“बृहत्संहिता में शिलाभेदन के रासायनिक फार्मूले”

असगोली की ग्राउंड रिपोर्ट सहित 
“जलस्रोतों को पुनर्जीवित करने से भी बड़ा काम है,because उनकी सड़क माफियों के अत्याचार से रक्षा करना.”

भारत की जल संस्कृति-21

  • डॉ. मोहन चंद तिवारी

हम जब प्राचीन काल की गुफाओं अजन्ता, so ऐलोरा,मंदिरों,कुओं और विशाल जलाशयों आदि को देखते हैं तो आश्चर्य होता है कि आखिर कैसे इन विशाल गुफाओं की भूमिगत विशाल शिलाओं को खंड-खंड करके इतनी सुंदरता के साथ इनका निर्माण किया गया होगा? केवल छैनीं, कुदाल और हथौड़ों के उपकरणों से तो इनका निर्माण सम्भव नहीं लगता है. इसी सन्दर्भ में जब अपने प्राचीन ग्रन्थों में विवेचित भारत की रासायनिक विधियों का अन्वेषण करते हैं तो वराहमिहिर की बृहत्संहिता उनमें से रासायनिक शिलाविज्ञान का मुख्य ग्रन्थ सिद्ध होता है.

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बृहत्संहिता में जल वैज्ञानिक आचार्य वराहमिहिर द्वारा अनेक ऐसे उपाय और विधियां बताई गई हैं,जिनसे जलाशय या कूप उत्खनन के समय में हो रही कठिनाइयों और कठोर तथा न टूटने but वाले विशाल चट्टानों को पर्यावरण सम्मत रासायनिक तरीकों से बहुत आसानी से तोड़ा या फोड़ा जा सकता है. इस सम्बंध में वराहमिहिर ने भूमिगत कठोर शिलाओं और चट्टानों को तोड़ने और फोड़ने के अनेक रासायनिक फार्मूले बताए हैं,जो प्राचीन काल के कुओं और जलाशयों के उत्खनन में बहुत उपयोगी रहे थे. वराहमिहिर द्वारा बताए गए ये रासायनिक नुस्खे या फार्मूले इस प्रकार हैं-

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1. कूप आदि खोदने के because समय यदि कोई पत्थर की चट्टान निकले और वह फूटे नहीं तो उस पर ढाक और तेंदु की लकड़ी जलाकर उसे लाल करके ऊपर चूने की कली मिला पानी छिड़कने से वह चट्टान टूट जाती है –

“भेदं यदा becauseनैति शिला तदानीं
पलाशकाष्ठैः becauseसह तिन्दुकानाम्.
प्रज्वालयित्वाअनलं becauseअग्निवर्णा
सुधाम्बुसिक्ता becauseप्रविदारं एति..”
        -बृहत्संहिता,54.112

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2. मरुवा पेड़ की becauseभस्म मिलाकर पानी उबालकर उसमें शरका खार मिला कर फिर अग्नि से तपाई शिला के ऊपर वह पानी सात बार छिड़कने से वह चट्टान टूट जाती है-

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“तोयं श्रृतं मोक्षकभस्मना
वा यत्सप्तकृत्वःपरिषेचनं तत्.
कार्य शरक्षारयुतं शिलायाः
प्रस्फोटनं वह्निवितापितायाः..”
            -बृहत्संहिता,54.113

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3. छाछ,कांजी,becauseसुरा (मद्य) और कुलथी, इन सबों को मिलाकर एक बर्तन में सात रात तक रख देना चाहिए. उसके बाद में अग्नि से तपाई हुईं शिला पर उस मिश्रण को बार-बार छिड़कने से शिला टूट जाती है-

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“तक्रकाञ्जिकसुराः सकुलत्था
योजितानिbut बदराणि च तस्मिन्.
सप्तरात्रंso उषितान्यभितप्तां
दारयन्ति becauseहि शिलां परिषेकैः..”
           -बृहत्संहिता,54.114

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4. नींबू का becauseपत्ता,छाल, तलसरा,अपामार्ग, तिन्दुक की लकड़ी,गुडुची आदि इन तमाम वस्तुओं को गोमूत्र में रखकर क्षार बनावें तत्पश्चात् कुएं के नीचे आने वाली भूमिगत शिला को सुलगा कर लाल कर दें,एवं उस क्षार का छींटा छह बार मारें, तो वज्र जैसी कठोर शिला भी टूट जाती है-

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“नैम्बं पत्रं त्वक्च नालं तिलानां
सापामार्गं तिन्दुकं becauseस्याद् गुडूची.
गोमूत्रेण स्तनावितः soक्षार एषां
षट्कृत्वोऽतस्तापितो butभिद्यतेऽश्मा॥”
         -बृहत्संहिता,54.115

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इस सम्बंध में बताना चाहुंगा कि आधुनिक becauseकाल में भूमिगत उत्खनन के लिए बारूदी सुरंगों या डायनामाइट का जो प्रयोग किया जाता है,वह तरीका न केवल पर्यावरण विज्ञान के विरुद्ध है बल्कि ऐसा करने से भूमिगत जल नाड़ियों का प्राकृतिक जलविज्ञान भी छिन्न भिन्न हो जाता है और भूमिगत ‘एक्वीफर्स’ यानी चट्टानों के जलसरोवरों में प्राकृतिक जल रिसाव की प्रक्रिया हमेशा के लिए अवरुद्ध हो जाती है.

आधुनिक जेसीबी मशीनों द्वारा तोड़े becauseगए असगोली पहाड़ की ग्राउंड रिपोर्ट

पहाड़ की चट्टानों को प्राचीन becauseरासायनिक तकनीकों से तोड़े जाने के सन्दर्भ में जब हम वर्त्तमान काल में चट्टानों को तोड़ने की तकनीकों की तुलना प्राचीन काल की बृहत्संहिता में प्रतिपादित शिलाभेदन की रासायनिक विधियों से करते हैं, तो भूविज्ञान और जलविज्ञान से सम्बद्ध वर्त्तमानकालीन अनेक प्रकार की पर्यावरण सम्बन्धी विकृतियां भी सामने आने लगती हैं,जिनके कारण आज खासकर उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में भूमिगत जल के नष्ट होने की गतिविधियां बढ़ी हैं.

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इस सन्दर्भ में बताना चाहूंगा कि becauseनौला फाउंडेशन’ के द्वारा उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र के परंपरागत जलस्रोतों- नौलौं, धारों को संरक्षित,संवर्धित करने के अभियान के तहत 11-12 अगस्त, 2019 को द्वाराहाट स्थित असगोली क्षेत्र में एक द्विदिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया था.पिछले साल आयोजित इसी जलवैज्ञानिक कार्यशाला के दौरान मेरे द्वारा किए गए चट्टानों के सर्वेक्षण और निरीक्षण से यह बात सामने आई कि असगोली क्षेत्र किसी समय अपने प्राकृतिक जलस्रोतों की दृष्टि से काफी सम्पन्न और जलबहुल जलागम क्षेत्र रहा था.

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किंतु जब से यहां सड़कों के चौड़ीकरण के दौरान सड़क निर्माता ठेकेदारों द्वारा जेसीबी मशीनों द्वारा बेरहमी और गैर जिम्मेदाराना ढंग से पहाड़ों के जलवाहक चट्टानों को काटा because और तोड़ा फोड़ा गया उससे उत्पन्न भूवैज्ञानिक विकृतियों के परिणाम स्वरूप यहां सदियों से प्राकृतिक because रूप से विद्यमान चट्टानों के जल सरोवर (एक्वीफर्स), अनेक प्रकार के सदाबहार जलस्रोत और एक बहुत बड़े गांव को पेयजल की आपूर्ति करने वाले नौले, धारे, खाल, ताल आदि परम्परागत जलस्रोत सूखते गए. मैंने वहां अनेक वरिष्ठ नागरिकों से यह जानकारी प्राप्त की और स्वयं जाकर  मोटरमार्ग पर तराशी गई उन जल चट्टानों की  निशानदेही और वीडियो रिकार्डिंग भी की, जिनके कुछ खास चित्र भी यहां संलग्न कर रहा हूं.

इसी सन्दर्भ में ग्राम के पूर्वप्रधान बालम सिंह अधिकारी द्वारा दी गई सूचना के आधार पर यह बात भी संज्ञान में आई कि जहां सड़क बनने के आठ दस साल पहले तक गांव के नौलों because और खालों में भारी मात्रा में पानी का स्रोत फूटता था वहां अब सड़क निर्माण के दौरान जल शिलाओं को नष्ट-भ्रष्ट कर दिए जाने के कारण भूमिगत जलस्रोत सूख चुके हैं और इस पहाड़ के नीचे जितने भी सदियों पुराने नौले,धारे,खाल तालाब थे वे सब भी आज जलविहीन हो चुके हैं.ऐसा ही हाल छतीना खाल और मैनोली ग्राम के गणेश नौलों के साथ भी हुआ. वहां भी सड़क के चौड़ीकरण के बाद कत्यूरी काल से चले आ रहे गणेश के नौले सहित बहुत से नौले लुप्त हो चुके हैं,जिन्हें अब पुनर्जीवित करना बहुत कठिन है.

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द्वाराहाट में पधारे जल वैज्ञानिक और भूगर्भ विशेषज्ञों ने असगोली ग्राम की इस ग्राउंड रिपोर्ट के आधार पर भौगोलिक और पर्यावरण वैज्ञानिक पृष्ठभूमि में विचार विमर्श करते हुए यह निष्कर्ष भी निकाला है कि उत्तराखंड जैसी पर्वतीय पारिस्थितिकी में इन पर्वतीय जल शिलाओं की जलस्रोतों के संरक्षण में महती भूमिका रहती है because और इन जल शिलाओं से जुड़ी जल नाड़ियों के अंतर्जाल को जेसीबी आदि भारी भरकम मशीनों से यदि ध्वस्त कर दिया जाता है तो वहां के पार्श्ववर्ती और बहुत दूर दूर तक के नदी,नौलों के जलस्रोत भी धीरे धीरे सूखने लगते हैं.

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हालांकि नौला संरक्षण अभियान के तहत  द्वाराहाट क्षेत्र के असगोली,मैनोली और छतीनाखाल के ग्रामवासियों द्वारा वहां लुप्त होते जलाशयों को पुनर्जीवित करने और बचे-खुचे नौलों केbecause संरक्षण का जो अभियान चलाया जा रहा है, वह सराहनीय है और जागरूकता की दृष्टि से भी आज बहुत जरूरी है. पर आज जल संरक्षण के प्रति जन सामान्य का सबसे बड़ा सामाजिक दायित्व यह है कि वे अपने क्षेत्र के भूमिगत जलसरोवरों की हत्या करने वाले सड़क बनाने वाले ठेकेदार माफियों से बचाए रखें.

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पहाड़ के जलस्रोतों की रक्षा के लिए क्षेत्रवासियों और सरकारी पीडब्ल्यूडी को इस ओर विशेष सावधान becauseऔर सतर्क रहने की आवश्यकता है कि सड़क चौड़ीकरण के दौरान ठेकेदारों द्वारा पहाड़ों को तोड़ने के लिए जेसीबी मशीनों का प्रयोग बिल्कुल न किया जाए और हल्के तथा लघु उपकरणों द्वारा ही पहाड़ों का कटान किया जाए ताकि वहां परंपरागत जलशिराओं और ‘एक्वीफर्स’ में बहने वाले जलस्रोतों को हानि न पहुंचे.

सरकार के becauseद्वारा ठेकेदारों को यह गाइड लाइन भी दी जानी चाहिए कि सड़क निर्माण करते हुए वे इन पहाड़ों को तोड़ने के लिए बारूदी डायनामाईट का प्रयोग कदापि न करें, ताकि जल चट्टानों के भीतर प्रकृति द्वारा मानव कल्याण हेतु संरक्षित जलनाडियों की रक्षा becauseसुरक्षा हो सके और हमारे सूखते तथा लुप्त होते जलस्रोत भावी पीढ़ी के लिए भी संरक्षित और जीवित रह सकें. सरकार द्वारा ठेकेदारों को यह जरूरी दिशा निर्देश भी दिया जाना चाहिए कि सड़क चौड़ीकरण के दौरान उसका मलवा नदियों और पार्श्ववर्ती गाड़-गधेरों में नहीं डाला जाए ताकि नदियों और चट्टानों के मध्य जो जलरिसाव की प्रक्रिया होती है,वह अवरुद्ध न हो.

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नौलों, गाड़ गधेरों को becauseपुनर्जीवित करने से भी बड़ा अभियान है अन्ध विकासवादी आसुरी योजनाओं से अपने प्राकृतिक जल स्रोतों की रक्षा करना, विकासवाद के नाम पर इन जलस्रोतों की जो बेरहमी से हत्या हो रही है,उसके विरुद्ध पर्यावरणविदों और जल संरक्षण से जुड़े संगठनों को आवाज उठानी चाहिए.हमें जलवैज्ञानिक वराहमिहिर की जल संरक्षण की योजनाओं पर अमल करने की बहुत जरूरत है.वरना तो अन्ध विकासवादी योजनाओं और सड़क चौड़ीकरण के नाम पर हिमालय के पारम्परिक जलस्रोतों का लुप्तीकरण होता रहेगा.

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अंत में कहना चाहूंगा कि नौलों, becauseगाड़ गधेरों को पुनर्जीवित करने से भी बड़ा अभियान है अन्ध विकासवादी आसुरी योजनाओं से अपने प्राकृतिक जल स्रोतों की रक्षा करना, विकासवाद के नाम पर इन जलस्रोतों की जो बेरहमी से हत्या हो रही है,उसके विरुद्ध पर्यावरणविदों और जल संरक्षण से जुड़े संगठनों को आवाज उठानी चाहिए.हमें जलवैज्ञानिक वराहमिहिर की जल संरक्षण की योजनाओं पर अमल करने की बहुत जरूरत है.वरना तो अन्ध विकासवादी योजनाओं और सड़क चौड़ीकरण के नाम पर हिमालय के पारम्परिक जलस्रोतों का लुप्तीकरण होता रहेगा.

सभी चित्र असगोली पहाड़ के : becauseफोटो डॉ. मोहन चंद तिवारी

अगले लेख में पढ़िए- “बृहत्संहिता में नौला,वापी कूप निर्माण की पारम्परिक विधियां”

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्रपत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)

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