कहानी
- डॉ. अमिता प्रकाश
यही नाम था उसका शुभदा! शुभदा-शुभता प्रदान करने वाली. शुभ सौभाग्य प्रदायनी. हँसी आती है आज उसे अपने इस नाम पर और साथ ही दया के भाव भी उमड़ पड़ते हैं उसके अन्तस्थल में, जब वह इस नाम को रखने वाले अपने पिता को याद करती है…. कितने लाड़ और गर्व से, कितना सोच-समझकर, कितने सपने बुनकर उन्होंने उसका नाम रखा होगा- शुभदा. वह अपने माता -पिता की दूसरी सन्तान थी. पहले बड़ा भाई और फिर छोटी लाडली बहन…. “माँ-बाप फूले नहीं समा रहे होंगे कि चलो परिवार पूरा हुआ. भले ही उस जमाने में जब चार -पाँच बच्चे पैदा करना सामान्य और भाग्य की बात हुआ करती थी तब माता-पिता ने परिवार के पूरे होने के बारे में सोचा होगा ऐसा सम्भव नहीं था. यह मात्र उसकी अपनी सोच थी, शायद अपने को दिलासा देने का एक झूठा आसरा. वरना वह जमाना ही कुछ और था, कि परिवार में एक लड़का हुआ तो डाल को दोहरी करना जरूरी समझा जाता था. डाल दोहरी हो गई तो ठीक लेकिन अगर बीच में डाली के दोहरे होने से पहले ही कोई खर-पतवार आ गई तो फिर खर-पतवार की पैदावार का यह सिलसिला तब तक नहीं थमता था जब तक डाल दोहरी नहीं हो जाती थी. हाँईश्वर की इतनी कृपा जरूर थी कि आज की तरह खर-पतवार के बीज को जमीन के अन्दर ही इंसैक्टीसाइड्स-पेस्टीसाइड्स के प्रयोग से खत्म नहीं किया जाता था. भगवान का शुक्र था या विज्ञान-तकनीकी देव की कृपा, जिसने सबके ऊपर अपने वरद्हस्त नहीं रखे थे. रखते भी कैसे? तब वह स्वयं ‘देव’ बनने की प्रक्रिया के आरम्भिक चरण से गुजर रहे थे. यह इण्डिया की बात नहीं हो रही है, भारत के एक अत्यन्त पिछड़े गाँवों की बात है.
दादी बताती थी कि पिता ने तभी कसम ले ली थी कि अब उनकी कोई तीसरी संतान पैदा नहीं होगी…. शायद उसके जन्म के समय तड़फती माँ के कष्टों ने उनको भावावेश में यह कसम दिला दी थी…. वैसे भी यह एक भावुक क्षण था या शान्त दिमाग से लिया गया निर्णय! वक्त की कसौटी पर कसने का मौका ही कहाँ मिला ? नामकरण के छठे दिन माँ चल बसी थी, सब दर्दो से मुक्त होकर….?
खै़र उसका जन्म न खर-पतवार की पैदावार थी, न दोहरी डाल की कोशिश में अवांछित कोई और पैदावार. जब वह पैदा हुई थी, दादी बताती थी कि पिता ने तभी कसम ले ली थी कि अब उनकी कोई तीसरी संतान पैदा नहीं होगी…. शायद उसके जन्म के समय तड़फती माँ के कष्टों ने उनको भावावेश में यह कसम दिला दी थी…. वैसे भी यह एक भावुक क्षण था या शान्त दिमाग से लिया गया निर्णय! वक्त की कसौटी पर कसने का मौका ही कहाँ मिला ? नामकरण के छठे दिन माँ चल बसी थी, सब दर्दो से मुक्त होकर….? क्या वास्तव में ऐसा होता होगा? मरते समय या फिर मरने के बाद क्या उस नन्हीं सी जान का दर्द नहीं हुआ होगा उन्हें? कृष्ण ने जब घोषणा कर दी कि आत्मा अजर-अमर है, तो क्या आत्मा के राग-द्वेष अजर-अमर नहीं होंगे? देह के दर्द तो ठीक है कि देह के साथ ही खत्म हो जाते होंगे, लेकिन कितना गहरा चिन्तन! कहाँ सोच सकती है इतनी गूढ़ बातें उसके जैसी अल्पबुद्धि! नेति, नेति कहने में ही भलाई है, सोचकर बासठ वर्षीय शुभदा का चिन्तन पुनः अपने बचपन में लौट आयाथा. माँ की कोई स्मृति उसके जे़हन में नहीं थी. हाँ! लेकिन, गाँव का हर व्यक्ति जो भी उसे देखता यह ज़रूर कहता-’ अपनी माँ पर गई है पूरी की पूरी, कहीं कोई अन्तर नहीं.’ और जब भी वह, यह सुनती तुरन्त दौड़कर शीशे को हाथ मे लेकर निहारती. उस छोटे से खूँटी से लटके शीशे में वह पूरी की पूरी दिखती ही कहाँ थी? कभी चेहरा दिखता तो फिर बाकी का शरीर नहीं दिख पाता और फिर शीशे को टेढ़ा-मेढ़ा, ऊपर-नीचे कर शरीर देखती तो चेहरा छूट जाता… शायद माँ को देखना उसके भाग्य में ही नहीं था. कभी कभी वह जिद कर बैठती थी पिता से कि वह उसके लिए आदमकद शीशा ले आएं और वह हमेशा हँसकर टाल देते ‘‘तेरी शादी में दहेज दूँगा. हा! हा! हा!” एक सूनी सी हंसी! एक छोटी-सी ब्लैक-एण्ड-व्हाइट फोटो थी माँ की, जो पिता के सिराहने पर रखी रहती थी और शुभदा कभी-कभी जब पिता घर से बाहर गये होते थे निकालकर कोशिश करती थी उस फोटो से अपने नैन नक्श मिलाने की, लेकिन हमेशा असफल ही रहती थी. खीज जाती थी वह अपनी इस असफलता से…..
जब कभी वह अपने पिता को एकटक स्वयं को निहारते पाती तो एक हद तक उसकी शंका दूर हो जाती. पिता की उन नज़रों में स्नेह के अतिरिक्त भी बहुत कुछ होता, जिसको वह परिभाषित नहीं कर पाती. हाँ, बस उन नज़रों में वह एक उदासी सी महसूस करती थी. 29 वर्ष की उम्र में विधुर हो गये थे उसके पिता. दो बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी के साथ, उस उम्र में बुढ़ा गये थे जब आजकल के लड़कों के जीवन की ठीक से शुरूआत तक नहीं होती. दादी ने बहुत कोशिश की थी कि उनका बेटा दूसरी शादी कर ले. न जाने कितने घरों से रिश्ते आये लेकिन पिता चट्टान की तरह अडिग बने रहे. बड़ा आश्चर्य होता है आज शुभदा को, आखिर क्या वजह थी कि एक सुदर्शन समृद्ध परिवार के उस विधुर ने पुनः शादी नहीं की, जिसके लिए लड़कियों की लम्बी लाइन लग गई थी? माँ के प्रति प्रेम था या कुछ और…….? लेकिन जो भी था शुभदा का सर गर्व से ऊँचा हो जाता है आज भी कि वह उस खानदान से है जहाँ पुरूष भी स्वयं को आत्मनियन्त्रण में रखकर एक शान की ज़िन्दगी जीते हैं.
यही वह ‘गर्व’ की भावना थी जिसने शुभदा को जीवन पर्यन्त आक्रान्त करके रखा और आज साठ साल की सफेद बालों वाली शुभदा इस स्थिति में नहीं है कि वह मूल्यांकन कर पाये कि इस गर्व ने उसे क्या दिया, उससे क्या लिया? फिर मूल्यांकन कर होगा भी क्या? उसकी सूनी मोतियाबिंद के कारण बादलों की सी छाया वाली आँखों में प्रश्नचिन्ह उमड़ते हैं, जिनको वह दो आँसू की बूँदों के साथ एक तरफ ढुलका देती है और कुछ समय के लिए निश्चिन्त हो जाती है कि फिर वे उसे परेशान नहीं करेंगे.
पिता ने अपनी यजमानी में दो साल पहले से ही बेटी के लिए सुयोग्य वर की खोज का एलान कर दिया था. पंडितजी की बात कौन टाल सकता था? सबने अश्वमेघ यज्ञ की तरह अपने-अपने घोड़ा दिए थे. आज की सी बात कहाँ थी? आज तो किसी से गर कह दो कि बेटा या बेटी के लिए वर वधू ढूँढना है तो सभी मुँह पर हाँ करके मनही मन दोहराते हैं ‘‘कहाँ पड़े इन चक्करों में ?
यह अभ्यास आज का नहीं है. यह अभ्यास तब से चला आ रहा है जबवह सोलहवें बसन्त का स्वागत कर रही थी. उसकी काली उजली पहाड़ी झील सी स्वच्छ आँखों में सपने मछलियों की तरह सानन्द सोत्साह तैरने लगे थे. छोटी-छोटी पहाड़ी मछलियाँ, जिन्होंने अभी-अभीअपनी अपलक नज़रों से दुनिया को देखना शुरू किया था. शादी के समय उसकी उम्र पन्द्रह वर्ष चार महीने की थी. पिता ने अपनी यजमानी में दो साल पहले से ही बेटी के लिए सुयोग्य वर की खोज का एलान कर दिया था. पंडितजी की बात कौन टाल सकता था? सबने अश्वमेघ यज्ञ की तरह अपने-अपने घोड़ा दिए थे. आज की सी बात कहाँ थी? आज तो किसी से गर कह दो कि बेटा या बेटी के लिए वर वधू ढूँढना है तो सभी मुँह पर हाँ करके मनही मन दोहराते हैं ‘‘कहाँ पड़े इन चक्करों में ? हर स्थिति में गाली खानी है और बुरा ही बनना है’’, लेकिन तब की स्थिति कुछ और थी. लोगों के मुँह पर भी वही होता था जो मन में छुपा होता था. शत-प्रतिशत नहींतो कुछ प्रतिशत तक तो मानव के बोलो और कामों में एकरूपता थी ही. ख़ैर, उन दो सालों में पिता ने दो सौ से भी ज्यादा रिश्तों को देखा परखा और इन्कार किया. कहीं जन्मपत्री नहीं मिली, कहीं जाति छोटी हो गई, कहीं परिवार बड़ा और कहीं खेती-किसानी ज्यादा. पिता, बिन माँ की बच्ची को ऐसे ही किसी को सौंप भी कैसे देते? आखिर माँ बाप दोनों ही बनकर पाला था उन्होंने उसे! कहीं माँ की ममता आड़े आ जाती और कहीं बाप का सम्मान. अन्ततः दो साल की मशक्कत के बाद पिता को मनचाहा घर परिवार मिल ही गया. अपने माँ-बाप की इकलौती सन्तान थे वह. उच्च पद पर सरकारी नौकरी में. किस पद पर? यह शुभदा को आज तक नहीं पता है, लेकिन इतना जानती थी कि उसके पति की बुद्धिमानी और नौकरी पूरे गाँव ही नहीं बल्कि पट्टी वालों के लिए फक्र और रश्क का विषय थी. जब लग्न जुड़ा तो सभी को शुभदा के भाग्य और ईश्वर के न्याय पर विश्वास हो उठा ‘‘ईश्वर कुछ लेता है तो बदले में देता भी जरूर है….. अब देखो इतना बड़ा घर-बार! यह उसी का तो न्याय है’’ चारों तरफ ऐसी बातें सुनकर, शुभदा भी तो उस अनजाने सौभाग्य से अपने को सौभाग्यवती मानने लगी थी.
सौभाग्यवती शुभदा ने जब पिता से विदा ली तो सनातन काल से चली आ रही वही रटी-रटाई बातें उसे दहेज में मिलीं. पिता ने भर्राए गले और अश्रुपूरित नयनों से जैसे उससे विनती की ‘‘बेटी अपनी स्वर्गवासी माँ की कोख और मेरे लालन-पालन की लाज़ रखना. अब तू दो घरों की इज्जत है… इज्जत को बनाए रखना.’’ पिता के शब्दों की वह पोटली आज तक शुभदा के साथ है. आज उसे अहसास होता है पिता ने उसे पति के साथ नहीं बल्कि, इसी शब्द पोटली के साथ विदा किया था. उस पोटली को संभाले जब ससुराल पहुँची तो सास-ससुर के स्नेह ने उसे तर कर दिया. हाँ! पति के व्यवहार में शुष्कता थी लेकिन उसकी परवाह उसे कहाँ थी ? वह शहर का पढ़ा-लिखा शहरी जीवन का आदी, इक्कीस वर्षीय सुदर्शन युवक उसकी तो परछाई से भी शुभदा शुरू-शुरू में भयभीत सी रहती थी. मन की बात कहे तो, वह चाहती ही नहीं थी कि वह उसके करीब भी फटके. वह स्वतंत्र हिरनी-सी बस जीवन के इस नव-समतल पर चैकड़ियाँ भरना चाहती थी और ईश्वर ने जैसे उसकी सुन ली हो. शादी के पन्द्रह दिन बाद पति अपनी नौकरी के लिए घर से निकला तो माँ-बाप अपने इकलौते पुत्र के विछोह से दुःखी…. आह औरअश्रुयुक्त, जबकि शुभदा उत्साह-स्मितयुक्त. एक दबी-सी स्मित… चलो स्वच्छन्दता से विचरण कर सकेगी. एक झिझक जो पति के गाम्भीर्य के कारण होती थी उससे मुक्ति…..? पति से दूर होने का अहसास होता भी कैसे जब पास ही नहीं आई थी…. वह आज भी सोचती रहती है अक्सर कि माँ और पति जो जीवन के दो अहम् स्तम्भ हैं या माने जाते हैं वही उसके जीवन में छाया जैसे बने रहे. माँ की बातें-यादें……, और पति का सिन्दूर उसके लिए एक अहसास से बढ़कर कभी कुछ नहीं बन सका. शादी के बाद पति गया तो एक साल बाद ही लौटा. इस बार शुभदा को उसके लौटने का इन्तजार था…. जाने क्यों उसके आने की खबर से ही गुदगुदी सी हुयी थी उसे. संभवतः समवयस्का मैती विवाहिताओं की बातें सुनकर….. वैसे भी सोलह साल पूरे कर चुकी थी वह…. यौवन उसके अंगों में दस्तक देने लगा था….. एक अनचीन्हा-सा दर्द उसे सताने लगा था… और जब पति आया तो फिर वही गम्भीरता वही दूरी…. रातों में वही सन्नाटा. उबरे (नीचे के मंजिल का कमरा) में जो दो बिस्तर लगे थे उनके बीच के फासले आज तक शुभदा को नज़रनहीं आए थे लेकिन अब उसे उनके बीच की दूरी कोसों की दूरी लगने लगी थी. साँसों की दो लहरें बहती लेकिन उनकी ताल, लय बिल्कुल अलग. शुभदा को कुछ भी समझमें नहीं आ रहा था. खाना पीना बर्तन-भाँडे आदि दोपायों का काम निपटाने के बाद, चैपायों के लिए भी पींडा उबालने के बाद जबवह कमरे में जाती तो पति करवट लिए लेटा होता. दीवार की तरफ मुँह….. पता ही नहीं चलता कि सो गया है या…? शुभदा कुछ पल एक टक निहारती, फिर चिमनी को एक लम्बी सी फूँक से बुझाकर दूसरे पलंग पर पसर जाती… नींद से बहुत दूर लेकिन सपनों से भरपूर. सपने देखना या सपनों की दुनिया में घूमते-घूमते थककर सोना उसकी पुरानी आदत थी. पहले सपने होते थे माँ के, माँ से मिलने के. एक धुंधला चेहरा जिसके पीछे या साथ-साथ वह निरन्तर भागा करती थी… और भागते-भागते थककर सो जाया करती थी. आज फिर वही भागमभाग है भले ही चेहरा धुंधला नहीं है. शुभदा कुछ दिन इन्तजार करती रही दिन में सब कुछ सामान्य रहता लेकिन रात को एक तनाव भरा माहौल. शुभदा का कई बार मन होता कि वह पूछे कि उससे क्या गलती हो गई है उससे कि वह यूँ मुँह फेर कर लेट जाते हैं? ’’ लेकिन वह पति की खूबसूरती, बुद्धिमत्ता और बड़प्पन से इतना आतंकित रहती कि कुछ बोल ही नहीं पाई. छुट्टियाँ खत्म, पति फिर ड्यूटी के लिए सन्नद्ध. उत्साहित सा भी लगा शुभदा का,े जैसे कि पिंजरे में बन्द पक्षी अपनी आजादी को महसूस कर रहा हो. वह चुपचाप देखती रही उसे तैयारी करते हुए. महसूस करती रही उसकी अनचीन्हीं खुशी को, लेकिन अचानक से जैसे कैद पंछी के पंख फड़फड़ाना भूल गये हों, ऐसी ही विवशता दिखी उसे अपने पति की नज़रों में, जब सास ने कहा- ‘‘इस छोरी को भी घुमा दे जरा बाहर इसने भी कहाँ दुनिया देखी है? बेचारी बिना माँ की बच्ची! अब तेरे पीछे ही तो सुख-दुःख देखेगी’’. माँ की बात का जवाब केवल ‘‘ठीक है’’ कहकर दे दिया था उन्होंने…, लेकिन तभी से एक अनमनापन उनकी हर बात-हर काम में झलक रहा था. शुभदा ने सोचा कि कहीं मेरी वजह से विदेश में कोई दिक्कत न हो उन्हें ओर उसने सास को कह दिया कि वह शहर नहीं जाना चाहती बल्कि मैत जाएगी.
बूढ़ी आँखों ने दुनिया देखी थी. जीवन के खट्टे-मीठे कड़़ुवे सभी स्वादों से वाकिफ थीं वह. शुभदा की इस बात ने तो जैसे उनको सपने से जगा दिया…. जिद्द ठान ली उन्होंने कि बहू, बेटे के साथ ही जायेगी. बहुत ही आसान था समझना उनके लिए. गाँव-घर की बहू बेटियाँ कितनी लालायित रहती हैं घर से निकलने के लिए, बाहर की दुनिया देखने के लिए, और शुभदा पति के साथ नहीं जाना चाहती, जिसके साथ मुश्किल से एक महीना भी नहीं गुजारा उसने. बुढ़िया ने सोचा या तो अभी तक लाज के पर्दे नहीं हटे हैं या फिर कुछ अनबन है, लेकिन जो भी हो अकेले एक साथ रहेंगे तभी सबकुछ ठीक होगा यह सोचकर खुद ही सामान बाँधने लगी शुभदा का….
तब लड़की मैत जाने की धमकी भी तो नहीं दे सकती थी पता था न मायके वाले लड़-झगड़ कर आने वाली बेटी की कोई कदर ही नहीं करते. दो चार दिन बाद ही फिर वापस भेज देते थे. बेचारी लड़की मरे नहीं तो क्या करे? खैर शुभदा तो भाग्यशाली थी कि उसकी सास स्वयं भेज रही थी उसे, वरना कौन सास भेजती है यूँ? गाँवों घरों में बहू का आना और बैल खरीदना एक ही माना जाता था उस जमाने में.
वह सफ़र आज भी शुभदा की स्मृति में तैर जाता है. यह पहला मौका था जब वह गाड़ी में बैठने वाली थी. एक बजे के गेट में जाना था उन्हें… शाम तक कोटद्वार पहुँचकर फिर रेलगाड़ी की सवारी. खुशी और उम्मीदों से शुभदा का अंग-अंग झिलमिला रहा था…. एक अनजाना मीठा सा डर… कैसे बैठेगी वह रेलगाड़ी में…. गाड़ी में तो फिर भी ठीक है… पता नहीं रिंगाई लगेगी या नहीं…उल्टी होगी या नहीं….? उसकी दगड़या सरला तो कभी चली गई थी दिल्ली शादी के बाद. दो महीने भी नहीं टिकी ससुराल में. सास और ननद से झगड़ा हुआ नहीं कि उसने अपने मरद से साफ कह दिया ‘‘या तो मुझे अपने साथ ले जा नही तो मैं फाँस खाती हूँ’’. तब लड़की मैत जाने की धमकी भी तो नहीं दे सकती थी पता था न मायके वाले लड़-झगड़ कर आने वाली बेटी की कोई कदर ही नहीं करते. दो चार दिन बाद ही फिर वापस भेज देते थे. बेचारी लड़की मरे नहीं तो क्या करे? खैर शुभदा तो भाग्यशाली थी कि उसकी सास स्वयं भेज रही थी उसे, वरना कौन सास भेजती है यूँ? गाँवों घरों में बहू का आना और बैल खरीदना एक ही माना जाता था उस जमाने में. बहू खेती -बाड़ी संभालने के लिए लाया एक प्राणि-मात्र होती थी. ऐसे में शुभदा की सास का यह व्यवहार उसके लिए ही नहीं बल्कि उसके पिता और बूढ़ी दादी के लिए भी चैंकाने वाला और सुखद था. रैबार्या ने जब शुभदा का रैबार पिता को पहुँचाया तो, पिता ने राहत की सांस ली- ‘चलो छोरी को माँ न सही माँ जैसी सास मिल गई है.’
भाग्य इतनी जल्दी बदल सकता है क्या? धन-दौलत-पद आदि के आधार पर जो भाग्य बदलते हम देखते हैं वह व्यक्ति की मूल प्रवृत्ति उसके कार्य व्यवहार या उसके संस्कारों को बदल पाता है? नहीं! शुभदा के जीवन में भी कुछ नहीं बदला था. हाँ दुर्भाग्य ने रूपाकार बदल लिया था. लखनऊ पहुँची तो पाया कि जिसको वह अपना पति परमेश्वर मान बैठी है, जिससे उसका सिन्दूर और सौभाग्य जुड़ा है, उस पर उसका कोई अधिकार ही नहीं है. वह दूसरी औरत है जिसके साथ उसके पति ने मजबूरी में गठबन्धन किया है. अपने माता-पिता की इकलौती संतान होने के कारण या फिर उसके भाग्य के कारण? वह एक बार फिर ठगी गई थी. क्या करे वह? परदेश में किसके आगे रोये? जिसके भरोसे परदेश गई वह उसका कभी था ही नहीं. मन किया, पूछे उससे कि आखि़र किस जन्म की दुश्मनी थी उसकी उससे कि उसे यूँ जन्म भर का दुःख दे दिया? दर्द आँसुओं का जन्म-जन्मान्तर का सैलाब जो उसने सायास रोका था, बह चला. इस सैलाब में वह डूबकर मर जाना चाहती थी. सब दुःखों को पार कर सैलाब में तैर कर अनन्त गहराइयों तक पहुँच जाना चाहती थी, जहाँ दुनिया का कोई भी सुख-दुःख न पहुँच सके, लेकिन इस अनजान शहर में वह कुछ भी नहीं कर पाई थी. बस इतना समझ चुकी थी कि जिसके भाग्य में जो लिखा होता है, वही उसे बचपन से लेकर मृत्युपर्यन्त मिलता है. उसे पूर्वजन्मों के कर्मों का फल कहें या इस जन्म का… लेकिन भाग्य के लिखे से कोई नहीं बच सकता… चाहे रावण जैसा महाज्ञानी, महाशक्तिशाली, अमर्यादित मानव हो या राम जैसा मर्यादित पुरूषोत्तम. सभी भाग्य के हाथों की कठपुतली के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैं. इस विचार ने शुभदा को संजीवनी-सी दी, और अपने भाग्य को स्वीकार कर बिना किसी गिले-शिकवे के उसने उस ’अपरिचित’ से कह दिया कि वह उसे गाँव छोड़ दे. पता नहीं माँ-बाप तक सच्चाई पहुँचने का डर था या कोई और इरादा वह कई दिनों तक उसकी बातों को लगातार टालता रहा और एक दिन जब उसकी पत्नी कहीं गयी हुई थी वह शुभदा के पैरों पर गिरकर गिड़गिड़ा उठा, ’’तुम यहीं रह लो… गाँव में अगर यह बात पता चल गई तो मेरे माँ-बाप मुझे कभी माफ नहीं करेंगे’’. शुभदा एकटक देखती रही… निर्वाण की सी स्थिति में, सिर्फ इतना ही बोली… “मैं यहाँ सर्वेन्ट क्वार्टर में नहीं रह सकती. दुर्भाग्य से ही सही मेरा नाम तुम्हारे नाम से जुड़ गया है तो मैं उसे भी खराब नहीं करूँगी. शब्दों एवं भावों की दृढ़ता का असर था शायद कि वह कुछ नहीं बोल पाया, “बस एक विनती करना चाहता हूँ, रुक सको तो एक सप्ताह और रुक जाओ, फिर मैं स्वयं तुम्हें छोड़ने आ जाऊँगा.’’ चेहरे की दीनता और विवशता देख शुभदा को हँसी सी आ गयी. करुणा और व्यंग में डूबी हँसी! मनुष्य कितना स्वार्थी और निर्लज्ज होता है यह उसने पहली बार देखा था. ऐसे ही दोहरे मानदण्ड वालों को शायद सभ्य और शिक्षित कहा जाता है. मन ही मन उसे अपने गँवार और अल्पशिक्षित होने पर आज पहली बार गर्व की अनुभूति हो रही थी. यह इन्सान जिसकी आँखों में एक बार भी उसने स्वयं के लिए कभी सहानुभूति नहीं देखी, वह अपने लिए कितना लाचार, बेबस और दुःखी दिख रहा था. आज पहली बार शुभदा को ’घिन’-सी आई अपने आप पर कि उसका सम्बन्ध ऐसे क्षुद्र इन्सान से जुड़ा है.
पन्द्रह दिनों में ही शुभदा वापस गाँव आ गयी थी, पर कटे पंछी की तरह. जिसको जीवन पर्यन्त अब सिर्फ फड़फड़ाना था.
“क्या बात, इतनी जल्दी क्यों लौटी तू?’’ अनुभवी आँखों से कुछ गलत भाँपते हुए सास ने पूछा.
“मुझे वहाँ का पानी नहीं पचा, जी….’’
दो-तीन साल बाद शुभदा के ’बाँझ’ होने की फुसफुसाहटें सभी जगह हवा में तैरने लगीं. सास ने बेटे को बुला भेजा कि तुरन्त शहर ले जाकर अपना और शुभदा का इलाज करवा ले. झाड़-फूँक, जन्तर-मन्तर, जागर-घटेली… सब कुछ कर हार मान ली थी उन्होंने. अब न चाहते हुए भी अपने ’समधी’ की बात मानने को राजी हो गई थीं वह.
वह कुछ बोलता उससे पहले शुभदा बोल पड़ी, ’’तबियत बहुत खराब हो गई थी.’’ शुभदा ने अपने पीताभ चेहरे को ऊपर उठाया, साक्ष्य के रूप में कि कुछ और न कहना पड़े… और सचमुच उसे कुछ और नहीं बोलना पड़ा. शरीर कितना भी स्वस्थ हो लेकिन मन स्वस्थ न हो तो इंसान मरणासन्न सा दिखने लगता है. दूसरे दिन उसका सुहाग, उसका पति लौट गया. लेकिन अब उसके आने-जाने का शुभदा के लिए कोई महत्व नहीं था. उसने सोच लिया था कि अपना दुःख बताकर वह अपने दुःखी पिता को और दुःखी नहीं करेगी. सास-ससुर में माँ-बाप का अक्स देखकर वह उसे ही अपना घर मान चुकी थी. उसे उन दोनों पर तरस भी आया जो अपने ही खून के विश्वासघात से बिल्कुल अनजान थे और आशाओं के झूले में झूल रहे थे कि जल्दी ही उनके आँगन में फिर बचपन लौटेगा, जिसमें वो अपने बुढ़ापे को भूल जायेंगे. शुभदा ने सबकुछ समय पर छोड़ दिया. समय अपनी गति से चलता रहा. दो-तीन साल बाद शुभदा के ’बाँझ’ होने की फुसफुसाहटें सभी जगह हवा में तैरने लगीं. सास ने बेटे को बुला भेजा कि तुरन्त शहर ले जाकर अपना और शुभदा का इलाज करवा ले. झाड़-फूँक, जन्तर-मन्तर, जागर-घटेली… सब कुछ कर हार मान ली थी उन्होंने. अब न चाहते हुए भी अपने ’समधी’ की बात मानने को राजी हो गई थीं वह. लेकिन शुभदा तो अड़ियल टट्टू की तरह अड़ गई कि शहर नहीं जायेगी. सास की जिद और कसमों के आगे झुककर शुभदा ने जब सास को सच्चाई बताई तो उनके पैरों के नीचे जमीन खिसक गई. उनकी अभिव्यक्ति और सच्चाई को बयान करने से पहले ही शुभदा अपना सामान समेट चुकी थी. अपने इकलौते लड़के को तो सास-ससुर त्याग नहीं सकते, इसलिए टूटे हुए पत्ते की तरह हवा के झोंकों के साथ भटकने और धूल-धूसरित उसे ही होना है, यह शुभदा को अहसास था.
“आज से तुम्हारा और हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है, हमारी बेटी-बेटा, बहू सबकुछ यही है और इसके ही कन्धों पर हम अपनी अन्तिम यात्रा करेंगे’’, गरजते हुए ससुरजी ने कहने की कोशिश की तो गरजने के साथ आँसू के दो-चार छींटे से आवाज़ भीग-सी गई. शुभदा को एक बार फिर अपने भाग्य पर तरस आ गया. पिताजी भी उसकी वजह से जीवन पर्यन्त अकेलेपन से जूझते रहे हैं और अब सास-ससुर को यह असहनीय दुःख… उसका हृदय कराह उठा. बहुत मिन्नतों और कोशिशों के बाद वह ससुरजी को इस बात के लिए राजी कर पाई कि उनका बेटा साल भर में एक-दो दिन के लिए के घर आ सकता है, लेकिन पत्नी और बच्चे उन्हें स्वीकार्य नहीं थे.
शुभदा ने लाख कोशिश की यह खबर उसके पिता तक न पहुँचे किन्तु हवा की तरह बातों को कौन रोक पाया ? साल भर होते-होते पिताजी को पता चल गया कि उनकी विवाहिता बेटी आजन्म कुँवारी ही रहने वाली है. विवाहिता बेटी के लिए मायके के दरवाजे तो सदैव खुले थे लेकिन परित्यक्ता बेटी के लिए कभी नहीं. ‘तलाक’ या ’मुकदमा’ जैसे शब्द तो उनके जैसे प्रतिष्ठित ब्राह्मण के लिए किसी पापकर्म से कम नहीं थे. सो एक ही हिदायत उन्होंने आमरण बेटी को दी, “सास-ससुर ही तेरे माँ-बाप हैं… इनकी सेवा ही तेरा धर्म’’.
बेटी तब प्राणी थी ही कहाँ जो उसकी जैविक-शारीरिक कोई आवश्यकता होती. मात्र किसी कुल-परिवार की इज़्ज़त का तमगा जिसमें किसी भी सूरत में धूल या जंग नहीं लगनी चाहिये थी. यही शुभदा ने देखा, सुना, पढ़ा और सीखा था. आज बासठ वर्ष की उम्र में उसके पास परिवार है, नाती-पोते हैं, वो जो जैविक रूप में भले ही उसके नहीं हैं. जिन्हें उसने जन्म नहीं दिया है.
बेटी तब प्राणी थी ही कहाँ जो उसकी जैविक-शारीरिक कोई आवश्यकता होती. मात्र किसी कुल-परिवार की इज़्ज़त का तमगा जिसमें किसी भी सूरत में धूल या जंग नहीं लगनी चाहिये थी. यही शुभदा ने देखा, सुना, पढ़ा और सीखा था. आज बासठ वर्ष की उम्र में उसके पास परिवार है, नाती-पोते हैं, वो जो जैविक रूप में भले ही उसके नहीं हैं. जिन्हें उसने जन्म नहीं दिया है. जन्म किसने दिया? कभी उसने जानने की कोशिश भी नहीं की. लेकिन 2 वर्ष के किशोर को जब वह जंगल से अपने साथ लाई तो शुभदा को कभी याद ही नहीं रहा कि वह एक ऐसी माँ है, जिसने माँ बनने की किसी भी प्रक्रिया को कभी जाना ही नहीं, और आज जब किशोर का नन्हा सा पाँच साल का बेटा अपनी तुतलाती आवाज़ में उससे पूछता है- दादी आपका नाम क्या है? तो उसके मुँह से बरबस निकलता है- शुभदा, शुभ देने वाली, करने वाली….
(लेखिका रा.बा.इं. कॉलेज द्वाराहाट, अल्मोड़ा में अंग्रेजी की अध्यापिका हैं)