- एम. जोशी हिमानी
हमारे देश के अन्य हिस्सों की तरह उत्तराखंड में भी हर खेत, हर पहाड़ का कोई न कोई नाम होता है. मेरी जन्मभूमि पिथौरागढ़ के ‘नैनी’ गांव के चारों तरफ के पहाड़ों के भी नाम हैं जैसे- कोट, हरचंद, ख्वल, घंडद्यो, भ्यल आदि.
नैनी के पीछे सीधे खड़ा दुर्गम, बहुत ही कम पेड़ों वाला भ्यल नामक पहाड़ अनेक डरावने रहस्यों से भरा हुआ है. इसके बारे में कहा जाता है कि यह पहाड़ हर तीसरे साल मनुष्यों की बलि लेता है. अनेक आदमी-औरतें आज तक इस पहाड़ से गिरकर अकाल मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं.
उन दिनों जमतड़ गांव के लोग हफ्तों पहले से इलाके वालों को आगाह कर दिया करते थे कि भ्यल रात में तड़कने लगा है. वह अजीब-सी डरावनी आवाजें करने लगा है. इसलिए सब लोग सतर्क हो जाएं, भ्यल की तरफ जाना बंद कर दें. रात में पहाड़ के रोने, थरथराने का क्रम तब तक जारी रहता था जब तक पहाड़ से कोई गिर कर मर न जाए. उसके बाद पहाड़ दो साल तक शांत हो जाया करता था.
इस पहाड़ के ठीक सामने बसा है बड़ी ही उपजाऊ भूमि और घने जंगलों से आच्छादित अपने जमाने के रजवाड़ों का गांव ‘जमतड.’, जिसके सभी लोग अरसा पहले हल्द्वानी आकर बस गए हैं और वह समतल जमीन पर बसा उपजाऊ गांव उत्तराखंड के अन्य गांवों की तरह पलायन की पीड़ा झेल रहा है.
हां तो बात हो रही थी भ्यल नामक पहाड़ की.
उन दिनों जमतड़ गांव के लोग हफ्तों पहले से इलाके वालों को आगाह कर दिया करते थे कि भ्यल रात में तड़कने लगा है. वह अजीब-सी डरावनी आवाजें करने लगा है. इसलिए सब लोग सतर्क हो जाएं, भ्यल की तरफ जाना बंद कर दें. रात में पहाड़ के रोने, थरथराने का क्रम तब तक जारी रहता था जब तक पहाड़ से कोई गिर कर मर न जाए. उसके बाद पहाड़ दो साल तक शांत हो जाया करता था.
लेकिन कहते हैं न होनी को कौन टाल सकता है. यही वहां भी होता था कोई न कोई किसी कारण से भ्यल का रुख करता और पहाड़ से गिरकर दुःखद मौत का शिकार हो जाता था. और उसके बाद शुरू हो जाता अकाल मृत्यु से भटकती आत्माओं का उपद्रव.
मुझे अपनी किशोरावस्था में अपने सामने घटित वो वाक्या आज भी तकलीफ देता है, जब सत्रह-अठारह बरस की नीचे गांव की एक नवविवाहिता अन्य औरतों के साथ भ्यल चली गई थी घास काटने. सुबह उसकी सास ने उसे मना किया था कि अभी तुम्हारे ब्याह को महीना भर भी नहीं हुआ है और तुम को इतने कठिन पहाड़ में घास काटने की आदत भी नहीं है. मेरा बेटा यानी तुम्हारा पति परसों ही फौज के लिए छुट्टी बिताकर अपनी ड्यूटी में वापस गया है. लेकिन अति उत्साह में बहू अपनी नई बनी सखियों के साथ भ्यल चली गई थी यह कहकर कि -‘ एक न एक दिन तो मुझे जंगल घास काटने जाना ही होगा तो अभी से क्यों नहीं?…’
भ्यल पहुंचने के घंटे भर के अंदर ही वह नई बहू पहाड़ से लुढ़क कर एक खाई में समा गई थी. पटवारी की उपस्थिति में कई घंटों की मशक्कत के बाद उसके शरीर के कुछ टुकड़े हाथ आये थे. उसके बाद कई वर्षों तक उसने भूतरूप में लोगों का भ्यल की तरफ जाना असम्भव कर दिया था.
बरसात में भ्यल में लम्बी-लम्बी घास उगती है. घास के लालच में कोई पहाड़ का रूख न करे और उसकी बलि का बकरा न बने, इस उद्देश्य से बरसात खत्म होते ही भ्यल की घास में आग लगा दी जाती है. बावजूद इसके न जाने क्या बात है कि समय आने पर अब भी कोई न कोई भ्यल की क्रूरता का शिकार हो ही जाता है.
अब कितना सुखद है कि गांवों में भी गैस सिलेंडर पर खाना बनता है. पहाड़ की महिलाएं अब इन ऊंचे, दुर्गम पहाड़ों पर घास काटने, लकड़ी बीनने भी नहीं जाती हैं. पहले की तरह वहां की महिलाओं का जीवन अब उतना कठिन नहीं रहा. अब चरवाहे भी अपने पशुओं को चराने इस ओर नहीं जाते हैं.
या यूं कहिए कि भौतिक प्रगति के कारण लोग अब गांवों में भी अपनी आवश्यकता भर को एक-दो पशु से अधिक नहीं पालते हैं.
बरसात में भ्यल में लम्बी-लम्बी घास उगती है. घास के लालच में कोई पहाड़ का रूख न करे और उसकी बलि का बकरा न बने, इस उद्देश्य से बरसात खत्म होते ही भ्यल की घास में आग लगा दी जाती है. बावजूद इसके न जाने क्या बात है कि समय आने पर अब भी कोई न कोई भ्यल की क्रूरता का शिकार हो ही जाता है.
इस दुनियां में कितने ही रहस्य ऐसे हैं, आप चाहे कितना ही साइंस पढ़े हों, कुछ बातों पर अचरज के साथ विश्वास करना ही पड़ता है.
(लेखिका पूर्व संपादक/पूर्व सहायक निदेशक— सूचना एवं जन संपर्क विभाग, उ.प्र., लखनऊ. देश की विभिन्न नामचीन पत्र/पत्रिकाओं में समय-समय पर अनेक कहानियाँ/कवितायें प्रकाशित. कहानी संग्रह-‘पिनड्राप साइलेंस’ व ‘ट्यूलिप के फूल’, उपन्यास-‘हंसा आएगी जरूर’, कविता संग्रह-‘कसक’ प्रकाशित)