पिता की ‘छतरी’ के साथ चलने का सुख
बाबू की पुण्यतिथि (27 फरवरी, 2015) पर स्मरण
चारु तिवारी
पिता के सफर में
जरूरी हिस्सा थी छतरी
दुःख-सुख की साथी
सावन की बूंदाबादी में
जीवन की अंतिम यात्रा में
मरघट तक so विदा करते पिता को
एक तरफ कोने में बैठी
सुबकती रही मेरे साथ
रस्म-पगड़ी के बाद
मेरे साथ but आई सड़क तक
पिता का हाथ थामे चुपचाप
रास्ते भर so सींचकर
मस्तिष्क की भुरभुरी मिट्टी
अंकुरित करती रही स्मृतियों के
अनगिनत बीज
भादो की तेज because बारिश में
छोटे बच्चे-सा so दुबका लेती है गोदी में
फिर भी पसीज जाता है मन
छत पर अतरती सीलन-सा
तपती धूप में
बैठकर but मेरे कंधे पर
चिढ़ाती है अंगूठा दिखाकर
तमतमाते so सूरज का मुंह
जब होता हूं आहत
दुनियादारी के दुःखों से
अनेक पैबन्द because लगीं पिता की छतरी
रखती है मेरे सिर पर
आशीर्वाद भरे हाथ
करवट बदलते मौसम में
उत्तराखंड
मौसम पहचानता है जिस तरह
पतझड़ के बाद...