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‘हे दरी हिमाला दरी ताछुम’

‘हे दरी हिमाला दरी ताछुम’

संस्मरण
डॉ. अमिता प्रकाश “हे दरी हिमाला दरी ताछुम-ताछुमा-छुम. दरी का ऐंगी सौदेर दरी ताछुम-ताछुमा-छुम”.. हाथों से एक दूसरे की बाँह पकड़कर घेरे में गोल-गोल घूमकर दो कदम आगे बढ़ाते हुए धम्म से कूदती हुई लड़कियों को देखकर छज्जे में बैठी मेरी नानी, मामी और दूसरी लड़कियों की दादी, बोडी (ताई), काकी (चाची) की टिप्पणियाँ हमें उस समय बहुत चिढ़ाती थीं, क्योंकि अक्सर वह अपने खेलों की तुलना हमारे खेलों से करती हुई हमें कमतर ही घोषित करतीं, हर पुरानी पीढ़ी की तरह यह कहते हुए कि “हमर जमाना म त इन्न नि होंदु छौ, या इन होंदु छौ” (हमारे जमाने में तो ऐसा होता था या ऐसा नही होता था.) और हम नयी पंख निकली चिड़ियाओं जैसे उत्साह में उनका मुँह चिढ़ातीं अक्सर कह उठतीं “अपड़ जमने र्छुइं तुम अफिम रैण द्यावा... हमल त इन्नी ख्यलण” (अपने जमाने की बातें तुम अपने ही पास ही रहने दो, हम तो ऐसी ही खेलेंगे). पीढ़ी के अंतर से उपजी यह म...