प्रकृति परमेश्वरी के प्रति सायुज्य यानी समर्पणभाव ही योग है

अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस पर विशेष 

  • डॉ. मोहन चंद तिवारी

भारत के लिए यह गौरव का विषय है कि विश्व आज फिर से अपने पूर्वजों के योग चिंतन की प्रासंगिकता को स्वीकार कर रहा है.अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर प्रत्येक देशवासी का कर्तव्य होना चाहिए कि भारत के ज्ञान की इस अमूल्य धरोहर की रक्षा के लिए ऐसा कुछ करे,जिससे कि व्यक्ति और राष्ट्र दोंनों लाभान्वित हों because  और समूचा विश्व जो आज भुखमरी,कुपोषण, आर्थिक विषमता,आतंकवाद,अकाल, सूखा,ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन, कोरोना महामारी जैसी प्राकृतिक आपदाओं की विभीषिकाएं झेल रहा है उनसे भी मुक्त हो सके. तभी अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर प्रचारित किया जाने वाले सूक्ति वाक्य ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया:’की भावना को सही मायनों में विश्व पटल पर चरितार्थ किया जा सकेगा.

योग

भारत के सन्दर्भ में प्रकृति परमेश्वरी के साथ

सायुज्य या संयोग की भावना ही योग है. यहां ‘प्रकृति’ का अर्थ या तात्पर्य व्यापक रूप से ग्राह्य है. जगत का पालन करने वाली परमेश्वरी शक्ति भी प्रकृति है, जिसके असंतुलन से because  प्राकृतिक प्रकोप उत्पन्न होते हैं.मनुष्य की अपनी प्रकृति यानी स्वभाव भी प्रकृति कहलाती है,जिसकी विकृति से तरह तरह के रोग और महामारियां पैदा होती हैं. तीसरी प्रकृति  राज्य की आम जनता कहलाती है,जिसमें विकृति आने पर तरह तरह के जन आक्रोश और आंदोलन जन्म लेते हैं. इसलिए पातंजल योग दर्शन के सिद्धांत केवल योगासन तक सीमित नहीं बल्कि ऊनका सम्बन्ध समूचे ब्रह्मांड की प्रकृति के साथ सायुज्य भाव से जुड़ा है. जब भी मनुष्य का प्रकृति से बिछोह हुआ वियोग को स्थिति पैदा होती है.

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यह भारत के लिए अच्छा संकेत है कि 21 जून को अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाए जाने की घोषणा के बाद से ही पूरे विश्व में हिन्दू धर्मानुयायियों के साथ साथ विश्व के दूसरे समुदाय के लोगों मैं भी भारतीय योग चिंतन के प्रति जिज्ञासा बढ़ी है. पर पिछले सालों के योग समारोह के प्रदर्शनों को देखने से ऐसा लगता है कि अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस के because  आयोजक ज्यादा जोर आसनों के प्रदर्शन पर दे रहे हैं तथा जिन मौलिक सिद्धान्तों के आधार पर भारतीय योगशास्त्र की वैचारिक आधार शिला रखी गई है उनकी सर्वथा उपेक्षा की जा रही है.

सोशल मीडिया में एक बात यह भी उभर कर आई है कि जो योगासन सिखाए जा रहे हैं उनका पातंजल योग से कोई लेना देना नहीं उन्हें ‘हठयोग’ या शारीरिक व्यायाम की संज्ञा दी जा because  सकती है.इसी प्रकार ‘सूर्य नमस्कार’ आसन भी पातंजल योगसूत्र का हिस्सा नहीं और न ही इस आसन का अभ्यास करते हुए सूर्य सम्बंधी मंत्रों का प्रयोग करने का विधान योगशास्त्र के प्राचीन ग्रन्थों में कहीं  मिलता है.

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निस्संदेह,पातंजल योगदर्शन आज भी साधकों के लिये एक बहुत ही उपयोगी शास्त्र है. योगी चित्त पर अधिकार पाने के लिए शरीर और उस को संचालित करने वाली इन्द्रियों, को वश में करने का जो प्रयत्न करता है उस प्रक्रिया को योगदर्शन में  ‘आसन’ और ‘प्राणायाम’ कहा जाता है. ‘आसन’ से शरीर निश्चल बनता है. पतंजलि ने because  ‘आसन’ के बारे में साफ कहा है कि ‘स्थिरसुखमासनम्’ अर्थात् जिस मुद्रा में देर तक बिना कष्ट के सुखपूर्वक बैठा जा सके वही आसन श्रेष्ठ है. ऐसा लगता है कि ज्यादा उछल कूद वाले आसनों को पतंजलि श्रेष्ठ नहीं मानते थे. समय के साथ-साथ आज योग का महत्व दिन-प्रतिदिन बढता जा रहा है.

वर्त्तमान समय में हर व्यक्ति मानसिक तनाव के दौर से से गुजर रहा है. इसी तनाव को दूर करने के लिए आज हर कोई योग की ओर आकर्षित हो रहा है. इसलिए आधुनिक योग के because  आचार्यों को चाहिए कि वे भारतीय योगशास्त्र की पुरातन मर्यादाओं की रक्षा करते हुए योगासनों को ऐसे सरल तरीकों से सिखाएं जिससे कि प्रत्येक धर्म के व्यक्ति आकृष्ट हो सकें और वे धार्मिक आस्थाओं की बाध्यता से भी मुक्त रहें.

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दरअसल, योग केवल आसनों के माध्यम से किया जाने वाला शारीरिक व्यायाम का नाम नहीं है बल्कि यह, शरीर को प्रकृति के साथ संतुलन बैठाने की एक ऐसी वैज्ञानिक प्रक्रिया भी है जो मानसिक तनावों के कारण उत्पन्न होने वाले मनुष्य के शारीरिक विकारों को शान्त करता है एवं मनुष्य को आध्यात्मिक विकास की प्रेरणा भी देता है.because  आज भारत के संदर्भ में पश्चिमी शैली के रहन सहन और खान पान के तौर तरीकों से शारीरिक रोगों के साथ-साथ मानसिक विकृतियों और तनावों में जो लगातार बढ़ौतरी हुई है उन्हें भारतीय योग के अष्टांग-मार्ग पर चल कर ही सुधारा जा सकता है. पातंजल योगसूत्र के अनुसार योग के आठ अंग हैं-

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1.यम 2.नियम‚ 3.आसन‚ 4.प्राणायाम, 5.प्रत्याहार‚ 6.धारणा‚7.ध्यान और 8.समाधि.

वर्त्तमान संदर्भ में पातंजल योगसूत्र के अष्टांग योग की व्याख्या दो दृष्टियों से की जा सकती है व्यक्ति के धरातल पर और राष्ट्र के धरातल पर. ‘आसन’ और ‘प्राणायाम’ व्यक्ति के शरीर because  और मन को स्वस्थ और निर्मल बनाते हैं तो ‘यम’ और ‘नियम’ उसके नैतिक चरित्र को ऊंचा उठाते हैं. पातंजल योगसूत्र में ‘यम’ के अंतर्गत  जिन पांच नैतिक आदर्शों को स्वीकार किया गया है वे हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (योगसूत्र, 2-30).

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महात्मा गांधी ने योगदर्शन के इन्हीं पांच नैतिक आदर्शों को जीवन में उतार कर स्वतंत्रता का संग्राम लड़ा था और विश्व को यह दिखा दिया कि भारत का योगचिंतन आज भी अन्तर्राष्ट्रीय because  धरातल पर उतना ही प्रासंगिक है जितना वह प्राचीन काल में था. कुछ और पीछे जाएं तो भगवान बुद्ध और महावीर स्वामी का समाज दर्शन भी योग के इन्हीं नैतिक आदर्शों की आधार शिला पर टिका है. आज भारत के आध्यात्मिक विकास के लिए योगदर्शन के इन नैतिक आदर्शों को अपनाने की भी बहुत जरूरत है.

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भारत की सभ्यता व संस्कृति,जो कि प्रकृति तथा मनुष्य के स्नेहपूर्ण रिश्तों पर टिकी है, इसका तात्विक विवेचन भी हमें योग के सहयोगी दर्शन ‘सांख्य’ में मिलता है जिसके अनुसार प्रकृति ही प्रधान रूप से आराध्या है. पर चिन्ता की बात है कि आज प्राकृतिक संसाधनों का निर्ममता पूर्वक दोहन विश्व पर्यावरण को बिगाड़ने का बहुत because  बड़ा कारण बना हुआ है. लगभग आठ हजार वर्ष पुराने इस भारत राष्ट्र के पास योगचिंतन का एक समृद्ध इतिहास है जिसके बलपर मानव मूल्यों का सर्वांगीण विकास किया जा सकता है और अष्टांग योग की आचार संहिता के माध्यम से विभिन्न राष्ट्रों के मध्य ऐसी भावना पैदा की जा सकती है जिससे शक्तिशाली राष्ट्र कमजोर और पिछड़े राष्ट्रों के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन बंद कर दें.

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यह कैसी विडंबना है कि एक ओर समूचे भारत में योगदिवस मनाया जा रहा है तो वहां दूसरी ओर उत्तराखंड हिमालय में हमारी राज्य सरकारों के द्वारा जल,जंगल और जमीन का अन्धविकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का निर्ममतापूर्वक ऐसा संदोहन किया जा रहा है कि पूरे राज्य में आज हिमालय की गंगा, यमुना,काली अलखनन्दा, because  कोसी, सरयू आदि तमाम नदियां उफान पर हैं और आए दिन हिमालय के ग्लेशियर टूट कर अपना आक्रोश प्रकट कर रहे हैं. किन्तु हर वर्ष हिमालयीय राज्यों के द्वारा तबाही झेलने के बाद भी केंद्र सरकार और राज्य सरकारें आपदा प्रबंधन का स्थायी समाधान आज तक नहीं निकाल पाईं. पूरे साल हिमालय को तोड़ने और फोड़ने का अन्ध विकासवाद हावी है और लोग इस तबाही के कारण पलायन के लिए मजबूर हैं.

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प्रकृति का उपासक एक प्राचीन देश होने के कारण भारत इस अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर पूरे विश्व को यह संदेश तो दे ही सकता है कि प्रकृति संरक्षण से ही विश्व का because  कल्याण संभव है ताकि ग्लोबल वार्मिंग और  जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न इस तनाव को शांत किया जा सके और अन्ध विकासवाद के आसुरी तेवरों से विश्व पर्यावरण के रक्षक हिमालय प्रकृति की रक्षा हो सके.

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आज अंतरराष्ट्रीय योग डिक्स पर because  हम विश्व पर्यावरण की रक्षिका प्रकृति परमेश्वरी से  प्रार्थना करते हैं कि समूचे विश्व से प्राकृतिक आपदाओं का प्रकोप शांत हो कोरोना जैसी महामारियां नष्ट हों और मनुष्य प्रकृति का उपासक बन कर विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन बनाते हुए मानव कल्याण की योजनाओं को कार्यान्वित करे-

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“नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नम:.
नम:प्रकृत्यै भदायै नियता:प्रणता: स्म ताम्..”

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अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर सभी मित्रों को हार्दिक शुभकामनाएं !!

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के because  रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)

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