कालेकावा और उतरैंणि कौतिक
‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—10
रेखा उप्रेती
माघ की पहली भोर, पहाड़ों पर कड़कड़ाता जाड़े का कहर, सूरज भी रजाई छोड़ बाहर आने से कतरा रहा है, पर छोटे-छोटे बच्चे माँ की पहली पुकार पर उठ गए हैं. आज न जाड़े की परवाह है न अलसाने का लालच. झट से सबने अपनी ‘घुगुती माला’ गले में डाल ली है और छज्जे से बाहर झाँककर एक स्वर में गाने लगे हैं…
काले कावा काले
घुगुती मावा खाले…
पहाड़ छूटे चालीस बरस हो चुके हैं, पर मकर-संक्रांति पर मनाये जाने वाले ‘घुगुती-त्यार’ के दृश्य अब भी आँखों में तिरते हैं….
एक शाम पहले गुड़ के पाग में गूँथे आटे से विभिन्न आकृतियों के घुगुत बनाए जा रहे हैं. लोई को हथेलियों से पतले लम्बे रोल में बदल, उसे ट्विस्ट कर घुगुत का आकार दिया जा रहा है. बच्चे परात को घेर कर बैठे हैं. सबके हाथों में आटे की लोइयाँ हैं. कलाकारी दिखाने का अवसर है.
‘देखो, मैंने दाड़िम का फूल बनाया..’ एक कहता
‘और...