Tag: ओखली

मुनिया चौरा की कपमार्क ओखली उत्तराखंड के आद्य इतिहास का साक्ष्य

मुनिया चौरा की कपमार्क ओखली उत्तराखंड के आद्य इतिहास का साक्ष्य

इतिहास
डॉ. मोहन चंद तिवारी एक वर्ष पूर्व दिनांक 11अक्टूबर, 2019 को जालली-मासी मोटरमार्ग पर स्थित सुरेग्वेल से एक कि.मी.दूर मुनियाचौरा गांव में मेरे द्वारा खोजी गई कपमार्क ओखली मेरी because नवरात्र शोधयात्रा की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है. महापाषाण काल की यह  कपमार्क मेगलिथिक ओखली उत्तराखंड के पाली पछाऊं क्षेत्र के सांस्कृतिक इतिहास को उजागर करने वाली एक महत्त्वपूर्ण पुरातात्त्विक अवशेष भी है. बुदापैश्त इस ओखली के मिलने का घटनाक्रम भी बहुत रोचक है. राष्ट्रीय इतिहास लेखन की चिंताओं को लेकर नवरात्र यात्रा because के दौरान मैंने जब दिनांक 11 अक्टूबर, 2019 को कपमार्क ओखलियों का सर्वेक्षण करने के लिए 'मुनिया की धार' जाने का मन बनाया और वहां सुरेग्वेल जाकर मैंने अनेक स्थानीय लोगों से ओखलियों के रास्ते के बारे में पूछा तो उन्हें कोई ओखली की जानकारी नहीं थी. मैं फिर भी अपनी पुरानी स्मृतियों के सहा...
पर्वतीय जीवन शैली के अभिन्न अंग हैं उरख्यालि और गंज्यालि

पर्वतीय जीवन शैली के अभिन्न अंग हैं उरख्यालि और गंज्यालि

साहित्‍य-संस्कृति
विजय कुमार डोभाल हमारे पहाड़ी दैनिक-जीवन में भरण-पोषण की पूर्त्ति के लिये हथचक्की (जंदिरि) और ओखली मूस (उरख्यलि-गंज्यालि) से कूटने-पीसने की प्रक्रिया सनातनकाल से चली आ रही है. because यह भी कहा जा सकता है कि ये हमारे पर्वतीय जीवन शैली के अभिन्न अंग हैं, जिनके बिना जीवन कठिन है.ओखल-मूसल और हथचक्की प्राचीन प्रोद्यौगिकी के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं. पत्थर पहले जब गांव के निकट कोई चक्की नहीं होती थी, तब से ही इनका उपयोग अनाज कूटने-पीसने, तिलहनों से तेल निकालने because तथा छाल-छिलकों से चूर्ण बनाने के लिए किया जाता रहा है. पहाड़ी क्षेत्र में प्रायः सड़क-निर्माण करते समय चट्टानों पर ओखली खुदी हुई मिलती हैं, जो पुरातात्विक सामग्री होने के साथ-साथ सभ्यता के विकास और प्रसार का द्योतक भी हैं. इनसे ऐसा प्रतीत होता है कि कभी यहाँ मानव बस्तियां रही होंगी. पत्थर ओखली (उरख्यालि) का निर्माण but...
ना जाने कहां खो गई पोई और चुल्लू की महक

ना जाने कहां खो गई पोई और चुल्लू की महक

उत्तराखंड हलचल
आशिता डोभाल पहाड़ों में बहुत—सी चीजें हमारे बुजुर्गों ने हमें विरासत के रूप में सौंपी हैं पर आज आधुनिकता की चमक—दमक और भागदौड़ भरी जीवनशैली में हम इन चीजों से कोसों दूर जा चुके हैं. हम अपनी पुराने खान—पान की चीजों को सहेजना और समेटना लगभग भूल ही गए हैं. अपने खान—पान में हमने पुराने अनाजों, पकवानों को कहीं न कहीं बहुत पीछे छोड़ दिया है. आज लोग उस खान—पान को ज्यादा पसंद कर रहे हैं जिसमें पौष्टिकता बहुत कम मात्रा में होती है और शरीर को नुकसान अलग से होता है, जिससे हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी आ रही है. हमारा शरीर रोगों से लड़ने के लिए कमजोर होता जा रहा है. जिस खाने में नाममात्र की भी पौष्टिकता नहीं होती है बल्कि शरीर को मजबूत बनाना तो दूर, कमजोर ज्यादा बना रहा है, ऐसे खान—पान को हमने अपने आज खाने में शामिल किया हुआ है. रवांई घाटी एक ऐसी घाटी है जहां पर लोगों ने आज भी अपनी परम्...
ईजा के जीवन में ओखली

ईजा के जीवन में ओखली

उत्तराखंड हलचल, संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—14 प्रकाश उप्रेती ये है-उखो और मुसो. स्कूल की किताब में इसे ओखली और मूसल पढ़ा. मासाब ने जिस दिन यह पाठ पढ़ाया उसी दिन घर जाकर ईजा को बताने लगा कि ईजा उखो को ओखली और मुसो को मूसल कहते हैं. ईजा ने बिना किसी भाव के बोला जो तुम्हें बोलना है बोलो- हमुळे रोजे उखो और मुसो सुणी रहो... फिर हम कहते थे ईजा- ओखली में कूटो धान, औरत भारत की है शान... ईजा, जै हनल यो... अक्सर जब धान कूटना होता था तो ईजा गांव की कुछ और महिलाओं को आने के लिए बोल देती थीं. उखो में मुसो चलाना भी एक कला थी. लड़कियों को बाकायदा मुसो चलाना सिखाया जाता था. उखो एक बड़े पत्थर को छैनी से आकार देकर बनाया जाता था वहीं मुसो मोटी लकड़ी का होता था लेकिन उसके आगे 'लुअक' (लोहे का) 'साम' (लोहे के छोटा सा गोलाकार) लगा होता था. उखो वाले पत्थर को 'खो' (आंगन का एक अलग हिस्सा) में लगाया जाता था. मुस...