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भगवान महावीर का पुण्य स्मरण
महावीर जयंती पर विशेष
प्रो. गिरीश्वर मिश्र
‘जैन’ वह है जो ‘जिन’ का अनुयायी हो और जिन वह होता है जो राग-द्वेष से मुक्त हो. जैन साधु निर्ग्रन्थ होते हैं यानी अपने पास गठरी में रखने योग्य कुछ भी नहीं रखते. निवृत्ति और मोक्ष पर बल देने वाली श्रमण ज्ञान परम्परा सांसारिक जीवन को चक्र की तरह उत्थान पतन के क्रम में चलता हुआ देखती है जिसमें अपने कर्म से अलग किसी ईश्वर की भूमिका नहीं है. ‘तीर्थ’ जन्म मृत्यु के चक्र से उद्धार के मार्ग को कहते हैं और तीर्थंकर वह होता है जो उस मार्ग को प्रशस्त करे. श्री ऋषभ देव वर्तमान जैन परम्परा के प्रथम तीर्थंकर थे. तेइसवें पार्श्वनाथ थे और इस श्रृंखला में अंतिम तीर्थंकर वर्धमान महावीर हुए .
तीर्थंकर
छठीं सदी ईसा पूर्व आज के बिहार के में पटना के निकट कुंडलपुर में तकालीन विदेह के इक्ष्वाकु राजवंश में सिद्धार्थ और त्रिशला के पुत्र के रूप में इन...