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दिल्ली जन्नूहू, हेर्या जन

दिल्ली जन्नूहू, हेर्या जन

किस्से-कहानियां
लच्छू की रईसी के किस्से कमलेश चंद्र जोशी बात तब की है जब दूर दराज गॉंव के लोगों के लिए दिल्ली सिर्फ एक सपनों का शहर हुआ करता था. उत्तराखंड के लगभग हर पहाड़ी परिवार का एक बच्चा फौज में होता ही था बाकी जो भर्ती में रिजेक्ट हो जाते वो या तो आवारा घूमते बीड़ी फूंकते नजर आते या फिर दिल्ली जाने की जुगत लगाते. उस समय में गॉंव के इक्का—दुक्का लड़के ही दिल्ली में नौकरी करते थे जिस वजह से गॉंव में उनकी पूछ और आव-भगत खूब होती थी. अलबत्ता पूरे गॉंव में मालूम किसी को नहीं होता था कि असल में लड़के दिल्ली में करते क्या हैं लेकिन बातें कहोगे तो ऐसी कि गॉंव के नाकारा निकम्मे लड़कों को मिसाल के तौर पर इन्हीं दिल्ली वाले लड़कों के उदाहरण दिये जाते थे. ईजा-बाज्यू तो बात-बात में कई बार कह देते थे “तुमर चेल त कति समझदार भै हो, टाइम में दिल्ली नौकरी में लाग गौ. एक हमर लाट छ दिन भर फेरिने में भै बस” (तुम्...
इंतज़ार… पहाड़ी इस्टाइल

इंतज़ार… पहाड़ी इस्टाइल

संस्मरण
‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—8 रेखा उप्रेती हुआ यूँ कि मेरी दीदी की शादी दिल्ली के दूल्हे से हो गयी. सखियों ने “…आया री बड़ी दूरों से बन्ना बुलाया” गाकर बारात का स्वागत किया और नैनों की गागर छलकाती दीदी दिल्ली को विदा कर दी गयी. आसपास के गाँवों या शहरों में ब्याही गयी लडकियाँ तो तीसरे-चौथे रोज़ या हद से हद महीने दो महीने में फेरा लगाने आ जाती थी पर हमारी दीदी एक साल तक नहीं आ सकी. हर महीने एक अंतर्देशीय से उसके सकुशल होने की ख़बर आ जाती. एक बार अंतर्देशीय में कुशल-बाद के साथ-साथ यह सूचना भी मिली कि फलां तारीख को हमारी दीदी और भिन्ज्यु आ रहे हैं. घर-भर में ही नहीं आस-पड़ोस में भी उत्साह की लहर दौड़ गयी. जोर-शोर से तैयारियाँ शुरू हुईं. माँ, आमा, काखी, बुआ ने मिलकर घर की लिपाई-पुताई कर डाली. देहरी, चाख, मंदिर ऐपण से जगमगा उठे, आँगन में भी ऐपण की बड़ी-सी चौकी बनाई गयी. शगुन-आँखर देने के लिए ग...