स्वंत्रता संघर्ष के क्रांतिकारी जननायक पं.गोविंद बल्लभ पंत 

पं. गोविंद बल्लभ पंत की जन्मजयंती (10 सितंबर) पर

  • डॉ. मोहन चंद तिवारी

भारत के स्वतंत्रता संग्राम की संघर्ष पूर्ण कहानी आज भी लोगों के दिलों में क्रांति की अलख जलाती है. ऐसे ही स्वतंत्रता संघर्ष के  क्रांतिकारी जननायकों में से पंडित गोविंद बल्लभ पंत जी की आज जन्म जयंती है. उत्तराखंड के प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी, उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री और भारत रत्न से सम्मानित पंडित गोविंद बल्लभ पंत जी का जब हम एक क्रांतिकारी स्वंत्रता सेनानी के रूप में और एक व्यवहार कुशल राजनेता के रूप में मूल्यांकन करते हैं तो उत्तराखंड के जन नायक होने के नाते भी विशेष आदर का भाव उमड़ने लगता है. पंडित पंत जी का राजनीतिक जीवन शुचिता, कर्मठता और व्यवहारिक कुशलता की दृष्टि से भी एक मिसाल के तौर पर आज याद किया जाता रहा है.स्वाधीनता के लिए इस उत्तराखंड के  क्रांतिकारी योगदान को आसानी से भुलाया नहीं जा सकता है.

पंडित गोविंद बल्लभ पंत का जन्म 10 सितंबर,1887 में उत्तराखंड स्थित अल्मोड़ा जनपद के खूंट गांव में हुआ था. गोविन्द बल्लभ पंत के पिता का नाम श्री ‘मनोरथ पन्त’ और माता का नाम श्रीमती गोविन्दी पंत था. श्री मनोरथ पंत गोविन्द के जन्म से तीन वर्ष के भीतर अपनी पत्नी के साथ पौड़ी गढ़वाल चले गये थे. बालक गोविन्द दो-एक बार पौड़ी गया परन्तु स्थायी रूप से अल्मोड़ा में ही रहा.उसका लालन-पोषण उसकी मौसी ‘धनीदेवी’ ने किया. शुरू की शिक्षा अल्मोड़ा में ग्रहण करने के बाद 1905 में पंत इलाहाबाद चले गए और 1907 में वकालत की डिग्री ली. इसके बाद 1910 में वापस अल्मोड़ा चले आए,जहां उन्होंने वकालत शुरू की. 9 अगस्त,1924 को उत्तर प्रदेश में काकोरी कांड के नौजवानों को बचाने के लिए पंत जी ने जान की बाजी लगा दी. इनकी वकालत का सभी लोग लोहा मानते थे. अल्मोड़ा में एक बार मुकदमे में बहस के दौरान उनकी मजिस्ट्रेट से बहस हो गई.अंग्रेज मजिस्ट्रेट को इंडियन वकील का कानून की व्याख्या करना बर्दाश्त नहीं हुआ. मजिस्ट्रेट ने गुस्से में कहा, ”मैं तुम्हें अदालत के अन्दर नहीं घुसने दूंगा”. गोविन्द बल्लभ पंत ने कहा, ”मैं आज से तुम्हारी अदालत में कदम नहीं रखूंगा”.

वैसे तो गोविंद बल्लभ पंत गांधी जी के समर्थकों में थे, लेकिन क्रांतिकारी विचारधारा वाले नौजवानों के साथ उनकी विशेष सहानुभूति रहा करती थी.1927 में राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ और उनके तीन अन्य साथियों को फांसी के फंदे से बचाने के लिए उन्होंने पंडित मदन मोहन मालवीय के साथ वायसराय को पत्र भी लिखा, लेकिन उस मिशन में कामयाब न हो सके. पंत जी ने साइमन कमीशन बहिष्कार और नमक सत्याग्रह आंदोलन में भी भाग लिया और इसी वजह से मई 1930 में देहरादून जेल की हवा भी खायी. पंत जी ने कुमाऊं में ‘राष्ट्रीय आन्दोलन’ को गांधी जी के ‘अंहिसा’ के सिद्धांतों के आधार पर संगठित किया. आरम्भ से ही कुमाऊं के राजनीतिक आन्दोलन का नेतृत्व पंत जी के हाथों में रहा. कुमाऊं में राष्ट्रीय आन्दोलन का आरम्भ कुली उतार, जंगलात आंदोलन, स्वदेशी प्रचार तथा विदेशी कपडों की होली व लगान-बंदी आदि से हुआ था. बाद में धीरे-धीरे कांग्रेस द्वारा घोषित असहयोग आन्दोलन की लहर कुमाऊं में छा गयी और 1926 के बाद यह कांग्रेस में मिल गयी.

1916 में ‘कुमाऊं परिषद’ का गठन हुआ और इसके सांगठनिक सचिव पंत जी ही थे. पहाड़ के लोग वनों पर ही आश्रित थे, ऐसे में उनके हक-हकूक प्रभावित हो रहे थे. 1920 में जनता ने असहयोग आंदोलन के समय जंगलों में आग भी लगा दी थी. वनाधिकार कानून आदि से लोगों को किस तरह की परेशानी हो रही थी, इस पर गोविंद बल्लभ पंत ने 1922 में ‘फॉरेस्ट प्रॉब्लम इन कुमाऊं’ पुस्तक लिखी.

पंत जी ने न केवल राजनैतिक तरीकों से, बल्कि लेखन के माध्यम से भी लोगों को आजादी की मुहिम में शामिल होने के लिए  प्रेरित किया. कुमाऊं में अंग्रेजों के शासन से पहले गोरखाओं का शासन था,उनका प्रशासन और न्याय करने का तरीका बेहद क्रूर था. जब 1815 को अंग्रेजों का शासन कुमाऊं में शुरू हुआ, तो उन्होंने ‘फारेस्ट एक्ट’ बनाने के साथ ही वनों को आरक्षित एवं संरक्षित की नीति घोषित कर दी. ऐसे में लोगों को अंग्रेजों के खिलाफ तैयार करने के लिए गोविंद बल्लभ पंत ने कमान संभाली. 1916 में ‘कुमाऊं परिषद’ का गठन हुआ और इसके सांगठनिक सचिव पंत जी ही थे. पहाड़ के लोग वनों पर ही आश्रित थे, ऐसे में उनके हक-हकूक प्रभावित हो रहे थे. 1920 में जनता ने असहयोग आंदोलन के समय जंगलों में आग भी लगा दी थी. वनाधिकार कानून आदि से लोगों को किस तरह की परेशानी हो रही थी, इस पर गोविंद बल्लभ पंत ने 1922 में ‘फॉरेस्ट प्रॉब्लम इन कुमाऊं’ पुस्तक लिखी. जाने-माने इतिहासकार डॉ. अजय रावत बताते हैं कि उनकी यह पुस्तक खास तौर से वन और पानी के अधिकार पर फोकस थी. इस पुस्तक से जनता में असंतोष बढ़ने का डर था. अंग्रेज भी इस पुस्तक से इतने भयभीत हो गए थे कि उन्होंने उस पर प्रतिबंध लगा दिया था. बाद में इस पुस्तक को 1980 में पुन: प्रकाशित किया गया.

देश आजाद होने के बाद पंडित गोविंद बल्लभ पंत 26 जनवरी,1950 को उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री बने. सरदार बल्लभ भाई पटेल के निधन के बाद वे 1955 में भारत के गृहमंत्री बने.इस दौरान इनकी उपलब्धि रही भाषाई आधार पर राज्यों का पुनर्गठन.हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने और जमींदारी प्रथा को खत्म कराने में पंडित गोविंद बल्लभ पंत का महत्त्वपूर्ण योगदान था. सन 1957 में गणतन्त्र दिवस पर महान देशभक्त, कुशल प्रशासक एवं उदारमना पन्त जी को भारत की सर्वोच्च उपाधि ‘भारतरत्न’ से विभूषित किया गया.

वर्ष1960 में पंडित गोविंद बल्लभ पंत को हार्ट अटैक आया और उसके बाद उनका स्वास्थ्य लगातार बिगड़ने लगा, जिसके चलते 7 मार्च 1961 को उनका देहांत हो गया. उनकी याद में उनके जन्म स्थान पर एक  स्मारक का  निर्माण किया गया है. उत्तराखंड के इस राष्ट्रनायक, प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी, उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री और भारत रत्न से सम्मानित पंडित गोविंद बल्लभ पंत जी को उनकी जन्म जयंती के अवसर पर कोटि कोटि नमन !!

गोविंद बल्लभ पंत महात्मा गांधी के जीवन दर्शन को देश की जनशक्ति हेतु आत्मिक ऊर्जा का स्रोत मानते थे. उन्होंने देश के राजनेताओं का ध्यान अपनी पारदर्शी कार्यशैली से आकर्षित किया. भारत के गृहमंत्री के रूप में वह आज भी प्रशासकों के के लिए एक आदर्श राजनेता माने जाते हैं. पंत जी चिंतक, विचारक,मनीषी,दूरदृष्टा और समाज सुधारक होने के साथ साथ अच्छे लेखक और साहित्यकार भी थे. उन्होंने साहित्य लेखन के माध्यम से समाज की अंतर्वेदना को जनमानस तक पहुंचाया और सांस्कृतिक अस्मिता, आर्थिक विषमता के अनेक सरोकारों और राष्ट्रीय एकता पर भी अपनी लेखनी चलाई.उनके निबंध भारतीय दर्शन के मानवतावादी मू्ल्यों से प्रेरित रहे हैं.

वर्ष1960 में पंडित गोविंद बल्लभ पंत को हार्ट अटैक आया और उसके बाद उनका स्वास्थ्य लगातार बिगड़ने लगा, जिसके चलते 7 मार्च 1961 को उनका देहांत हो गया. उनकी याद में उनके जन्म स्थान पर एक  स्मारक का  निर्माण किया गया है. उत्तराखंड के इस राष्ट्रनायक, प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी, उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री और भारत रत्न से सम्मानित पंडित गोविंद बल्लभ पंत जी को उनकी जन्म जयंती के अवसर पर कोटि कोटि नमन !!

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में विद्या रत्न सम्मानऔर 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा आचार्यरत्न देशभूषण सम्मानसे अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्रपत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)

Share this:

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *