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मेरे हिस्से का आपातकाल

मेरे हिस्से का आपातकाल

संस्मरण
चारु तिवारी अंधेरी काली रातें. तारों से भरा आसमान. कड़कड़ाती ठंड़. चांद भी जैसे सुबह होने का इंतजार कर रहा हो. अभी ‘ब्यांण तार’ आने में देर थी. घाटी में बसे इस छोटे से कस्बे के चारों ओर गांव ही गांव. कहीं कोई आहट नहीं. चिड़ियों ने भी अपना ‘घोल’ नहीं छोड़ा है. रात खुलने के अभी कोई संकेत नहीं. दूर शियारों की ‘टुक्याव ’ (बोलने की आवाज) अभी आयी नहीं. बगल के गांव रावलसेरा के मुर्गे तो और देर में बांग देते हैं. बाहर खेतों में दूर तक बिछी ‘तुषार’ (रात को गिरी ओस का सख्त होना) की सफेद चादर. जहां पानी रुका हैं वहां ‘खांकर’ (पानी का जमना) जम गई है. सोचता था पिताजी इतनी जल्दी उठ क्यों जाते हैं? स्कूल जाने का समय भी दस बजे का है. इतनी जल्दी पिताजी जाते कहां हैं? ईजा से एक-दो बार पूछा तो वह भी टाल गई. बहुत बाद में पता चला कि देश में आपातकाल लगा है. सरकारी कर्मचारियों से सख्ती है. नौकरी बचानी है तो इंदिरा...
असहमति के साथ चलने वाला साथी

असहमति के साथ चलने वाला साथी

स्मृति-शेष
प्रखर समाजवादी एवं उत्तराखंड राज्य आंदोलन के शिल्पी बिपिन त्रिपाठी की जयन्ती (23 फरवरी) पर विशेष चारु तिवारी अल्मोड़ा जनपद के द्वाराहाट विकासखंड में एक छोटी सी जगह है बग्वालीपोखर. वहीं इंटर कालेज में हम लोग पढ़ते थे. कक्षा नौ में. यह 1979 की बात है. पिताजी यहीं प्रधानाचार्य थे. उन्होंने बताया कि पोखर में विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. डीडी पंत आने वाले हैं. पिताजी कर्इ बार उनके बारे में बताते थे. जब वे डीएसबी कालेज, नैनीताल because में पढ़ते थे तब पंतजी शायद वहां प्रवक्ता बन गये थे. हम गांवों के रहने वाले बच्चे. हमारे लिये वैज्ञानिक जैसे शब्दों का मतलब ही किसी दूसरे लोक की कल्पना थी. बड़ी उत्सुकता हुई उन्हें देखने की. बग्वालीपोखर उस समय बहुत छोटी जगह थी. बस कुछ दुकानें. एक रामलीला का मैदान. पुराने पोखर में. उसके सामने एक धर्मशाला. उसके बगल में जशोदसिंह जी की दुकान. वहीं पर एक चबूतरा. ...