Tag: ढोल

होली के रंग…

होली के रंग…

कविताएं
होली पर की कल्याण सिंह चौहान दो कविताएं  1. होली के रंग रंग ले रंग ले, तन रंग ले, तन रंग ले, तु मन रंग ले, होली के रंग रंग ले।। रंग ले रंग ले.... रंग ले रंग ले, दुनिया के रंग ले रंग ले, रंग ले रंग ले, दुनिया अपने रंग रंग ले, रंग ले रंग ले, तु प्यार के रंग रंग ले।। रंग ले रंग ले.... रंग ले रंग ले, मैं मैं ना रहे, रंग ले रंग ले,  तू तू ना रहे, सच्चा रंग रंग ले, तू पक्का रंग रंग ले।। रंग ले रंग ले..... रंग ले रंग ले, तू कान्हा के रंग रंग ले, रंग ले रंग ले, तू श्यामा के रंग रंग ले, ऐसा रंग ले, कि रंग छूटे ना, होली के रंग रंग ले, रंग ले रंग ले.....।। ********************************** 2. होली है   ऐगी होली फागै की, भाईचारा प्यार की। छोली जाली मठ्ठा बल, छोली जाली मठ्ठा। पंचैती चौक, होली खेलणू, सरू गौं कठ्ठा। ऐगी होली फागै की, भाईचारा प्यार की।। होली है स रा रा रंग उडणू, ...
हुकम दास के हुक्म पर अंग्रेज घाम में खड़ा रहा

हुकम दास के हुक्म पर अंग्रेज घाम में खड़ा रहा

साहित्‍य-संस्कृति
गंधर्व गाथा -1 पुष्कर सिंह रावत उत्तरकाशी में भागीरथी तट पर एक आश्रम है शंकर मठ. ये छोटा सा आश्रम हमारे जेपी दा (जयप्रकाश राणा) का रियाज करने का ठिकाना हुआ करता था. बता दूं कि जेपी दा खुद भी तबले में प्रभाकर हैं और लोक कलाकारों की पहचान करने में उन्हें महारथ है. करीब दस साल पहले की बात है, उस दिन जेपी दा एक युवक को गाने का रियाज करवा रहे थे. इसी बीच मैं और रवीश काला भी वहां पहुंचे. गाते हुए युवा गलती करता तो जेपी दा आंखें तरेर देते, उसका सुर गड़बड़ा जाता. तभी उनकी नजर आश्रम के नीचे से गुजर रहे एक उम्रदराज लेकिन शारीरिक रूप से सुडौल शख्स पर पड़ी. उन्होंने उसे बुलाया और पास बिठा लिया. बड़े वीनीत भाव से उसने जेपी दा की बात सुनी और जीतू बगड्वाल का पंवाड़ा गाना शुरू कर दिया. हमारे रोंगटे खड़े हो गए. नए दौर का युवा गायक अवाक था. जिस गायन में उसे मशक्क त करनी पड़ रही है, उसे वो बूढ़ा बड़े...
हम बच्चे ‘हक्के-बक्के’ जैसे किसी ने अचानक ‘इस्टैचू’ बोल दिया हो

हम बच्चे ‘हक्के-बक्के’ जैसे किसी ने अचानक ‘इस्टैचू’ बोल दिया हो

संस्मरण
चलो, बचपन से मिल आयें भाग—1 डॉ. अरुण कुकसाल बचपन में हम बच्चों की एक तमन्ना बलवान रहती थी कि गांव की बारात में हम भी किसी तरह बाराती बनकर घुस जायं. हमें मालूम रहता था कि बडे हमको बारात में ले नहीं जायेगें. पर बच्चे भी ‘उस्तादों के उस्ताद’ बनने की कोशिश करते थे. गांव से बारात चलने को हुई नहीं कि आगे जाने वाले 2 मील के रास्ते तक पहुंच कर गांव की बारात का आने का इंतजार कर रहे होते थे. नैल गांव जाने वाली बारात की याद है. हम बच्चे अपने गांव की पल्ली धार में किसी ऊंचे पत्थर पर बैठ कर सामने आती बारात में बाराती बनने को उत्सुक हो रहे थे. बारात जैसे-जैसे हमारे पास आ रही थी, हमारा डर भी बड़ रहा था. हमें मालूम था पिटाई तो होगी परन्तु मार खाकर बाराती बनना हमें मंजूर था. वैसे भी रोज की पिटाई के हम अभ्यस्थ थे. शाम होने को थी. बड़े लोग वापस हमको घर भेज भी नहीं सकते थे. क्या करते ? नतीजन, बुजुर्गो...