पिता की ‘छतरी’ के साथ चलने का सुख

बाबू की पुण्यतिथि (27 फरवरी, 2015) पर स्मरण

  •  चारु तिवारी

पिता के सफर में
जरूरी हिस्सा थी छतरी
दुःख-सुख की साथी
सावन की बूंदाबादी में
जीवन की अंतिम यात्रा में
मरघट तक so विदा करते पिता को
एक तरफ कोने में बैठी
सुबकती रही मेरे साथ
रस्म-पगड़ी के बाद
मेरे साथ but आई सड़क तक
पिता का हाथ थामे चुपचाप
रास्ते भर so सींचकर
मस्तिष्क की भुरभुरी मिट्टी
अंकुरित करती रही स्मृतियों के
अनगिनत बीज
भादो की तेज because बारिश में
छोटे बच्चे-सा so दुबका लेती है गोदी में
फिर भी पसीज जाता है मन
छत पर अतरती सीलन-सा
तपती धूप में
बैठकर but मेरे कंधे पर
चिढ़ाती है अंगूठा दिखाकर
तमतमाते so सूरज का मुंह
जब होता हूं आहत
दुनियादारी के दुःखों से
अनेक पैबन्द because लगीं पिता की छतरी
रखती है मेरे सिर पर
आशीर्वाद भरे हाथ
करवट बदलते मौसम में

उत्तराखंड

मौसम पहचानता है जिस तरह
पतझड़ के बाद नई पोषाक
मैंने ओढ़ाई छतरी को
आधुनिकता but की चमचमाती चादर
छतरी की जड़
मजबूती से because पकड़े हुये है मेरे अंदर
पिता के so आदर्शों की मिट्टी
पेड़ की because जड़-सी
अब इसकी शाखाओं पर
फूट रही हैं नई कोंपलें.

– रमेश प्रजापति

उत्तराखंड

पिता की छतरी की जड़ को थामे रखना, मजबूती से पकड़े रखना भी उनके आदर्शो के साथ चलना है. उनके आदर्शो की मिट्टी में जो पेड़ उगा, उसमें नई कोपलों के फूटने के but भले ही अलग-अलग संघर्ष हों, विभिन्न-विभिन्न परिस्थितियां हों, लेकिन वह छतरी हमेशा मुझे अपनी जीवन-यात्रा, अपने संघर्षों में चलने की एक गहरी समझ का रास्ता दिखाती है. उस धूप-छांव के मतलब को भी बताती है, जो हर घड़ी-हर पल बदलती रहती है. चेताती है. डांटती है. कभी आगे आकर खड़ी भी हो जाती है. कभी मुस्कराकर हमारी नादानियों को बताती है.

अपनी जीवन-यात्रा

असल में पिता की इस छतरी का अपने पास होना ही मौसमों को अपने अनुरूप बनाने का रास्ता है. संकल्पों से भरी इस छतरी को हर तरह इस्तेमाल किया जा सकता है. हर तरह के because रंग भी भरे जा सकते हैं. उसे दूसरों के ढकने के लायक ताना भी जा सकता है. वह छाता भले ही आकार में छोटी हो, लेकिन उसके सरोकार व्यापक हो सकते हैं. उसका फलक इतना बड़ा हो सकता है कि कुछ लोहे की सींकों से बाहर आ सकता है, एक कपड़े के बने आकार को आकाशीय बनाया जा सकता है. मैं इसलिये बाबू की उस छतरी की गूंठ को कसकर थामे हूं, so जिसमें मुझे चेतना की रोशनी दिखार्इ देती है. इसमें मैं पूरी दुनिया को देख सकता हूं. पिताजी को याद करते हुये कहना चाहता हूं कि उनके आदर्शो की छतरी आज भी मेरे पास है. हमेशा रहेगी.

जीवन-यात्रा


आज बाबू (पिताजी) हरीश चंद्र तिवारी जी को गये पांच साल हो गये. आज के ही दिन 27 फरवरी, 2015 को उनका देहावसान हुआ था. होली से ठीक पहले. मेरे जीवन में बाबू का बहुत महत्व रहा है. आज भी वह because विचार के रूप में मेरे आस-पास रहते हैं. बहुत चेतना के साथ. विद्वता, सादगी, समर्पण, कर्मठता, प्रगतिशील विचारों के साथ उन्होंने अपने को गढ़ा. मेरे बाबू के बहुत सारे आयाम थे. वे एक शिक्षक तो थे ही एक संवेदनशील इंसान भी थे. पिताजी को अपने होश संभालने के बाद जब से मैंने देखा वह मुझे हर समय शिक्षा के प्रचार-प्रसार करते ही मिले. बाबू का जन्म 25 जनवरी,1936 में हुआ था. अल्मोड़ा जनपद के मनेला (तिवारीखोला) गांव में.

यात्रा

मेरे बडबाज्यू (दादा) ट्रेजरी में नौकरी करते थे. पिताजी की शिक्षा रानीखेत, अल्मोड़ा और नैनीताल में हुई. उन्होंने 1954 में एमए but और 1956 में एलटी (बीएड) कर लिया था. उन दिनों पूरे उत्तर भारत में आगरा विश्वविद्यालय ही था. पिताजी ने डीएसबी काॅलेज नैनीताल से पढ़ाई की जिसकी संबद्धता आगरा विश्वविद्यालय से थी. वर्ष तो पता नहीं कौन रहा होगा, लेकिन बाबू राजस्थान चले गये. वहां अजमेर जिले के एक सरकारी हाईस्कूल में प्रधानाध्यापक हो गये. वहां शायद एक-आध साल ही रहे. घर वापस आकर वे दौलाघट स्कूल के संस्थापकों में रहे.

जीवन-यात्रा

पुराने लोग बताते हैं कि एक दिन मनेला गांव से किसी ने धात लगाई बल कि- ‘अहो त्याडज्यू बग्वाईपोखर में स्कूल खुलडों बल. तुमर च्यल कं बां बुलोडि़.’ अर्थात तेवाड़ी जी so बग्वालीपोखर में स्कूल खुल रहा है. आपके बेटे को बुला रहे हैं. बडबाज्यू ने पिताजी को बग्वालीपोखर भेज दिया. यह 1965 की बात है. इसके बाद पिताजी इसी विद्यालय के निर्माण में लग गये. बग्वालीपोखर हमारे गांव से आठ किलोमीटर की दूरी पर है. because उस समय सड़क गगास तक ही थी. बाबू के साथ हम लोग पहली बार बग्वालीपोखर 1970 में गये. वहां चपड़ास्थान में जिला परिषद की सड़क (घोड़ी रोड) के किनारे सकूनी का पंचायत घर था. वहीं हम लोग रहते थे. बग्वालीपोखर तब बहुत छोटा सा बाजार था. चपड़ास्थान में तब लोगों की बसासत ना के बराबर थी.

यात्रा

पिताजी के लिये क्षेत्र में शिक्षा का प्रचार-प्रचार करना प्राथमिकता हो गया था. उन्होंने बवालीपोखर इंटर कालेज को 1970 में हाई स्कूल और 1972 में इंटर में मान्यता दिलाई. because उन दिनों स्कूलों की मान्यता मिलना बहुत कठिन काम होता था. पिताजी ने बहुत जल्दी यहां इंटर में साइंस की मान्यता भी दिला दी थी. पूरे इलाके में शिक्षा के इस संस्थान को स्थापित करने में पिताजी के कष्टों को हमने नजदीक से because देखा. बाद में हम लोग इंटर काॅलेज के एक दुमंजिले में रहने लगे थे. लेकिन हमारा बहुत बड़ा समय अपने गांव से बग्वालीपोखर सात किलोमीटर रोज पैदल आने-जाने में गुजरा. कुल मिलाकर 14 किलोमीटर. यह क्रम कई साल तक चला.

यात्रा

उन्होंने खासतौर पर राहुल सांकृत्यान को पढ़ाया. आचार्य चतुरसेन को भी पढ़ा. मुल्कराज आनंद को भी उस दौर में पढ़ा. ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ और ‘मानस का हंस’ because भी बहुत छोटी उम्र में पढ़ लिया था. बाद में पढने-लिखने का सिलसिला जारी रहा. बाबू ने उपनिषदों के बारे में गहनता से बताया. वेदों की बहुत सारी ऋचायें सुनाई. रामचरित मानस रटाया.

यात्रा

सन 1976-77 की बात है. मैं कक्षा छह में पढता था. स्कूल आते-जाते बाबू ने कितनी चीजें बताई. दुनिया को जानने का नजरिया बताया. साहित्य, संगीत, कला, because सामाजिक सरोकारों, इतिहास, संस्कृति बोध के साथ चलने की चेतना का रास्ता यहीं से खुला. बाबू ने चलते-चलते कामायनी, साकेत, प्रिय प्रवास, मधुशाला सुनाई. बहुत सारी कवितायें और गीत भी पिताजी से सुनकर ही याद किये. मुझे पिताजी because ने गीता के श्लोक याद करा दिये. कई अध्याय याद हो गये थे. दादाजी ने गीता का कुमाउनी में ग्यारह अध्यायों का अनुवाद किया था. उसे आगे बढ़ाने का काम मैंने किया, दुर्भाग्य से मुरादाबाद के अव्यवस्थित जीवन में यह महत्वपूर्ण सामग्री कहीं गुम हो गई है.

यात्रा

पिछले साल जब मैं इंटर काॅलेज में गया तो वहां के प्रधानाचार्य जी ने बताया कि ये पुस्तकें आज भी वहां के संग्रह में हैं. उस समय की चर्चित पत्रिकायें हमारे घर आती थीं. because ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, ‘दिनमान’, ‘रविवार’, ‘माया’, ‘खेल भारती’, ‘सारिका’, ‘रीडर्स डाइजेस्ट’, ‘नवनीत’ बाद में ‘इंडिया टुडे’, ‘क्रिकेट सम्राट’, ‘प्रतियोगिता दर्पण’, ‘कंपटीशन सेक्सैस’ जैसी पत्रिकाओं से परिचय हुआ.

यात्रा

बाबू ने सूर, कबीर, तुलसी, मीरा, कालीदास, शेक्सपियर, वल्ड्सवर्थ, शैली, कीट्स, टालस्टाय, रवीन्द्रनाथ टैगोर, प्रेमचंद से लेकर जयशंकर प्रसाद, मैथलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुमित्रानन्दन पंत सदृश्य बहुत सारे साहित्यकारों के साहित्य से परिचित कराया. उन्होंने खासतौर पर because राहुल सांकृत्यान को पढ़ाया. आचार्य चतुरसेन को भी पढ़ा. मुल्कराज आनंद को भी उस दौर में पढ़ा. ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ और ‘मानस का हंस’ भी बहुत छोटी उम्र में पढ़ लिया था. बाद में पढने-लिखने का सिलसिला जारी रहा. because बाबू ने उपनिषदों के बारे में गहनता से बताया. वेदों की बहुत सारी ऋचायें सुनाई. रामचरित मानस रटाया. उन्होंने ही मुझे समाजवाद और मार्क्सवाद के दर्शन को पढ़ने की प्रेरणा दी. उनके पास किताबों का बहुत बड़ा संग्रह था. पहले बडबाज्यू के पास था. दर्शन की बहुत महत्वपूर्ण किताबें थीं. मैंने बाद में अपने गांव (गगास) में एक पुस्तकालय खोला. सारी पुस्तकें वहां रख दी. बाद में उन पुस्तकों का पता ही नहीं चला. उन्होंने अपने विद्यालय में भी उस समय बहुत समृद्ध पुस्तकालय बनाया था.

यात्रा

अपने जीते-जी उन्होंने कभी मुझे सामाजिक जीवन में जाने से नहीं रोका. उन्होंने अपनी इच्छायें कभी मेरे ऊपर नहीं लादी. इसके लिये मदद ही करते रहे. उनका एक डॉयलाग because होता था- ‘बदलाव कब आयेगा यह तो नहीं कह सकता, बस यह बात उम्मीद जगाती है कि तुम सच के साथ खड़े हो.’ बाबू की यह बात हमेशा लड़ने की प्रेरणा देती है. पुण्यतिथि पर बाबू को भावपूर्ण स्मरण.

यात्रा

पिछले साल जब मैं इंटर काॅलेज में गया तो वहां के प्रधानाचार्य जी ने बताया कि ये पुस्तकें आज भी वहां के संग्रह में हैं. उस समय की चर्चित पत्रिकायें हमारे घर आती थीं. because ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, ‘दिनमान’, ‘रविवार’, ‘माया’, ‘खेल भारती’, ‘सारिका’, ‘रीडर्स डाइजेस्ट’, ‘नवनीत’ बाद में ‘इंडिया टुडे’, ‘क्रिकेट सम्राट’, ‘प्रतियोगिता दर्पण’, ‘कंपटीशन सेक्सैस’ जैसी पत्रिकाओं से परिचय हुआ. ये सब पत्रिकायें नियमित रूप से या जब भी मौका लगता पिताजी लाते थे. पिताजी हमारे लिये दो तीन पत्रिकायें नियमित मंगाते थे- ‘नंदन’, ‘लोटपोट’ और ‘चाचा चौधरी.’ उन दिनों ‘धर्मयुग’ में ‘कार्टून कोना डब्बूजी’ हमारा प्रिय काॅलम होता था.

यात्रा

बहुत समय निकल गया. आज बाबू होते तो कई चीजों को उनसे सुनकर ही समझ लेता. बाबू ने जब चेतना का रास्ता खोला तो मैं सामाजिक जीवन में आ गया. आंदोलनों में शामिल होने लगा. उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी सरकारी नौकरी की ओर उन्मुख नहीं हुआ. लोग कहने लगे ‘प्रिंसिपल सहाब का लड़का बिगड़ गया है.’ because अपने जीते-जी उन्होंने कभी मुझे सामाजिक जीवन में जाने से नहीं रोका. उन्होंने अपनी इच्छायें कभी मेरे ऊपर नहीं लादी. इसके लिये मदद ही करते रहे. उनका एक डॉयलाग होता था- ‘बदलाव कब आयेगा यह तो नहीं कह सकता, बस यह बात उम्मीद जगाती है कि तुम सच के साथ खड़े हो.’ बाबू की यह बात हमेशा लड़ने की प्रेरणा देती है. पुण्यतिथि पर बाबू को भावपूर्ण स्मरण.

(सोशल एक्टिविस्ट, स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखक)

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