अरूप में रूप: शिव- सौंदर्यम
मंजू दिल से… भाग-27
- मंजू काला
खेले मसाने में
होरी
चिदंबर
खेले मसाने में होरी
भूत- पिशाच बटोरे
दिगंबर
खेले मसाने में होरी!
शिव का नाद करने से पहले मै एक विचत्र होली का वर्णन करना चाहती हूँ! वह विचित्र होली है जिसे भगवान शिव खेलते हैं, वो भी काशी के मणिकर्णिका घाट पर! रंग एकादशी के दूसरे दिन काशी में स्थित श्मशान पर चिताओं की भस्मी के साथ होली खेलने की एक अनूठी परंपरा है। पौराणिक कथाओं के अनुसार इस परंपरा की शुरुआत शंकरजी से ही मानी जाती है।
मान्यताओं के अनुसार- जब भगवान शिव, पार्वती का गौना कराने के लिए आये थे तो उनके साथ भूत, प्रेत, पिशाच, यक्ष गन्धर्व, किन्नर जीव जंतु आदि थे, और उन्होंने वहीं मणिकर्णिका पर होलिकोत्सव – श्मशान पर चिताओं की भस्मी से खेल कर मनाया!
लखि सुंदर फागुनी छटा के
मन से रंग-गुलाल हटा के
चिता, भस्म भर झोरी दिगंबर
खेले मसाने में होरी…!
यह गीत अड़बंगी भोले बाबा के विचित्र व्यक्तित्व की तस्वीर पेश करता है। इस गीत को बनारस घराने के मशहूर ठुमरी गायक ‘पद्म विभूषण’ पंडित छन्नूलाल मिश्र ने गाया है!
‘श्मशान’ जीनवयात्रा की थकान के बाद की अंतिम विश्रामस्थली है! अंतिम यात्रा के दौरान रंग-रोली तो शव को लगाया जाता है, लेकिन नीलकंठ देव के चरित्र में इस समय रंग गुलाल नहीं है, जली हुई चिताओं की राख है, जिससे वो होली खेलते हैं!
गोप न गोपी श्याम न राधा,
ना कोई रोक ना, कौनऊ बाधा
ना साजन ना गोरी, ना साजन ना गोरी दिगंबर, खेले मसाने में होरी!
एक तरफ बृज में कृष्ण और राधा की होली है जो प्रेम का प्रतीक है, लेकिन भगवान शिव की होली उनसे अलग है, उनकी जगह श्मशान है! शंकर जी की होली को देखकर गोपिकाओं का मन भी प्रसन्न हो जाता है! अड़बंगी महराज के साथी भूत-प्रेत हैं, रंगों की जगह जली हुई चिताओं की राख है! जिससे वो नाचते-गाते भूतों पर मल देते हैं! इस प्रसंग का जिक्र करने का आशय इतना ही है कि शिव हमारी लोकसंस्कृति के भोले भाले नायक पुरोधा हैं, जिनका अरूप सौंदर्य भी जग-मग करता हुआ लोक को पुलकित करता है!
हमारी संस्कृति की अस्मिता और सौंदर्य चेतना के पोर- पोर में शिव का स्थायी निवास है! वे विशव बीज, विशव वर, विशवम्बर तथा विशव रूप है! हमारे देश ने न जाने कितने भारी आक्रान्ताओं के प्रहारों को झेला है-पर हमारा प्यारा देश अखंडता की घूरी रहा, और इस अखंडता की धूरी है- शिव! वे भारत की आदिम जनजातियों के सबसे प्राचीन देवता हैं! श्रग्वेद में रूद्र नाम कयी बार आया है और शिव एक या दो बार! रूद्र यानि कि लाल या रोने वाला! दोनों अर्थों का एक ही भाव है- सृष्टि की मनोभूमिका का वेग! यजुर्वेद में शिव के नामों और विशेषणों की भरमार है! शिव के इन्हीं नामों से समय पाकर संहिताएँ, पुराण ग्रंथ, आगम ग्रंथ, रामायण, महाभारत भर जाते हैं! भारतीय का सांस्कृतिक इतिहास का प्रभाव इस ताकत से उमड़ता है कि शिव- “महादेव ” का पद अथर्ववेद में ही पा जाते हैं! हमारी हर प्राचीन कथा में शिव- पार्वती निरंतर विद्यमान रहते हैं! हमारे तंत्र और आगमों की सभी धमनियों में शिव धड्कते है और हमारी समस्त विद्याओं, कलाओं, साधनाओं, तपों, सिद्धियों में सर्वप्रथम अखंड भाव से श्री भरते है! शिव ने आर्यों, द्रविड़ों, निषादों, करातों, शवरों को अपने महाभाव से एक किया है और हमारा उच्तम दार्शनिक चिंतन शिव-भाव के शिखर पर जाकर विश्राम पाता है! साधारण से साधारण लोकचर शिव के भाव समंदर में नहाकर विश्वास से जीते हैं!
नदी-वन-पर्वत- गाँव- पशु -वंशी सब शिव के साथ हैं और इन सबके भीतर शिव हैं! पूरा हिमालय शिव का शरीर है, और हिमालय की बनस्पतियां शिव की जटाएं है! शिव-पत्नी पार्वती, भीतर को संवारती है … और शिव प्रिया… गंगा उमड़- घुमड़ कर देश को सिंचती है… पालती है… पोषती है.. और मृत्यु के बाद भी आश्रय देती है! शिव ने हिमवंत की दोनों बेटियों को वरा है… और दोनों ही लोकमंगला है!
कथाओं के भीतर कथाएँ यदि कीसी देवता के साथ निर्मिर्ती पाती रही हैं तो- वे भारतीय मिथक- कोष के सृजन कर्ता शिव ही है! कहते हैं कि रूद्र ही ब्रहमाण्ड के अहेरी हैं! उन्होंने ही मृगवेश में भयवश दौड़ते ब्राह्म का आखेट किया और उस मृग का सिर काटा तो मृगशिरा नक्षत्र पैदा हो गया! शिव ने ब्रह्मा के अहंकार का मर्दन किया, उस अहंकार का जिसमें रचने का अहंकार आ गया था! शिव अहेरी हैं-इसलिए वन में रहते हैं! सभी जंगली पशु- पक्षियों में वास करते हैं! उनका नाम पशु- पति इसी भाव का कारक है! इस भाव का अर्थ है-मन की सभी उद्दाम- काम वासनाओं को शिव पाश में बांध कर विचरण करते हैं और यह पशुपति ही मानुष के जंगली पाश को काटता है! अहेरी नायक के पास “पिनाक” है- इसलिए इनका एक नाम पिनाकी भी है!
बाबा शिव के पास सृष्टि का सबसे पुराना शिव धनुष भी है! धनुष की बात से एक बात मेरे मन में भी है, वो ये की जब कोई हमारी प्रिय वस्तु हमसे छीन लेता है या तोड़ देता है तो हम कितने दुखी हो जाते हैं, और हमारी वस्तु हमसे छीन लेने वाले व्यक्ति को कोसने लगते हैं! लेकिन.. बाबा तो शिव है न- वे तो अपनी प्रिय वस्तु तोडने वाले पर स्नेह लुटाते है, हर्षित होकर उस व्यक्ति के मंगल हेतु मंगलाचार करते हैं! राम जी के धनुष तोड़ने वाले प्रसंग की बात कर रही हूँ! जहाँ परशुराम- राम जी पर क्रोध करते हैं, वहीं बाबा स्नेह से मंद- मंद मुस्कराते हैं! विष्णु रूपैण राम पर क्रोध नहीं करते, वरन धरती के धैर्य- माँ जानकी को ब्याहते देख पुलक जाते हैं! भयंकर से भयंकर भूत–प्रेत, राक्षस- ब्रह्म राक्षस बेतालों के डेरों पर इनका आधिपत्य है! ये शमशान योगी होने के साथ… नाद योग के जन्मदाता भी है! आप भयंकर रूप वेश में मस्त रहते हैं, भंग छानते है- इसिलिए तो कपर्दी और कपाली हैं! जीवन के हर भय को खप्पर में रखकर नाचते हैं! और जब अतृप्तियों, काम वासनाओं से तप को डिगाने वाले कामदेव जब ज्यादा पीछा करते हैं तीसरा ज्ञान नेत्र खोलकर भस्म कर देते हैं, पर जब रति एंवम प्रीति का विलाप नहीं देखा जाता तो करूणा से भरकर कामदेव को अशरीरी रूप में जीवित कर देते हैं! मार्केण्डै श्रषि तपस्या करते हैं, तो आप वरदान देने से नहीं चूकते-तप का आदर करते हैं! और हाँ कोई वरदान पाकर राजा शंखचूड की तरह उत्पात मचाते हैं तो त्रिशूल फेंककर उसे भस्म करने में भी देर नही लगाते हैं! आप अपना ब्याह करने जाते हैं तो सांप- बिच्छू आपके बाराती बन जाते हैं! जब लोग दूल्हा बनते हैं तो अपने को संवारते हैं, लेकिन बाबा तो शिव संभो हैं, अनाड़ी भी हैं-आप तो सर्पों की माला पहनेंगे, शमशान की हड्डियों व राख से श्रंगारित होंगे, यूँ नहीं की कुछ उबटन ही मल लें- नहीं तो माँ गौरा का ही ख्याल कर लें! वे बेचारी तो कृशकाया और कोमलांगी है- कैसे आपके अघोरी पन को सह पायेंगी! मैं भी नाराज हूँ आपकी क्षेत्र इस बात से चिदंबर!
हां- नहीं तो!, आपके इस वेश से आपकी सासु माँ (मैना) के हाथ से परछन की थाली छूटे, या घबराकर वे नारद जी को पुकारें-उससे आपको क्या, आप तो अभी खप्पर भी धारण करेंगे, भृरंगी को भी न्यौतेंगे अपने विवाह में! आप कीसी की नहीं सुनते… लेकिन मैं जानती हूँ माँ पार्वती जब आपसे मान करती हैं तो आप उनकी कोई बात नहीं टालते! आपके प्रेम की तो मिसालें देता है संसार! आप जैसा प्रेमी संसार ने देखा न होगा, तभी तो भारतवर्ष की हर बाला आप जैसा वर पाने के लिए माघ मास में आपका पूजन करती है! शिव बाबा आप जल्दी प्रसन्न हो जाते हैं, मुझे आपसे कुछ चाहिए होता है तो मैं झटसे जाकर एक लोटा जल चढा देती हूँ, और आप मेरी मनोकामना पूर्ण कर देते हैं ! कितने भोले हैं आप! ये भी तो सच है- तब आपसे नाराज करूँ!
शिव-संभो!, आप तो संम्पति का संचयन भी नहीं करते, एक गृहस्थी की तरह तो बिल्कुल नहीं! आप गृहस्थ का भार गौरा को सौंपकर अटन- भ्रमण को निकल पड़ते हैं! गौरीशंकर को धन से नहीं प्रकृति से, जन से लगाव है! तप को यह महान तपस्वी महिमा मानता है- अपर्णा- उमा के तप से इतना मुग्ध हो जाता है कि उसे आधा अंग ही बना लेता है- योगेश्वर भूतनाथ, पिनाकी, त्रिलोचन, त्रिपुरदाही शिव अर्धनारीश्वर हो जाने में नहीं हिचकते! नंगे- भूखों के साथ नंगे ही घूमते हैं! कोई छल नहीं, कोई दंभ नहीं, समान बनकर ही सभी को जीने का दर्शन देते हैं! यदि कोई परम विद्रोही और परम फक्कड़ है- तो वह शिव ही है!
कुमार स्वामी “शिव नृत्य” नामक पुस्तक में कहते हैं कि अनार्य संस्कृति के देवता शिव का जब आर्य संस्कृति में प्रवेश हुआ तो आर्य संस्कृति का अशिव-भाव झर गया! दक्ष ने शिव की उपेक्षा की, तो पार्वती जल मरी! शिव ने तब सती के शव को लेकर तांडव किया-तो नृत्य की विधाएँ भी निकली! जब सती का शव खंडित होकर दिशा- दिशा गिरा, तब चौरासी शक्ति पीठों की स्थापना का कारक भी हुआ! कहा जाता है कि शिव ने ताण्डव नृत्य चिदंबरम में किया, तभी तो चिदंबरम को ब्रहमाण्ड का केंद्र माना जाता है! पिण्ड में ही ब्रहमाण्ड है और हृदय पिण्ड में चिदंबरम ब्रहमाण्ड स्थित है! बाबा दाहिने कान में पुरुष कुण्डल धारण करते हैं, और बाएँ कान में स्त्री कुण्डल! यह अर्धनारीश्वर, नटराज का विशिष्ट प्रतीक है! शिवरात्रि में दक्षिण भारत के मंदिरों में नृत्य गायन आयोजित किया जाता है! विशेष बात यह है कि शिव के ताण्डव नृत्य का अनुकरण भारत-नाट्य शैली में होता है! सच कहूँ तो यह नटराज का गति रूप है! उज्जैन में भोले नाथ, भूतनाथ हैं- महाकाल है, भैरव है-पर दक्षिण में चिदंबरम, अर्थात आकाश ही जिसका वसन है- ऐसा दिगंबर रूप! अरूप में रूप बाबा का ही हो सकता है- मेरी राय में! यहाँ पर मत-विभेद आ सकता है! फिर भी!!!!
जब शिव ताण्डव करते हैं तो-तब दूर आद्य नट के पदाघात से धरती हिल जाती है और शिव की गोलाकार भुजाओं में आकाश बंध जाता है! त्रैलोकी का यह नटराज रूप कयी अर्थ रखता है! कवि “पुष्प दंत” ने महिमन्स्त्रोत में इस नृत्य का विराट चित्र प्रस्तुत किया है! ताण्डव नृत्य के सात प्रकार होते हैं! संध्या समय गौरा को सिंहासनारूढ़ कर शिव प्रदोष नृत्य करते हैं! सभी देवी- देवता मंत्रमुग्ध होकर शिव का यह प्रेमी रूप निहारकर निहाल होते हैं, तभी तो कह रही हूँ अरूप में रूप है- शिव का सौन्दर्य! कहते हैं कि शिव ने अन्ना मलाई में तिलाई के रंगमंच पर यह नृत्य किया था! यहाँ पर अज्ञेय जी के एक प्रसिद्ध निबंध का संदर्भ देना भी आवश्यक लगता है, अरूप में रूप वाले बाबा के सौंदर्य को परिभाषित करने हेतु! बाबा क्रोधित होकर डमरू का नाद करते हैं और उसी डमरू की कटि है वर्तमान! डमरू के एक छोर पर भूतकाल दूसरे पर वर्तमान! डमरू में तीनों काल साथ बजते हैं! इस नाद से ही शब्द शास्त्र, प्रतीक शास्त्र, का घोष हुआ! अज्ञेय जी ने अपने निबंध- “काल का डमरू नाद” में इन्हीं प्रतीकों की व्याख्या की है!
शिव पुराण, स्कंद पुराण, और आगम ग्रंथ शिव के आख्यान से भरे पड़े हैं! तमिल साहित्य में भी शिव- चिंतन की अनोखी परम्परा है! आज तो इतिहासकार मोहनजोदड़ो व हड़प्पा की संस्कृति के आदि- देव भी शिव को ही मानते हैं! मोहनजोदड़ो की खुदाई में बैल की आकृतियाँ मिलना इसका प्रमाण है, हालांकि कुछ लोग उन आकृतियों को सांड की आकृति भी मानते हैं! शिव पर संम्पूर्ण भारतीय भाषाओं में साहित्य रचा गया है! ठाकुर रविंद्र नाथ टैगौर ने अपने जीवन के अंतिम दिनों को “नटराज” समर्पित कर दिया था! दिनकर ने भी “हिमालय” तथा हुंकार ” में नाचो हे” नाचो प्रलयंकार ” की अलख जगाई है! फलतः शिव केवल कर्मकाण्ड या रूढी नहीं है-न कोरा देवता वाद! वह कर्म और ज्ञान -दर्शन का ज्ञान यज्ञ है ! शिव स्वामी भी है और भिखारी भी, पिता भी है और शिशु भी, पालक भी है और संहारक भी! जीवन भी है और मृत्यु भी, कैलाश – पति भी हैं- और शमशान नाथ भी, ज्ञानी भी _ हैं और पागल भी! पार्वती- नाथ भी है और गंगा- धर भी, रस भी है और रसा- भास भी, विरोधों के सामंजस्य के अखंड सांस्कृतिक प्रतीक! हमारे देश की सृजनात्मक प्रतिभा ने शिव और शक्ति में अपने को इतना एकाकार किया कि पूरी काव्य- चेतना ही काल और कला बनी है! गंगा के पीछे पीछे काशी तक भागने वाले विश्वनाथ की इतनी कथाएँ हैं कि आप- ही की जटाओं की तरह उनकी गिनती नहीं की जा सकती! मेरी कल्पना शक्ति ने भी आपको ठहरा नहीं दिया बाबा, मैने आपको भाव- पुरूष ठहराया है! आपके अरूप रूप के सौंदर्य को मैंने भी मां गौरा की तरह.. हृदय में बसाया है- क्योंकि आपके औघड़-पन में भी प्रीति है.. चिदंबरम!!!!
आप आशुतोष हैं शिव! आप सभी देवताओं की तुलना में शीघ्र प्रसन्न होते हैं, यथेष्ट प्रदान करते है! कोई वस्तु व्यक्ति तभी दे सकता है जब उसे खुद कुछ न चाहिये हो! और शिव आप इसमें बेजोड़ हैं! इसीलिये देवाधिदेव महादेव हैं, औघड़ हैं, दानी हैं बिना किसी भेद-भाव के! राम को तो कोई भी वरदान दे सकता है, रावण को भी यथेप्सित वर देने वाले देव आप ही हैं शिव! धनी भक्तों के लिये तो सब देव हैं किन्तु गरीबों के लिये केवल शिव हैं! बस जलधारा से मुदित हो जाते हैं! पार्थिव शिव, और जलाभिषेक! मिट्टी और पानी से अधिक जगत् के अधिपति को पूजन के लिये कुछ नहीं चाहिये!
लोक में सर्वाधिक सहजतया स्वीकार्य हैं आप- शिव! भांग-गाँजा का सेवन और मदिरापान करने वाला- हमारे समाज की दृष्टि में निन्दनीय व्यक्ति भी खुद को शिवभक्त समझकर गौरवान्वित हो उठता है! वह जो जहर पीता है उसे शिव का प्रसाद बताकर अपना निर्णय सही ठहराता है! शिव सृष्टि के हर उस वंचित शोषित प्राणी के प्रतिनिधि हैं, जो कुल, गोत्र, जाति, धन आदि लोक में आवश्यक समझे जाने वाले तत्त्वों से हीन है!
भारत में प्रेम का प्रतीक हैं अर्धनारीश्वर शिव! शिव स्त्री-पुरुष की समानता और सहधर्मिता के प्रतीक हैं! शिव एक पुरुष हैं जो स्त्री को अपनी शक्ति मानते हैं! उस शक्ति के अभाव में स्वयं को शव मानते हुए समग्र चेतना को सन्देश देते हैं कि स्त्री-शक्ति के बिना पुरुष कुछ भी कर सकने में असमर्थ है! उन्हें ससुराल में न बुलाये जाने या अपने अपमान की तनिक चिन्ता नहीं है! हर परिस्थिति में दृढ़ हैं, अडिग हैं! किन्तु जब सती के मृत्यु की सूचना मिलती है, तो ताण्डव करते हैं!, तब महाप्रलय करने पर उतर आते हैं! विलाप करते हैं, उन्मत्त हो उठते हैं! जिस पवित्रतम यज्ञ की रक्षा करना देवताओं का दायित्व है, उस यज्ञ के विध्वंसक बन जाते हैं! इसीलिये संहारक हैं शिव! शिव वो प्रेयस हैं जो अपनी प्रेयसी का अपमान नहीं सहन कर सकते!
सभी देवताओं में सबसे निर्धन हैं शिव! त्र्यम्बक (तीन आँखों वाले) हैं, सुन्दर रूप नहीं है, दिगम्बर हैं, साँप बिच्छू उनके आभूषण हैं! कुल मिलाकर एकदम विपन्न! एक तरफ विष्णु भी हैं – सर्वांग-सुन्दर, पीताम्बर, सुन्दर आभूषणों से सजे सँवरे, क्षीरसागर में शेष-शय्या पर लेटे हुए, सभी सुख सुविधाओं से सम्पन्न! फिर भी भारत की कोमल-हृदय स्त्रियों को पति शिव जैसा हो, ऐसी ही अभिलाषा में गणगौर का व्रत रखती हैं। भारत की स्त्रियाँ अपने लिये ‘ अमीर व सुंदर पति की कामना न करके ‘औघड़’ की कामना में तपस्या करती जाती हैं! भारतीय स्त्री को विष्णु के चरणों के पास लक्ष्मी बन कर बैठना प्रिय नहीं है! उन्हें शिव का वह सान्निध्य प्रिय है जो अर्धांगिनी बना ले, हर विषय पर शिव-पार्वती संवाद करे, अपमान होने पर ताण्डव कर दे, संहारक बन जाये!
लोक और शास्त्र की अनगिनत कहानियों का विषय हैं शिव! वेदों के रुद्र से लोक के भोलेनाथ तक की यात्रा जब एक संस्कृत का विद्यार्थी सोचता है तो ‘शिव’ का लेखन कैलास और हिमालय जैसा विशाल विषय बन जाता है! यह बातें संस्कृत के कुछ पद्यों का अनुवाद भर हैं! शिव का दर्शन है, शिव के पुराण हैं, शिव के महाकाव्य हैं, शिव की स्तुतियाँ हैं और लोककथाओं का तो आनन्त्य है!
भारतीय पञ्चाङ्ग का सम्पूर्ण श्रावण मास शिवभक्तों के लिये उल्लास का पर्व है!द्वादश ज्योतिर्लिंगों के साथ साथ हर नगर हर गाँव का शिवमन्दिर पूरे महीने एक उत्सव के रंग में रंगा रहता है! प्रत्येक घर में पार्थिव-शिव का पूजन भगवान् शंकर की व्यापकता को द्योतित करने के लिये पर्याप्त है!
अन्तर्मन में जो उल्लास क्षण-प्रतिक्षण विकसित होता रहता है, वही शिवत्व है! हमारे लोक-मन में सावन प्रकृति की हरियाली से लेकर चूड़ियों और साड़ी की हरियाली तक रंगा बसा है!
शिव सौन्दर्य की कला के देव हैं! सौन्दर्य वह नहीं है, जिसके हम अभ्यस्त हैं! सौन्दर्य वह जिसमें मन रमता है! शिव ने नृत्य के लिए अंधेरे की ओर गमन करती संध्या को चुना, विचार करें, अंधेरा प्रकाशित किससे होता है? शिव से ही तो! कल्पना किजिए न, कैलास पर रत्नजडि़त सिंहासन पर जगत जननी उमा विराज रही हैं! क्षवाग्देवी की वीणा झंकृत हो उठी है, और लो!, इंद्र ने भी मुरली बजा दी! विष्णु मृदंग और ब्रह्मा करतल से दे रहे हैं ताल! भगवती रमा गा रही हैं- चन्द्रमा धारण किए डमरू बजाते शिव का नृत्य प्रारंभ हो गया! चहुं ओर भ्रमण करते तारों के साथ घूमने लगा आकाश! यही तो है, शिव का तेजोमय कला रूप! शिव का सौंदर्य, अरूप में रूप कहीं देखा है, और बताइए, इस नृत्य में और प्रकाश की क्या दरकार! यूं शिव रौद्र रूप हैं, पर सांध्य नृत्य सौम्य और मनोरम है! शिव ताण्डव स्त्रोत में रावण की व्यंजना है, ‘धिमि-धिमि बजते हुए मृदंग के गंभीर मंगल घोष के क्रमानुसार जिनका प्रचण्ड ताण्डव हो रहा है, उन भगवान शंकर की जय हो! नृत्यनाट्य के मूल हैं भगवान शिव! नृत्य के बाद उन्होंने डमरू बजाया। डमरू की ध्वनि से ही शब्द ब्रह्म नाद हुआ, यही ध्वनि चौदह बार प्रतिध्वनित होकर व्याकरण शास्त्र के वाक् शक्ति के चौदह सूत्र हुए! नृत्य में ब्रह्माण्ड का छन्द, अभिव्यक्ति का स्फोट सभी कुछ इसी में छिपा है! महर्षि व्याघ्रपाद ने जब शिव से व्याकरण तत्व को ग्रहण किया, तो इस माहेश्वर सूत्र की परम्परा के संवाहक बने पाणिनि! तो- अरूप में रूप, यही तो है न- शिव सौंदर्यम!
(मंजू काला मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल से ताल्लुक रखती हैं. इनका बचपन प्रकृति के आंगन में गुजरा. पिता और पति दोनों महकमा-ए-जंगलात से जुड़े होने के कारण, पेड़—पौधों, पशु—पक्षियों में आपकी गहन रूची है. आप हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लेखन करती हैं. आप ओडिसी की नृतयांगना होने के साथ रेडियो-टेलीविजन की वार्ताकार भी हैं. लोकगंगा पत्रिका की संयुक्त संपादक होने के साथ—साथ आप फूड ब्लागर, बर्ड लोरर, टी-टेलर, बच्चों की स्टोरी टेलर, ट्रेकर भी हैं. नेचर फोटोग्राफी में आपकी खासी दिलचस्पी और उस दायित्व को बखूबी निभा रही हैं. आपका लेखन मुख्यत: भारत की संस्कृति, कला, खान-पान, लोकगाथाओं, रिति-रिवाजों पर केंद्रित है.)