‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—3
- रेखा उप्रेती
टूटे हुए मूँठ वाली भारी-भरकम उस तख्ती का पूरा इतिहास तो ज्ञात नहीं, पर इतना ज़रूर जानती हूँ कि पाँच भाई-बहनों को अक्षर-ज्ञान करा, जब वह मुझ तक पहुँची, तो घिस-घिसकर उसके चारों किनारे गोल हो चुके थे. पकड़ने वाली मूँठ न रहने के कारण उसके दोनों तरफ छेद करवाकर एक मजबूत पतली रस्स्सी बाँध दी गई थी, जिससे उसे कन्धे पर लटकाकर पाठशाला तक की चढ़ाई पार की जा सके. तख्ती, जिसे हम ‘पाटी’ कहते थे, उसके दो सहयोगी भी थे- सफेद ‘कमेट’ से भरी दवात और बाँस की कलम … कक्षा दो तक निरक्षरता से लड़ने के लिए यही हमारे अस्त्र-शस्त्र थे.
तो मेरे लिए ज्ञान की पहली सीढ़ी बनी वह पारिवारिक तख्ती, बसंत-पंचमी को ‘पाटी-पूजन’ के बाद मेरे सुपुर्द कर दी गई. अक्षत-फूल से सजी उस पाटी पर ‘अ’ लिखकर मैंने अपनी औपचारिक पढ़ाई प्रारम्भ की.
‘प्राईमरी पाठशाला, माला’ में पहले दिन तख्ती लटकाकर पहुँची तो पाया कि मुझे विरासत में सिर्फ़ टूटी तख्ती नहीं बल्कि थोड़ा-सा अक्षर ज्ञान भी मिला था. अपने भाई-बहन का अनुकरण कर अ से अ: तक लिखना सीख लिया था… तो पाठशाला के खुले प्रांगण में बिछी टाट-पट्टी पर ठाठ से बैठकर मेरी काली तख्ती अ से अ: तक के श्वेत अक्षरों से जगमगा उठी.
पाठशाला में पहली कक्षा के दो स्तर थे, ‘अ’ और ‘ब’. मेरी तख्ती पर जैसे ही मास्साब की नज़र पड़ी, मुझे तख्ती समेत उठाकर दूसरे टाट पर बिठा दिया गया. यह मेरा पहला ‘प्रमोशन’ था. उस दिन जब फूली-फूली घर लौट रही थी तो तख्ती कन्धे की जगह मेरे सीने से आ लगी थी. पहले ही दिन हम दोनों को एक साथ पदोन्नति मिली.
काली तख्ती पर जब ‘कमेट’ से लिखे हुए सफेद अक्षर जम जाते तो उन्हें मिटाकर फिर से तख्ती चमकाना अनिवार्य कर्म था ताकि अगले दिन फिर उस पर एक नई इबारत लिखी जा सके. तख्ती को चमकाने के लिए एक लम्बी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता. सबसे पहले माँ की फटी धोती की कतरन को गीला कर उसके अक्षरों को नरम किया जाता, खुरदरी घास का गोला बनता जिसे हम ‘मौस्ट’ कहते, उससे रगड़ खाकर अक्षर तो मिट जाते पर तख्ती पर सफेद धब्बे फैल जाते. अपने स्याम-सलोने रंग को वापस पाने के लिए तख्ती को कालिख से पुतना पड़ता था.
तख्ती की साजो-सम्हाल हमारा एकमात्र ‘होमवर्क’ होता था जिसकी कवायद भी परम्परा से मिली थी. काली तख्ती पर जब ‘कमेट’ से लिखे हुए सफेद अक्षर जम जाते तो उन्हें मिटाकर फिर से तख्ती चमकाना अनिवार्य कर्म था ताकि अगले दिन फिर उस पर एक नई इबारत लिखी जा सके. तख्ती को चमकाने के लिए एक लम्बी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता. सबसे पहले माँ की फटी धोती की कतरन को गीला कर उसके अक्षरों को नरम किया जाता, खुरदरी घास का गोला बनता जिसे हम ‘मौस्ट’ कहते. उससे रगड़ खाकर अक्षर तो मिट जाते पर तख्ती पर सफेद धब्बे फैल जाते. अपने स्याम-सलोने रंग को वापस पाने के लिए तख्ती को कालिख से पुतना पड़ता था. चाय की केतली, जो पहाड़ी चूल्हों पर अक्सर चढ़ी ही रहती है, उस पर जमी गहरी कालिख, जिसे हम ‘झोल’ कहते थे, तख्ती की अंतरंग सखी बन उससे लिपट जाती. तख्ती पर झोल पोतने की इस क्रिया में हमारे हाथ, कपड़े और कभी-कभी मुँह पर भी कालिख पुत जाती पर उसकी हमें परवाह नहीं थी, तख्ती का चमकना ज्यादा ज़रूरी था, आखिर वह हमारे भविष्य को उज्ज्वल बनाने वाली कुंजी थी.
‘घोटा’ लगाने के लिए हमारे पास काँच का एक विशेष यंत्र था. गोल-गोल, सुन्दर, चमकीला, जिसके भीतर से लाल-पीले फूल झाँकते थे. इस मामले में हम अपने को बहुत ‘अमीर’ समझते थे क्योंकि गाँव भर में सिर्फ़ हमारे घर ही घोटा लगाने का यंत्र था. मुझे बहुत बाद में पता लगा कि वास्तव में वह पेपर वेट था जिसे पिताजी कभी दिल्ली से ले आए थे.
‘झोल’ पोत कर तख्ती को धूप में रख दिया जाता. उसके सूखने तक हम उसे ताकते रहते और आंगन में खिसकती धूप के साथ-साथ उसे भी दोनों तरफ से उलटते-पुलटते रहते. सूखी हुई काली तख्ती पर झोल की खुरदरी परत को हटा उसे सपाट और चिकना बनाना अगला महत्वपूर्ण चरण था. उसके लिए शीशे की बोतल से तख्ती पर घोटा लगाया जाता. यानी कि जैसे सिलबट्टे पर मसाले पीसे जाते हैं वैसे ही तख्ती पर शीशा रगड़ने की क्रिया ‘घोटा’ कहलाती.
‘घोटा’ लगाने के लिए हमारे पास काँच का एक विशेष यंत्र था. गोल-गोल, सुन्दर, चमकीला, जिसके भीतर से लाल-पीले फूल झाँकते थे. इस मामले में हम अपने को बहुत ‘अमीर’ समझते थे क्योंकि गाँव भर में सिर्फ़ हमारे घर ही घोटा लगाने का यंत्र था. मुझे बहुत बाद में पता लगा कि वास्तव में वह पेपर वेट था जिसे पिताजी कभी दिल्ली से ले आए थे.
तख्ती जब चमक जाती तो अगला कार्यक्रम शुरु होता. उसमें लाईनें खींची जातीं. एक पतली-सी सूती डोर को दोनों छोरों से पकड़कर कमेट के घोल में डुबोकर निकाला जाता. दोनों तरफ से झटका देकर डोरी को झटका जाता ताकि अनावश्यक कमेट छटक जाए. फिर सधे हाथों से ध्यानपूर्वक तख्ती में ‘रूल’ यानी कि लकीरें खींच कर खाने बनाए जाते. एक तरफ ककहरा लिखने के लिए सीधी-सीधी लकीरें, दूसरी तरफ गिनतियाँ लिखने के लिए लंबी पतली लकीरें. साइड में हाशिया भी छोड़ना अनिवार्य था जिसमें चित्रकारी की जा सके. नीचे नाम और कक्षा लिखने की जगह भी बनाई जाती.
तख्ती पुराण का एक और किस्सा सुनाते हुए छोटी दीदी ने बताया कि जब कोई मेहमान घर में सूती डोर से बंधा बाल मिठाई का डब्बा लेकर आता था तो खुशी इस बात से ज्यादा मिलती थी कि तख्ती पर ‘रूल’ खींचने के लिए नयी डोरी मिल गई.
आज सोचती हूँ कि बित्ते भर की टूटी तख्ती पर इतना कुछ कैसे समा जाता होगा…
पिछली बार भैयादूज पर सब भाई-बहनों की चौकड़ी जमी तो अपनी ‘पाटी’ पर भी चर्चा हुई. तब तख्ती के इतिहास का एक महत्वपूर्ण रहस्य मालूम हुआ. मंझली दीदी ने बताया कि दरअसल तख्ती की मूंठ उनसे टूट गयी थी. एक बार स्कूल से लौटते हुए रास्ते में उगी लम्बी घास के मैदान पर उन्होंने जोर से तख्ती को रगड़ा, जिससे वह साफ़ हो जाए और घर जाकर तख्ती चमकाने के कष्ट-साध्य कर्म में कुछ कटौती हो सके. रगड़ा खाकर तख्ती तो साफ़ हुई कि नहीं पर एक पत्थर से टकराकर उसकी मूँठ ज़रूर साफ हो गयी. तख्ती पुराण का एक और किस्सा सुनाते हुए छोटी दीदी ने बताया कि जब कोई मेहमान घर में सूती डोर से बंधा बाल मिठाई का डब्बा लेकर आता था तो खुशी इस बात से ज्यादा मिलती थी कि तख्ती पर ‘रूल’ खींचने के लिए नयी डोरी मिल गई.
किस्से तो बाँस की कलम और कमेट की दवात के भी हैं पर उन पर चर्चा फिर…
(लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय के इन्द्रप्रस्थ कॉलेज के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं)
बहुत सुंदर तख्ती पुराण पढ़ कर मन खुशी से झूम उठा
छोटी छोटी बातों में बड़े बड़े अर्थ छिपे हैं
धन्यवाद लेखिका
धन्यवाद हिमांतर
बहुत रोचक है आपका तख्ती पुराण ।