प्रो. गिरीश्वर मिश्र
स्वाधीनता क्या है? इसका अर्थ और उसका स्मरण समय बीतने के साथ धूमिल न होने पाए, राष्ट्र स्वाधीनता के मूल्य को पहचान सके तथा इसके लिए जिन्होंने सर्वस्व न्योछावर कर दिया था
उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करे इसके लिए देश स्वतंत्रता का ‘अमृत महोत्सव’ मना रहा है. यह इसलिए भी जरूरी है कि आज के भारतीय समाज के सदस्यों में अधिकाँश का जन्म 1947 के बाद हुआ था. उसके पहले जन्मे लोगों की संख्या कम होती जा रही है और स्वतंत्रता के अभाव की पीड़ा और अंग्रेजों के अत्याचार को सह चुके लोगों की दुखान्तिका भी दृष्टि से ओझल हो रही है हालांकि जलियांवाला बाग़ जैसे कई पुरावशेष अभी भी उस अत्याचार की मुखर गवाही देते हैं.अंग्रेजों के शासन के अधीन रहते हुए भारत के सामाजिक-आर्थिक और मानसिक दुनिया का बदलाव जिस तरह हुआ उसके बीच देश के लिए स्वतंत्रता अर्जित करना एक बड़ी चुनौती थी पर बीसवीं सदी के आरंभिक दशकों तक पहुंचते हुए देश की आंतरिक परिस्थितियाँ में बदलाव आया और अंतरराष्ट्रीय पटल पर भी विश्वयुद्ध जैसी
भीषण और व्यापक स्तर पर उथल-पुथल मचाने वाली घटनाओं के बीच अंग्रेजों पर यह दबाव बना कि वे भारत को आज़ाद करें. भारतीय समाज भी आतंरिक विविधताओं के बीच अंग्रेजों के दमन-चक्र से आहत होता हुआ आपसी भेदों को परे धकेल कर अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर मजबूर करने के लिए महात्मा गांधी के नेतृत्व में देशव्यापी आन्दोलन में दृढ़ता के साथ शरीक हुआ. वह देश के कल्याण में अपना कल्याण देखना लगा था.देश भक्ति के जज्बे के साथ हर जाति, धर्म, और क्षेत्र की जनता ने स्वतंत्र भारत का एक महास्वप्न देखा था . स्वतंत्रता को स्वयंप्रभा और समुज्वला मानते हुए देशवासियों के मन में यह कल्पना उभर रही थी कि अपना राज स्थापित होने पर शासक और शासित के बीच का भेद ख़त्म हो जायगा, आम जनों की गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, अशिक्षा, अत्याचार, भेद-भाव जैसी अभाव पैदा करने वाली परिस्थितियां दूर होंगी. सारे बंधन कट जांयगे और नागरिक जीवन में शासन–प्रशासन से घूसखोरी, अड़ंगेबाजी, बेईमानी और भ्रष्टाचार जैसी बाधक कुप्रथाएं समाप्त हो जांयगी. मन ही मन लोग स्वराज्य का अर्थ ‘सुराज’ यानी अच्छा राज लगाने लगे थे. दुःख भरे दिन दूर होने की लालसा तीव्रता से हिलोरें लेने लगी थी. स्वतंत्रता का पथ प्रशस्त और पुण्य है इसलिए उस पर निरंतर आगे
ही बढ़ते जाना है. स्वतंत्रता मिली पर देश के विभाजन और उसके साथ हुए भीषण रक्तपात और लाखों लोगों के विस्थापन के दंश के साथ. साथ ही इस क्षेत्र अशांति और अस्थिरता का बीजारोपण कर गया.स्वतंत्रता के लिए भारतवासियों ने बड़ी कुर्बानियां दी थी. स्वतंत्रता आन्दोलन के दौर में नेता लोग ‘सुराजी’ कहलाते थे और घर-परिवार की चिंता छोड़ देश की सेवा से जुड़ जाते थे. तब नेतागिरी करना एक मुश्किल, साहसपूर्ण और धीरज का भरा काम था जिसमें अनिश्चय वाली, दुःख और कठोर जीवन की राह होती थी. उनके लिए शारीरिक यातना और जेल जाना तय रहता था. चूंकि उनका कोई निजी स्वार्थ नहीं होता था इसलिए वे निडर हो कर जनता के पक्ष में खड़े रहते थे
और राजनीति के क्षेत्र में आना उनके लिए मानवीय मूल्य के प्रति आत्मीय लगाव और देश के लिए निर्व्याज समर्पण की भावना का नतीजा होता था. इस अर्थ में नेता और साधु-संन्यासी में कोई ख़ास फर्क नहीं होता था. दोनों नि;स्पृह भाव से लोकहित यानी दूसरों के भलाई के काम करने में जुटे रहते थे.यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि स्वतंत्रता की लड़ाई में शामिल सभी बड़े नेता मेधावी, पढ़े-लिखे और प्रबुद्ध लोग थे. उनमें कई विदेश में शिक्षित थे तो बहुतेरे पेशे से वकील थे. परन्तु एक बात सब में थी कि निजी जीवन में तकलीफ उठा कर वे उस राजनीति के परिसर में आए थे जहां चुनौतीभरा वर्त्तमान और अनिश्चित भविष्य प्रतीक्षा कर रहा था. पर सबके मन में देश के प्रति अविचल निष्ठा थी और उसके
लिए कुछ भी कर गुजरने की ख्वाहिश थी. उनके मन में भारत एक भू भाग मात्र नहीं था. भारत को वे एक राष्ट्र समझते थे जिसमें एक दूसरे के साथ रहने की इच्छा और आकांक्षा थी. इस तरह की एक प्रबल राष्ट्रीय भावना उनके मन में हिलोरें ले रही थी. भारतीयता का भाव भी उनके मन में भरा था. तब भारतीयता का आशय सबके बीच किसी एक का वर्चस्व नहीं बल्कि सब के बीच सामंजस्य, समन्वय और संगति में देखा जाता था.स्वतंत्र भारत ने तीन चौथाई सदी के दौरान बहुत सी चुनौतियों का सामना किया है. शिक्षा, खाद्यान्न, यातायात, परिवहन, अंतरिक्ष विज्ञान, कृषि,डेयरी स्वास्थ्य और विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में खासी प्रगति दर्ज की है और आत्मनिर्भरता की दिशा में कदम बढे हैं. देश में अनेक संस्थाओं का जाल बिछा है और आधार संरचना मजबूत की गई है . वर्त्तमान सरकार ने ग़रीबों और समाज के उपक्षितों के कल्याण के लिए बहुत से प्रयास शुरू किये हैं जिनमें सहायता राशि का सीधे खाते में पहुँचना, उज्ज्वला योजना, आवास योजना, कृषि बीमा आदि की योजनाएं प्रमुख हैं. शिक्षा की महत्वाकांक्षी नीति का क्रियान्वयन आरम्भ हो चुका है.
परन्तु भारत की जनसंख्या को देखते हुए अभी भी बहुत कुछ करना शेष है. स्वतंत्र होने के बाद देश को युद्ध भी लड़ने पड़े, बड़ी सेना रखनी पड़ी और सामरिक तैयारी बढानी पड़ी . कोरोना की महामारी के बीच सीमा पर चीन की कारवाई की जबाबी कारवाई हम सब ने देखी है. हमने यह भी देखा कि सारी कठिनाइयों के बावजूद , कोविड -19 से पार पाने के लिए हर प्रयास किये गए और अब पचास करोड़ से अधिक लोगों का टीकाकरण हो चुका है और स्थिति नियंत्रण में आ रही है.यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि संसद की गरिमा और समाज के प्रति अपने दायित्व भुला कर आए दिन जिस तरह का बर्ताव सामान्य प्रवृत्ति होती जा रही है जिसका नुकसान पूरा देश भुगतता है.
सताकामी और सत्ताधारी राजनेताओं के बीच लोकप्रियता की चाह तो थी परन्तु लोक-संग्रह की भावना तिरोहित होती जा रही है. वे राजसी ठाट बनाने, संसाधनों का दुरुपयोग करने संपदा हथियाने पर जोर देते हैं.
स्वतंत्रता मिलने के बाद स्थितियाँ लगातार बदलती रही हैं और दोषारोपण की जगह निर्माण और सकारात्मक पहल जरूरी है. फिर भी यह सबके साझे अनुभव की बात है कि जो कुछ किया गया उससे अधिक संभव था और हमारी अपनी दुर्बलताओं के कारण कुछ समस्याओं का यथोचित समाधान न हो सका और संसाधनों का दुरुपयोग भी हुआ. स्वतंत्रता पाने की प्रेरणा की जगह जल्दी ही स्वतंत्रता को भोगने की स्वच्छंद वृत्ति बलवती होने लगी. स्वतंत्र होना मुक्त होना मान लिया गया जब कि यह मुक्ति अपना मार्ग चुन कर उस पर चलने के संकल्प से जुड़ी थी. स्वतंत्रता किस लिए? यह प्रश्न बिसरता गया सामाजिक जीवन पर दृष्टिपात करें तो यह साफ़ दिखने लगा है कि अब परिस्थितियाँ और तेजी से बदल रही हैं. आस-पास की दुनिया में हो रही घटनाओं के बीच जो प्रवृत्तियाँ उभरती नजर आती
हैं उनमें प्रमुख हैं आत्मकेन्द्रिकता, सृष्टि से विमुखता, प्रपंच और मिथ्या का आग्रह, भ्रष्टाचार और क्षुद्र व्यवहार. इन प्रवृत्तियों के कई छद्म रूप लोग अपनाते जा रहे हैं. राष्ट्रीय और सांस्कृतिक मूल्यों को छोड़ कर लोग भौतिक जीवन को संपन्न और समृद्ध करने का नया पैमाना अपनाने लगे हैं. लोगों के संस्कार बदल रहे हैं और कई अर्थों में उनका व्यवहार सन्दर्भहीन होता जा रहा है. समाज में नकारात्मकता, हिंसा, अविश्वास और असामाजिकता की प्रवृत्तियाँ बढ दिनों-दिन बढ़ रही हैं और पारस्परिकता घट रही है पर इन प्रवृत्तियों को ठीक ठहराने के बहाने हम ढूढने लगे हैं.उच्च पदासीन माननीय मंत्री, न्यायाधीश, और अधिकारी कदाचार के मामलों में जिस तरह संलिप्त पाए जा रहे हैं और उद्योग जगत में जिस तरह का आर्थिक अपराध बढ़ रहा है वह नैतिक – चारित्रिक बल के ह्रास को दर्शा रहा है. व्यवस्था को चलाने के लिए न्यायपालिका निर्भय और निष्पक्ष होनी चाहिए. उसे आम जनों, अल्पसंख्यक, गरीब
और हाशिये के लोगों के हितों की सुरक्षा करने वाला होना चाहिए. पर कठोर सच्चाई यही है कि न्याय अभी भी कमजोर आदमी की पहुँच से बाहर है. उसमें गांधी जी के शब्दों में ‘ देशी कुछ भी नहीं है न भाषा, न वेश भूषा न ही चिंतन’. यह ‘खर्चीली ऐयाशी’ है. आज व्यक्तिगत और सामाजिक न्याय कितना मिल पाता है कहना मुश्किल है. पूरी प्रक्रिया निर्णयप्रधान है न कि समाधानप्रधान. इसी तरह लोक भाषा की उपेक्षा और अंग्रेजी के उपयोग की प्रमुखता को बनाए रख कर देश के लोकतंत्र को सीमित और सांस्कृतिक गुलामी का पोषण किया जाता रहा है.राजनैतिक दलों का आचरण गैर जिम्मेदार होता जा रहा है और उनकी प्रतिबद्धता देश के साथ न हो कर व्यक्ति, दल या निहित स्वार्थ के प्रति होने लगी है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि संसद की गरिमा और समाज के प्रति अपने दायित्व भुला कर आए दिन जिस तरह का बर्ताव सामान्य प्रवृत्ति होती जा रही है जिसका नुकसान पूरा देश भुगतता है.
सताकामी और सत्ताधारी राजनेताओं के बीच लोकप्रियता की चाह तो थी परन्तु लोक-संग्रह की भावना तिरोहित होती जा रही है. वे राजसी ठाट बनाने, संसाधनों का दुरुपयोग करने संपदा हथियाने पर जोर देते हैं. आज सरकार चलाने का खर्चा बेतहाशा बढ़ गया है. जीवन में आडम्बर और पाखण्ड बढ़ता जा रहा है. हम यह भूलते जा रहे हैं कि स्वतंत्रता का लक्ष्य कि समानता, समता और न्याय की व्यवस्था कायम हो, आचरण की शुचिता और आपसी सहयोग से ही पाया जा सकता है.आज स्वतंत्रता की संवेदना जगाने के लिए ‘भारतीयों भारत जोड़ो’ का नारा बुलंद करने की आवश्यकता है और यह भी कि हम सब देश के निर्माण के लिए अपनी योग्यता
और क्षमता का उपयोग करें. यह स्मरण रखना होगा कि देश की उन्नति में ही अपनी निजी उन्नति भी है. उससे अलग निजी उन्नति की संकल्पना संकुचित और अंतत: आत्मघाती सिद्ध होती है.
इस बीच बाजार की प्रमुखता ने हमारी मानसिकता पर बड़ा हमला बोला है. हर चीज , यहाँ तक कि नाते-रिश्ते भी बिकाऊ वस्तु की श्रेणी में रख कर तौले जाने लगे हैं और उनका सौदा हो रहा है. दूसरा प्रभाव प्रौद्योगिकी का है जिसके चलते आदमी का एक यंत्र-मानव में रूपांतरण हो रहा है. मनुष्य ने अपनी स्वतंत्रता के लिए यंत्र का आविष्कार किया परन्तु अब वही यंत्र मनुष्य को अधिकाधिक नियंत्रित करता जा रहा है. फेस बुक पर या फेस टाइम पर मुखदर्शन प्रत्यक्ष भेट का स्थान तो नहीं ले सकता. और पड़ोस कौन कहे घर में भी साथ भी नहीं रहते. घर में प्रसन्नता, विश्वास और शान्ति कम होती जा रही है.
सांस्कृतिक गुणवत्ता का विकास जिसमें जीवन समृद्ध हो और प्रकृति जीवंत हो यह बात विस्मृत होती जा रही है. हम यह विचार नहीं कर पा रहे हैं कि यंत्र से गुण का संबर्धन हो रहा है या नहीं या कि वे मनुष्य को विस्थापित कर रहे हैं. ऐसे में मानवीय संवेदनशीलता के भाव कमजोर पड़ते जा रहे हैं. अब सुविधाएं आवश्यकताएं बन रही हैं और कृत्रिम आवश्यकताओं की सूची लम्बी होती जा रही है. इन सबके बीच लोभ बढ़ता जा रहा है जिसकी आड़ में हर तरह के अनैतिक कदम की छूट ली जा रही है. धरती की संपदा सीमित है इसलिए यह आचरण आत्मघाती है. यह ध्यान में रखते हुए हमें अपने संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग करना होगा और यथा संभव पुनर्नवीकरण की संभावना तलाशनी होगी.आज आवश्यकता है कि सारे देशवासी स्वाधीनता के भाव के साथ अनिवार्यत: जुड़े हुए कर्तव्य की पुकार को भी सुनें और क्षेत्रीय अस्मिता से ऊपर उठ कर स्वयं को अखिल भारतीय पहचान दें.
आज स्वतंत्रता की संवेदना जगाने के लिए ‘भारतीयों भारत जोड़ो’ का नारा बुलंद करने की आवश्यकता है और यह भी कि हम सब देश के निर्माण के लिए अपनी योग्यता और क्षमता का उपयोग करें. यह स्मरण रखना होगा कि देश की उन्नति में ही अपनी निजी उन्नति भी है. उससे अलग निजी उन्नति की संकल्पना संकुचित और अंतत: आत्मघाती सिद्ध होती है.(लेखक शिक्षाविद् एवं पूर्व कुलपति, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा हैं.)