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किस्सा टूटी तख्ती का

किस्सा टूटी तख्ती का

संस्मरण
‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—3 रेखा उप्रेती टूटे हुए मूँठ वाली भारी-भरकम उस तख्ती का पूरा इतिहास तो ज्ञात नहीं, पर इतना ज़रूर जानती हूँ कि पाँच भाई-बहनों को अक्षर-ज्ञान करा, जब वह मुझ तक पहुँची, तो घिस-घिसकर उसके चारों किनारे गोल हो चुके थे. पकड़ने वाली मूँठ न रहने के कारण उसके दोनों तरफ छेद करवाकर एक मजबूत पतली रस्स्सी बाँध दी गई थी, जिससे उसे कन्धे पर लटकाकर पाठशाला तक की चढ़ाई पार की जा सके. तख्ती, जिसे हम ‘पाटी’ कहते थे, उसके दो सहयोगी भी थे- सफेद 'कमेट' से भरी दवात और बाँस की कलम ... कक्षा दो तक निरक्षरता से लड़ने के लिए यही हमारे अस्त्र-शस्त्र थे. तो मेरे लिए ज्ञान की पहली सीढ़ी बनी वह पारिवारिक तख्ती, बसंत-पंचमी को ‘पाटी-पूजन’ के बाद मेरे सुपुर्द कर दी गई. अक्षत-फूल से सजी उस पाटी पर 'अ' लिखकर मैंने अपनी औपचारिक पढ़ाई प्रारम्भ की. 'प्राईमरी पाठशाला, माला' में पहले दिन तख्ती लटकाकर...