‘संझा’ देवी को सर्वाधिक प्रिय है सफेद फूल

मंजू दिल से… भाग-18

  • मंजू काला

कवार मास का प्रारंभ …यानी शरद ऋतु का आगमन जिसमे रंग-आकृति और गंध वाले फूलों की बहुतायत देखने को मिलती है. ये फूल केवल कला की उत्कृष्टता को इंगित नहीं करते वरन उनकी समग्र सुगंधावली का भी प्रस्फुटन करते हैं. इसी प्रकृति उल्लास के साथ बालिका पर्व यानी सांझी का शुभारंभ होता है. संझा बनाते समय लड़कियां because एक-एक फूल और उसकी पंखुड़ी को बड़े जतन से सहेजती हैं. संझा की ऋतु में जो फूल जिस अंचल में खिले मिलते हैं उन्हीं से संझा सजाई जाती है. मालवा तथा निमाड़ के क्षेत्रों में गुलगट्टे, गुलबास, गुलतेवड़ी के अलावा चंपा, चमेली, गुलाब, चांदनी, कनेर, गेंदा और अन्य फूल अधिकता में पाए जाते हैं

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संझा के अंकन के समय लड़कियां एक एक फूल और उसकी पंखुड़ियों से गोबर से अंकित संझा की आकृति पर श्रृंगार करती हैं. संझा का मूल अंकन गोबर से किया जाता है क्योंकि, गोबर से because किसी भी तरह की आकृति को सरलतापूर्वक उभार दिया जा सकता है और यह शीघ्र सूखता भी नहीं है. गाय के गोबर को मंगलिकक तथा पवित्र माना गया है. इसमें भी लड़कियां कुंवारी गाय अर्थात बछिया के गोबर का उपयोग करती हैं. गोबर को पानी मे मथकर लुगदी जैसा बनाया जाता है जिससे उस पर फूल और पत्तियां आसानी से चिपक जाते हैं.

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संझा के चित्रण में कुँवारे-कुवांरी जहां कौमार्य जीवन के महत्व को अंकित करते हैं वहीं नवमी को डोकरे व डोकरी के अंकन बुजुर्गों के प्रति आदरभाव दर्शाते हैं. इसके अंतर्गत यह because भाव होता है कि जिन कुँवारे-कुँवारियों अथवा बूढ़े-बुढ़िया का निधन हो गया है उन्हें स्मरण करना है. पंचमी को कुँवारी पांचम और नवमी को डोकरा नोमी कहा गया है.

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संझा को फूल और पंखुड़ियों से श्रंगारित करते समय इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता है कि कोई फूल अथवा पंखुड़ी नीचे नहीं गिरने पाए. अगर गिर जाती है तो उसका उपयोग संझा सज्जा के लिए नहीं किया जाता है. गौरवर्ण ‘संझा’ (देवी) को सफेद फूल सर्वाधिक प्रिय है. अपने पहनावे में वह फूलों के बूटों को अधिक महत्व देती .. हैं! उनका ..घाघरा .फूल भांत का था. आम रंग के घाघरे पर करेले भांत की बूटियां उनको..अधिक सुहाती है. शादी के बाद वह छटापटा का, because विभिन्न फलों के रंगों वाला अलग अलग रंगों की कलियों का घाघरा सिलवाने के लिए अपने बाबुल से कहती..है! उसके चीर पर छाबड़ी के भांते होते है. सहेलियां जब सांझी को पहनने ओढने के लिए पूछती हैं तो संझा.. अपना पसंदीदा पहनावा चूंदड़ ओढने ओर मिसरू पहनने को कहती..है! सिर पर सोने का बोर और मोतियों से मांग भरने को कहती है! आभूषणों में बिछिया, पायजेब, आंखों में काजल, माथे पर टीकी ..लगाना उन्हें सुहाता है! पान, हरिया गोबर, गेंदा फूल और सुंदर गहने कपड़े की.. होंस उनमें सदा बनी रहती है!

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यूँ..तो..संझा (पर्व) बालिकाओं के मांडने उकेरने और रंग संयोजन के साथ ही घर परिवार से जुड़ाव की शिक्षा का पाठ भी है. यह इन्हें यही संस्कार देती है. उनकी रुचियों को कलात्मक because बनाती है. संझा के एक गीत के अनुसार,, फूलों के माध्यम से जहां संझा का सतीत्व और पतिव्रत धर्म झलकता है वही कुँवारियों के भावी जीवन के because चारित्रिक आदर्श को बनाए रखने की सीख भी मिलती है.

संझा के माध्यम से हमारी संस्कृति के जितने भी सरोकार हैं उन सभी की प्राथमिक जानकारी और उनके निर्वाह की प्रक्रिया से बालिकाओं के सुंदर परिचय और सुखद प्रशिक्षण हो जाता है. गृहस्थ जीवन में धार्मिक और सामाजिक अनुष्ठान की मनोती करना, देवी देवताओं की पूजा करना, सामूहिक उल्लास में स्वयं की भागीदारी, सबके लिए सुख समृद्धि व मंगल कामना ये सब ऐसे प्रसंग हैं जो हर किसी के लिए आनंददायक हैं.

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कला जगत की इस चित्र पद्धति के जहां आधुनिक भारत्तीय चित्रकला में क्रांतिकारी परिवर्तन की सार्थकता से इंकार नहीं किया जा सकता वही यह पर्यावरण संस्कृति की दृष्टि से because कम महत्वपूर्ण नहीं है. फूल पत्ते, गोबर और आधार रूप में चौक बनाने के लिए जो गोबर मिश्रित पीली मिट्टी, गेरू अथवा हिरमची काम में ली जाती है वे शुद्ध…पर्यावरण की पोषक हैं!

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संझा के चित्रण में कुँवारे-कुवांरी जहां कौमार्य जीवन के महत्व को अंकित करते हैं वहीं नवमी को डोकरे व डोकरी के अंकन बुजुर्गों के प्रति आदरभाव दर्शाते हैं. इसके अंतर्गत यह भाव होता है कि जिन कुँवारे-कुँवारियों अथवा बूढ़े-बुढ़िया का निधन हो गया है उन्हें स्मरण करना है. पंचमी को कुँवारी पांचम और नवमी को डोकरा नोमी कहा because गया है. सप्तमी को हत्यारी सातम कहा गया है. इस दिन ऐसे वीर की आकृति उभारी जाती है जिसकी मृत्यु किसी के द्वारा करने से हुई हो अथवा स्वयं आत्महत्या की हो. ये मृत आत्माएं अशरीरी मानी जाती है जो अदृश्य होती है और जो बगैर मान सम्मानऔर प्रतिष्ठा के भटकती रहती हैं. इसलिए वर्ष में एक बार श्राद्ध पक्ष में इनका स्मरण कर इनका धूप ध्यान किया जाता है. यह भाव हमारे पूर्वजों से जुड़ने का अवसर देता है.

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कला जगत की इस चित्र पद्धति के जहां आधुनिक भारत्तीय चित्रकला में क्रांतिकारी परिवर्तन की सार्थकता से इंकार नहीं किया जा because सकता वही यह पर्यावरण संस्कृति की दृष्टि से कम महत्वपूर्ण नहीं है. फूल पत्ते, गोबर और आधार रूप में चौक बनाने के लिए जो गोबर मिश्रित पीली मिट्टी, गेरू अथवा हिरमची काम में ली जाती है वे शुद्ध…पर्यावरण की पोषक हैं!

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 यूँ तो ‘साँझी’ ब्रज की प्रसिद्ध ललित कला है. because यह बेहद बारीकी से चित्रण करने की कला है.  कहने को तो ब्रज की धरती पर कई सारी ललित कलाएं प्रचलित हैं, किन्तु उनमें साँझी का स्थान विशेष है. यह कह सकते हैं कि यह रंगोली और पेटिंग का मिला-जुला रूप है, लेकिन असल में इसका अलग ही महत्त्व है. बरसाना के लाड़ली जी मंदिर में पितृ पक्ष के प्रारंभ से ही रंगों की साँझी बनाई जाती है. जहाँ प्रतिदिन रात्रि को बरसाना के गोस्वामी साँझी के पद और दोहा गाते हैं.

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लोकनायक ..ललित बिहारी भगवान श्री कृष्ण और ललितकिशोरी रासेश्वरी श्री राधिकाजी की लीलास्थली ब्रजभूमि में हमारे देश की लोकरंजित सभी ललित कलाएँ खूब फली-फूली और विकसित हुई हैं. because जिस प्रकार ब्रज का अपना प्राचीन धार्मिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक इतिहास है, उसी प्रकार ब्रज की ललित कलाओं का भी एक लंबा इतिहास है. ब्रज या शूरसेन जनपद में ये सभी कलाएँ वहाँ के लोगों द्वारा अपनाई गईं और उनके द्वारा ही विकसित हुई. वैसे तो ललित कलाओं में स्थापत्य कला, मूर्तिकला, चित्रकला, संगीतकला सभी का समावेश है. पंरतु चित्रकला पर संगीतकला का ब्रल की कलाओं से विशेष संबंध कहा जा सकता है. कला का अर्थ है, जो चित्त को आनंद दे..वही-,

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‘कलयतीति कला’ है!

ब्रजचंद्र भगवान श्री कृष्ण लोकनायक थे. उन्होंने जो कुछ भी लीलाएँ कीं, रास आदि नृत्य किए, वे सब ब्रज के गोप- गोपांगनाओं को लेकर ही किए. वे कलानिधि थे, चौसठ कलाओं के ज्ञाता थे, because अतएव उन्होंने ब्रज के लोगों को कलानुराग का पाठ पढ़ाया. ब्रज एक वन्य प्रदेश, अनेक वृक्ष, लता और पुष्पों से युक्त यमुना- कूलवत्तीं ललित प्रदेश रहा है. इसी से यहाँ के लोकमानस पर वन और उपवनों में आनंद लेने का स्वभाव रहा है. यहाँ की स्थापत्य कला में बेलबूटेदार जालियाँ, तोरण और द्वार, स्तंभ ( खंभे ) देखने को मिलते हैं. मूर्तियों में पुष्पों के सुंदर श्रृंगार देखने को मिलते हैं तथा उत्सवों तक में फूलडोल आदि के उत्सव मनाए जाते हैं.

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ब्रज की सांझीकला भारतीय चित्रकला के क्षेत्र में अपना विशेष स्थान रखती है. वस्तुतः यह ब्रज की एक लोक चित्रकला है, जो वैसे तो वैदिक काल से यज्ञ में ॠषि- पत्नियाँ और ॠषि- कुमार यज्ञ because मंडप सजाने के लिए बनाते थे, परंतु भगवान श्री कृष्ण के काल से इसका विशेष लौकिक रुप सामने आया. सांझीकला चित्रकला की शिक्षा के लिए एक सरल साधन है. सांझी केवल हाथ की कला कुशलता ही नहीं दिखलाती, बल्कि इसके बनाने में भूमिति का ज्ञान और प्रकृति के सहवास के ज्ञान तथा अनुभव की भी आवश्यकता होती है.

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ब्रजभूमि प्राचीन ब्रह्मर्षि यज्ञभूमि भी..रही है. यज्ञों में वैदिक कर्मकांडी लोग अपने यज्ञ मंडपों को और विशेष कर यज्ञ कुंडों के चारों ओर हरिद्रा (हल्दी), कुमकुम, आटे से तथा अन्य रंगीन चूणा because से कमल, स्वास्तिक बेलबूटे, लता आदि मांगलिक चिह्म बनाकर कला प्रदर्शित करते थे. आज जिसे रांगोली भी कहते हैं. अतएव सूखे रंग की यह कला वैदिक काल से ही प्रचलित है. इसके अतिरिक्त ग्रामों में स्रियाँ अपने आश्रमों और घरों को पुष्पों से सजाती थीं. किंतु श्री कृष्ण के समय से यह पुष्पों से भी बनाई जाने लगी और सांझी नाम तभी से प्रसिद्ध हुआ.

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वैष्णव धर्म के वल्लभ संप्रदाय ने इस कला की रचना और विकास में निश्चय ही बहुत योगदान दिया. वल्लभ कुल के मंदिरों में, जिनमें भगवान श्री कृष्ण की बाल- भाव से सेवा होती है, because उनमें सांझी के उत्सव के 5 दिन (आश्विन कृष्णा एकादशी से अमावस्या तक ) नियत है. इन दिनों 5 दिन तक सायंकाल इन मंदिरों में विभिन्न प्रकार से सांझी बनाई जाती है और कीर्तन में सांझी के पद गाए जाते हैं.

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‘सांझी’ शब्द संध्या या सांझ शब्द से बना है. पुराणों की कथा के अनुसार श्री कृष्ण ने राधिकाजी को प्रसन्न करने के लिए शरद दिनों में यमुना के किनारे सांयकाल के समय सांझी बनाई थी. सायंकाल को जब श्री कृष्ण, राधिका तथा अन्य गोप- गोपियाँ, वन- उपवनों में विहार करने जाते थे. वहाँ के अनेक प्रकार के पुष्प चुनते थे because और कालिंदी के कलित कूल पर अथवा किसी वन- उपवन में पुष्पों को भूमि पर कलापूर्ण ढ़ंग से रखकर भूमि को सजाते थे. सांझी बनाने वनों में जाते समय वे अपना भी फूलों से खूब श्रृंगार करते थे. इस प्रकार सांझीकला श्री कृष्ण- राधा और सांझ समय से संबंध रखती है. तभी तो यह कला शरद ॠतु में आसौज (अक्टूबर के आसपास) के महीने में ब्रज में बनाई जाती है. यह भी जनश्रुति है कि कुमारी कन्याएँ शरदकाल में नवरात्रि से पूर्व गौरी के प्रसन्नार्थ यह अनुष्ठान करती हैं. धीरे- धीरे ब्रज के कलाकारों ने इस कला की उन्नति कर, उसे विकसित कर पूर्ण कला रुप दे दिया.

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ब्रज की इस कला को पास के दूसरे प्रदेशें में जैसे राजस्थान, गुजरात तथा मध्य भारत के भी कलाकारों ने अपनाया और इसको अधिक कलापूर्ण बनाने में अपना योग दिया. because ब्रज के इस कला के रसिकों ने इसको अनेक साधनों से बनाया — फूलों की, रांगे के फूलों की, सूखे रंग की, जमीन पर और पानी पर. गाँवों में ग्रामीण बालिकाएँ और स्रियों द्वारा गोबर की सांझी बनाई जाती है तथा ग्रामीण अपने मकान के चौकों में खड़िया और गेरु से चौक पूरते हैं. इसे प्रकार ब्रज और राजस्थान में कई प्रकार की सांझियाँ बनाई जाती हैं.

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पराधीनता के उस युग में जैसे हमारी शिक्षा, कला और संस्कृति का नाश हुआ, उसके अनुसार इस कला का भी ह्रास हुआ. उत्सवों में जन-जन का वह आनंद लोप हो गया because और यह सांझीकला 5 दिन केवल मंदिरों में, ग्रामों में गोबर की सांझी के रुप में रह गई.. है!  आज जरूरत इस बात की है कि राधाकृष्ण की इस विरासत को हम आने वाली पीढ़ियों  के लिए संजो कर रखें!

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वैष्णव धर्म के वल्लभ संप्रदाय ने इस कला की रचना और विकास में निश्चय ही बहुत योगदान दिया. वल्लभ कुल के मंदिरों में, जिनमें भगवान श्री कृष्ण की बाल- भाव से सेवा होती है, because उनमें सांझी के उत्सव के 5 दिन (आश्विन कृष्णा एकादशी से अमावस्या तक ) नियत है. इन दिनों 5 दिन तक सायंकाल इन मंदिरों में विभिन्न प्रकार से सांझी बनाई जाती है और कीर्तन में सांझी के पद गाए जाते हैं. यह परंपरा गोस्वामी विट्ठलनाथजी के समय से प्रारंभ हुई. वल्लभ संप्रदाय के अतिरिक्त अन्य वैष्णव भक्तों ने भी सांझी की महिमा गाई है. संगीत शिरोमणि स्वामी हरिदासजी ने सांझी पर एक बड़ा पद लिखा है, उसका कुछ ही अंश हम यहाँ देते हैं –

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सखी वृंद सब आय जुरीं वृषभान नृपति के द्वार.
बीननि फूल चलौ बन राधे, नव सज साज सिंगार..
ये सुनि कीरति जू हंसिकै प्यारी कौ कियौ सिंगार.
कवरी कुसुम गुही है मानों उरगन की अनुहार..

चलति चाल मराल बाल सी राधा सखियन मांझ.
बीनति फूलनि जमुना कूलनि खेलति सांझी सांझ..
जाल रंध्र देखत मनमोहन दृष्टि परी ब्रजबाल.
तिरिया रुप कियौ है तब हीं आय मिले तत्काल..

छबि निखति वृषभान दुलारी भौत करी मनुहार.
बीनत फूल अकेली हेली को है तू सुकुमार..
कौन गाँव बसति हौ सुंदरि कहा तिहारौ नाम.
आजु अबेर भई है प्यारी चलौ हमारे धाम..

नंदगाँव में बास बसति हौं सांवरि मेरौ नाम.
सांझी मिसि आई हौं या बन कुंजें मन के काम..
सोनजुही, चमेली, चंपा, राइ, बेलि औ बेलि.
गुलाबांस के गेंद परे का करत परसपरि केलि..

कमल कनेर केतकी निबौरा सेबति सदा गुलाब.
गुलतुर्रा औ सदासुहागिनि फूलन की भरि छाब.
ललिता, चंपकलता, बिसाखा, श्यामा, भामा जेह..
चंद्रभगा, तुंगा, चंद्रावलि अहि करि अति नेह.

ठौर ठौर सब कहति सखिन सों चलौ भटू घर जांहि.
श्यामजू औ नबल सखी दोऊ, गही परसपरि बांहि..
फूल गेंद सबहिन लिए कर गावत सांझी गीति.
गजगति चाल चलति ब्रज सुंदरि, बदी वरम रस प्रीति..

केसर चंदन और अर्गजा, मृगमद कुमकुम गारि.
कामधेनु कौ गोबर लै कैं सांझी धरति सम्हारि..
बरनों कहा अल्प मति मेरी, रसना एक बनाई.
“श्री हरिदास’ प्रभु की ये सोभा निरखति मन न अघाई..

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इस पद से तथा अन्य सांझी के कीर्तन पदों से स्पष्ट है कि यह ब्रज के लोगों का शरदकालीन पुष्पोत्सव था. इन दिनों में गोप- गोपियाँ पुष्पों की सजावट के कलापूर्ण उल्लास समय उत्सव मनाते थे. बाद में लोग सूखे रंग की व रांगे के फूलों की सांझी बनाने लगे. वल्लभ कुल के मंदिरों में जो सूखे रंग की सांझी बनाई जाती है, because उसमें केवल श्री कृष्ण से संबंधित लीलाएँ एवं ब्रज के स्थान विशेष प्रदर्शित होते हैं. परंतु बाद में जो मथुरा में सांझी अन्य स्थानों पर बनती थी, उसमें रामलीला तथा अन्य लीलाएँ भी दिखाई जाती थी. पराधीनता के उस युग में जैसे हमारी शिक्षा, कला और संस्कृति का नाश हुआ, उसके अनुसार इस कला का भी ह्रास हुआ. उत्सवों में जन-जन का वह आनंद लोप हो गया और यह सांझीकला 5 दिन केवल मंदिरों में, ग्रामों में गोबर की सांझी के रुप में रह गई.. है!  आज जरूरत इस बात की है कि राधाकृष्ण की इस विरासत को हम आने वाली पीढ़ियों  के लिए संजो कर रखें!

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(मंजू काला मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल से ताल्लुक रखती हैं. इनका बचपन प्रकृति के आंगन में गुजरा. पिता और पति दोनों महकमा-ए-जंगलात से जुड़े होने के कारण, because पेड़—पौधों, पशु—पक्षियों में आपकी गहन रूची है. आप हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लेखन करती हैं. आप ओडिसी की नृतयांगना होने के साथ रेडियो-टेलीविजन की वार्ताकार भी हैं. लोकगंगा पत्रिका की संयुक्त संपादक होने के साथ—साथ आप फूड ब्लागर, बर्ड लोरर, टी-टेलर, बच्चों की स्टोरी टेलर, ट्रेकर भी हैं. नेचर फोटोग्राफी में आपकी खासी दिलचस्‍पी और उस दायित्व को बखूबी निभा रही हैं. आपका लेखन मुख्‍यत: भारत की संस्कृति, कला, खान-पान, लोकगाथाओं, रिति-रिवाजों पर केंद्रित है.)

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