जा सकी तब तक आमा दुनिया से विदा ले चुकी थी. मेरी माँ की चाची थी वह, माँ काखी कहती थी और अपनी काखी के किस्से अक्सर हमें सुनाया करती. आमा नि:संतान थी, यह कहना बहुत बड़ा झूठ होगा क्योंकि जिस प्रेम और अपनत्व से माँ अपनी काखी को याद करती, कौन कहेगा कि काखी की कोख जाई नहीं थी. माँ की यादों और बातों में बसी अपनी उस अनदेखी आमा को मैंने अपने इतने करीब पाया कि...