वियोगी मन की ‘आह’ से नहीं बल्कि ‘बेचैनी’ से उपजी कविताएँ 

  •  प्रकाश उप्रेती

यह दौर कहन का अधिक है. सब कुछ एक साथ कह जाने की होड़ में बहुत कुछ छूट रहा है. साहित्य में भी यही परम्परा दिखाई दे रही है. यहाँ भी ठहराव और अर्थवता की जगह आभासी दुनिया ने ले ली है. रामचन्द्र शुक्ल जिस कवि कर्म को समय के साथ कठिन आंक रहे थे वह आज ज्यादा आसान दिखाई दे रहा है. ठीक इससे पहले की सदी जिसे कथा साहित्य की सदी कहा गया. वह जीवन के जटिल और संश्लिष्ट यथार्थ को अभिव्यक्त करने में काफी हद तक सफल रही. कविता इसमें कहीं चूक गई. इसीलिए सदी के अंत तक एक ओर ‘कविता के अंत’ की बात हो रही थी तो दूसरी तरफ ‘कविता की वापसी’ की घोषणा हो रही थी. आलोचक कविता का अंत लिख रहे थे तो वहीं कवि, कविता की वापसी करवा रहे थे. एक ही समय में कविता दो राहों पर थी. कहा जा रहा था कि कविता संचार के मकड़जाल में तेजी से बदलते समय को पकड़ने में चूक रही है और वह अपने समय के यथार्थ को नहीं पकड़ पा रही है. गद्य की भांति ही डिस्कोर्स खड़ा करने में कविता की भूमिका को भी सीमित दायरे में ही देखा जा रहा था. कविता की आलोचना एक ख़ास ढर्रे के तहत ही हो रही थी. कम ही आलोचक थे जो कविता में लगी गांठों को खोलकर अर्थ की व्यापकता को उद्घाटित कर रहे थे. ऐसे में सपाट और विमर्श की लकीर पर चलने वाली कविता को महिमामंडित किया जा रहा था. खासकर अस्मिता के आंदोलन का जो प्रभाव गद्य पर पड़ा उसकी छाया को ही कविता में भी खोजा जाने लगा.

इसी खोज के चलते उक्ति भंगिमा और शब्द चमत्कार का निरूपण ही कविता कही जाने लगी. नए लेखकों और लेखिकाओं तथा युवा व मार्गदर्शक आलोचकों ने काव्य के इन्हीं प्रतिमानों के आधार पर अपने-अपने तरीके से व्याख्या की. इस बीच गद्य और पद्य लेखन में युवा पीढ़ी आई जिसने इन प्रतिमानों को नकारते हुए एक नई राह को पकड़ा. यह नई राह थी अपने समय के प्रश्नों से टकराते हुए आगत समय को चिन्हित करना. इनके गद्य और पद्य में सिर्फ यथार्थ नहीं था बल्कि वह क्षणभंगुर वर्चुअल रिएलिटी भी थी जिसको लेकर तरह-तरह के प्रश्न खड़े किए जाते हैं. इसी पीढ़ी की एक महत्वपूर्ण लेखिका हैं, स्मिता सिन्हा. हाल ही में ‘बोलो न दरवेश’ नाम से उनका कविता संग्रह प्रकाशित हुआ है. इस संग्रह की कविताएँ कोलाहल के बीच चुप्पी और बेचैनी को दर्ज करती हैं.

इस कविता संग्रह में कई तरह के स्वर हैं. एक तरफ जहाँ विकास की विसंगति है तो वहीं दूसरी तरफ संघर्ष की बुनावट से भरी कविताएँ हैं. एक तरफ दरवेश श्रृंखला की 7 कविताएँ हैं जो संवाद, साहचर्य और प्रश्नांकित करती हुई स्त्री के पक्ष से कई सवाल उठाती हैं तो वहीं दूसरी तरफ प्रेम की ऊष्मा से भरी कविताएँ हैं. प्रेम यहाँ सिर्फ देह नहीं है और न ही हिंदी फिल्मों की रोमांटिक कल्पना वाला स्वरूप है बल्कि इन कविताओं में प्रेम प्रतिरोध और सृजन की संभावनाओं से पूर्ण है. “मैं लिखूंगी प्रेम/उस दिन /जिस दिन/ नदी करेगी इनकार/ समुंदर में मिलने से/ सारस भूलने लगेंगे/ पंखों का फड़फड़ाना/ और/बंजर होने लगेगी धरती/ मैं लिखूंगी प्रेम/उस दिन/ जिस दिन/ असहमतियों की जमीन पर/ उगेंगे नागफनी के पौधे/ मरने लगेंगी/ संभावनाएं जीवन की/और/ घुटने लगेगी हमारी हँसी/किसी कोहरे की धुंध में”… असहमति की  कोख से उपजता यह प्रेम कई तरह की संभावनाओं को जन्म देता है. इन कविताओं में प्रेम, समय, संघर्ष, अस्मिता, स्त्री की आवाज और यथार्थ, विमर्श के खोल में लिपटकर नहीं आता बल्कि सीधे संदर्भों के साथ आता है.

21वीं सदी द्वंद्वों की सदी है. साहित्य, समाज, राजनीति और संस्कृति में यह द्वंद्व स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है. साहित्य में ‘बनाम’ का विमर्श भी इस सदी के केंद्र में रहा. विचारधारा, रूप-कथ्य और  सैद्धांतिक निरूपण जैसी बहसें 20वीं सदी का अंत होते- होते किनारे लग गई और केंद्र में बनाम और द्वंद्व की बहस आ गई. इस बहस को कविता ने मुखरता प्रदान की.विकास बनाम विनाश जैसी बहसें भूमंडलीकरण के दौर में उभरती हैं लेकिन उन्हें मुकम्मल तौर पर साहित्य में केंद्रीयता 21वीं सदी में ही मिलती है. इस संग्रह की कविताएँ भी 21वीं सदी के दूसरे दशक की हैं. यहाँ विकास और विनाश के बीच की बहस के कई संदर्भ संवेदनात्मक रूप से आए हैं. इन कविताओं में विकास की आँधी और विनाश का रुदन नहीं है बल्कि इनके कारण उपजी रिक्तता है. यह रिक्तता मनुष्य, जीव-जंतु और प्रकृति हर जगह है-  “पगडंडियों को प्यार था घास से/ घास को ओस से/ ओस को नंगे पैरों से/ एक दिन…/उन पैरों ने/ जूते पहने/ पगडंडियों को/ कोलतार पिलाया गया/ कोलतार ने घास को निगल लिया/ आगोश में ले लिया/और अगली सुबह/ओस की बूंदें/ अपना पता भूल गयीं”. बहुत मामूली सी लगने वाली चीजों का जीवन में बड़ा महत्व होता है. उनके नष्ट होने की पीड़ा शूल सी चुभती है. विकास की आंधी के बीच बहुत कुछ देखा-अनदेखा खत्म हो गया. उसी रिक्तता की पीड़ा इन कविताओं में दर्ज है. अनियंत्रित  विकास की होड़ में बहुत कुछ है जो कुचला जा रहा है. बहुत तेजी से मनुष्य के भीतर और बाहर काफी कुछ रिक्त हो रहा है. उस रिक्तता को विकास की चकाचौंध में कम ही लोग देख पा रहे हैं- “आए दिन राह चलते/ सड़क पर/ गिलहरियों के लोथड़े पड़े देखती हूँ/ नेवले लहूलुहान हो मरे मिलते हैं/ नज़र के सामने अचानक/ बिजली के तार पर बैठी मैना/ गिर कर दम तोड़ देती है/ रेवले ट्रैक पर हाथियों के कट जाने की खबर/बेचैन करती है/कहते हैं पहिए ने विकास को गति दी थी/ बिजली ने दुनिया को एक नए युग में पहुंचा दिया/यह विकास इतना निर्मम है/ कि सबका जीवन ही शेष होता जाए/मानव ने क्या कभी सोचा था ?/क्या अब भी हम सोचेंगे !”. विकास की इस निर्ममता के कई अवशेष इस कविता संग्रह में हैं. सब कुछ पा लेने की होड़ में हमने कितना कुछ खो दिया है उसी का आईना ये कविताएँ हैं. जल, जंगल, जमीन और जीवन के कई रूप इसी विकास की भेंट चढ़ गए- “नक़्शे में अब भी नदियाँ उतनी ही लंबी/ गहरी तथा चौड़ी दिखती हैं/ जबकि जमीन पर अधिकतर के सिर्फ जीवाश्म बचे हुए हैं/ कितनी विलुप्त, कितनी सूख चुकी हैं/ पहाड़ों की ऊँचाई कायम है/ जबकि लगातार सड़क, बांध और भवन बनाए जा रहे हैं/ जंगल के पेड़ों की कटाई की तसदीक ये नहीं कर पा रहे हैं”. बहुत कुछ अब जीवाश्म के रूप में ही मौजूद है.

अपने समय को दर्ज करना जोखिम भरा होता है. क्योंकि समय के सवालों से आँख चुराना तो आसान है लेकिन टकराना मुश्किल है. इस टकराने के काव्यात्मक खतरे तो हैं ही साथ ही साथ सामाजिक और राजनैतिक खतरे भी हैं. लेकिन यहाँ समय के सवालों से टकराने का जोखिम कवियत्री उठाती हैं. वह भी ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ हुए बिना- “देखो उस भीड़ को/ जिन्होंने निगल लिया है अपनी आत्मा को/ या नियति पर अंकित अंधकार को/ देखो वे भिंची हुई मुट्ठियों/तने हुई भौंहें/ प्रतिशोध में लिप्त कठोर चेहरे/ और मौन, खौफ, क्षोभ/ और गहराते रक्त के खालिश ताजे धब्बे/यह भीड़ अब नहीं समझना चाहती/ ककहरे, प्रेम या गीत/ उसे सब विरुद्ध लगते हैं अब/ धरती, सागर, पहाड़, कल्पना या कि कलम/तुम देखना हमेशा यही भीड़ हाँक दी जाती है सलीब पर/ किसी मंदिर या किसी मस्जिद की तरफ/ इससे पहले कि वो आ पाए हमारे करीब/ थूक पाएं हमारे मुँह पर”. जनतंत्र जब भीड़तंत्र में तब्दील कर दिया जाता है तो नागरिक होने की चेतना और बोध खत्म हो जाता है. फिर उसे कहीं भी हाँका जा सकता है. इस दौर में ध्रुवीकरण की लकीर और गाढ़ी हुई है. समाज धार्मिक कट्टरता के घेरे में है. राजनीति इस घेरे की धुरी है. उसी धुरी की तरफ़ कविता संकेत करती है.

इस संग्रह की कविताओं का कोई एक थीम नहीं है. यहां समय की हलचल भी दर्ज है तो जीवन की रिक्तता भी. समय के बदलते मूल्य और अर्थ को भी कई कविताओं में देखा जा सकता है. ‘मेरे वक्त की औरतें’ और ‘दरवेश’ श्रृंखला की कविताएँ स्त्री विमर्श के बने बनाए ढर्रे को भी तोड़ती हैं. सेल्फ को दूर रखकर नहीं बल्कि केंद्र बनाकर सवाल उठाती हैं. इस कविता संग्रह में अलग- अलग रूपों, प्रसंगों और संदर्भों के साथ जीवन की मामूली सी लगने वाली चीजों को बचाने की जद्दोजहद भी है. वो मामूली सी चीजें जिन्हें हम अधिकांशतः बड़ी चीजों के लिए छोड़ते हुए चलते हैं. कवयित्री जानती हैं कि ये मामूली समझी जाने वाली वस्तुएं या घटनाएं ही असल में जीवन को अर्थ प्रदान करती हैं-  “सब कुछ खत्म /होने के बाद भी/ तुम बचा लेना/ थोड़ी सी हंसी/ बस उतना ही/ जितना जरुरी हो/ किसी बंजर पड़ी/ धरती के लिए नमी/बस उतना ही/ जितने जरुरी हैं/ नील सपने/ आँखों के लिए/ बस उतना ही /कि हम खड़े रह पाएं इस भयावह वक्त के विरुद्ध”. जरुरी है कि जहाँ बहुत कुछ नष्ट किया जा रहा है उसके विरुद्ध हम सीधी रीढ़ के साथ खड़े हो सकें. यह थोड़ी सी हँसी का बचना जीवन के होने का एहसास है. जहाँ बहुत कुछ खत्म हो गया या हो रहा है वहां जो बचा है उसे अधिक ताकत के साथ बचाने की जरूरत है. जो अभी भी बाकी है उसे बचा लेने की ये एक कोशिश है. ‘बोलो न दरवेश’ संग्रह की कविताएँ ‘वियोगी मन’ के ‘आह’ से उपजी कविताएँ न होकर बेचैनी से उपजी कविताएँ हैं.

किताब: बोलो न दरवेश (कविता संग्रह)
लेखिका- स्मिता सिन्हा
प्रकाशक- सेतु प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य – 150

(लेखक हिमांतर के कार्यकारी संपादक एवं दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. पहाड़ के सवालों को लेकर मुखर रहते हैं.)

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