चारु तिवारी
उनका नाम हम बचपन से ही सुनते रहे थे. मैं समझता हूं कि हमारी पीढ़ी ने उन्हें एक आइकन के रूप में देखा. कई संदर्भो में. कई पड़ावों में. उन्हें भले ही एक पर्यावरणविद के रूप में लोगों ने पहचाना हो, लेकिन उनका सामाजिक, राजनीतिक चेतना में भी बड़ा योगदान रहा है. पर्यावरण को बचाने की अलख या हिमालय के
हिफाजत के सवाल तो ज्यादा मुखर सत्तर-अस्सी के दशक में हुये. ये सवाल हालांकि अंग्रेजों के दमनकारी जंगलात कानूनों और लगान को लेकर आजादी के दौर में भी उठते रहे है, लेकिन उन्हें बहुत संगठित और व्यावहारिक रूप से जनता को समझाने और अपने हकों को पाने के लिये उसमें शामिल होने का रास्ता उन्होंने दिखाया.मूलांक
आजादी के आंदोलन में पहाड़ से बाहर उनकी भूमिका लाहौर-दिल्ली तक रही. टिहरी रियासत की दमनकारी नीति के खिलाफ उन्होंने आवाज उठाई. एक दौर में उत्तराखंड की कोई हलचल ऐसी नहीं थी, जिसमें उनकी केन्द्रीय और नेतृत्वकारी भूमिका न रही हो.
विशेषकर जल,जंगल और जमीन के सवालों को प्रमुखता से उठाने और हिमालय को बचाने की जो समझ विकसित हुई उसकी अगुवाई में वह रहे. सत्तर के दशक में जब पूरे पहाड़ के जंगलों को एकमुश्त बड़े ईजारेदारों को देने की साजिश हो रही थी, ऐसे समय में पहाड़ के आलोक में पूरी दुनिया को पर्यावरण की चिंता से अवगत कराने वाले मनीषी का नाम है- सुन्दरलाल बहुगुणा.मूलांक
तीन-चार पीढ़ियां उन्हें अपना आदर्श मानती हैं. उनके व्यक्तित्व का फैलाव दुनिया भर में था. आम लोगों से लेकर विश्वविद्यालयों तक. बड़े संस्थानों से लेकर गाड़-गधेरों तक.
जैसा वह हिमालय को देखते थे वैसा ही उनका जीवन भी था दृढ़, विशाल और गहरा. यही वजह है कि आजादी के आंदोलन, टिहरी रियासत के खिलाफ संघर्ष और आजाद भारत में जन मुद्दों के साथ खड़े होकर उन्होंने अपने जीवन के अंतिम दिनों तक इन्हें कसकर पकड़े रखा. हिमालय की हिफाजत की जिम्मेदारी का एक बडा समाज खड़ा करने वाले हिमालय प्रहरी सुन्दरलाल बहुगुणा का अनंत यात्रा के लिये निकलना हम सबके लिये पीड़ादायक है.मूलांक
हिमांतर परिवार की
ओर से सुन्दरलाल बहुगुणा जी को विनम्र श्रद्धांजलि.(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पहाड़ के सरोकारों से जुड़े हैं)