मंजू दिल से… भाग-5
- मंजू काला
चूडियाँ पारंपरिक गहना है,
जिसका प्रयोग अमूनन हर भारतीय नारी करती है और जब तक उनकी कलाइयों पर ये सुंदर-सा गहना सज नहीं जाता, तब तक श्रंगार भला कैसे पूरा होगा!प्यारे
हम भारतीय नारियाँ रंग-बिरंगी
चमकीली चूड़ियाँ कलात्मक एव सुरुचिपूर्ण ढंग से पहनकर अपनी कोमल कलाइयों का श्रंगार करती हैं. यह शृंगार शताब्दियों से कुमारियों एवं नारियों को रुचिकर प्रतीत होता है, साथ ही स्वजन-परिजन भी हर्षित होते हैं. हाथ की चार चूड़ियाँ उनके अहिवात को सुरक्षित रखने के लिए ही पर्याप्त हैं. कवि देव के शब्दों में नारियों की प्रभु से चिर प्रार्थना यही है-संग ही संग
साथ में राखिए नाथ उन्हें हम हाथ में चाहती चार चुरिए..
प्यारे
बचपन की बात है जब मैं
खरीदारी करने बाजार जाती माँ के साथ, बाजार जिद् करके चली जाती तो, विभिन्न बिसात- खानों में सजी चूडियाँ देखकर मचल जाती थी व माँ से चूडियाँ दिलवाने की जिद करती,और माँ भी ये सोचकर दिला देतीं, की चलो अब ये खरीदारी करने तक मेरा दिमाग नहीं चाटेगी!लेकिन मैं कच्ची गोली थोडे़ न खेलती थी. घर आ के फिर शुरू हो जाती थी! तब माँ मुझे बहलाने के लिए गाँव का
जिक्र करते हुए बताती थी कि कैसे विवाहोत्सव से पूर्व गाँव में (बेडि़न पहनाती है पहाड़ में चूडियाँ) मनिहारिन की आवाज़ “खोलों” में सुनाई देने लग जाती थी! लो चूड़ियाँ लाल, हरी, पीली, नीली गृह बनिताओं, और ग्राम वधुओं और बड़ी-बूढ़ियों के कानों में भी यह ध्वनि गूँज उठती थी , और वे सब श्रंगार मग्न हो, (बेडि़न) मनिहारिन को घेर कर, चौक में एकत्र होकर बैठ जाती थी… !प्यारे
वे कहती थीं कि तब
मनिहारिन भी हँस-हँस कर दो चूड़ियाँ आशीष की अधिक पहनाती थीं और वधुएँ, सास, जिठानी के चरणस्पर्श करती थी और आशीर्वाद पाती थी, सदा सुहागिन रहो, फूलो, फलो..! “प्यारे
हमारी संस्कृति में प्रत्येक पर्व
एवं शुभ कार्य से पूर्व चूड़ियों को प्रधानता दी जाती है. मनिहारिन विभिन्न प्रकार की चूड़ियाँ पहनाकर, वधुएँ रंग-बिरंगी चूड़ियाँ पहनकर और बड़ी-बूढ़ियाँ आशीर्वाद देकर प्रसन्न होती हैं. चारों ओर मधुर झंकार और चूड़ियों की खनकार सुनाई देती है. विवाहित नारियों के लिए भारत के कोने-कोने में चूड़ियों का विशेष महत्व है!प्यारे
महाभारत में शंख की
चूड़ियों का उल्लेख है. मेघदूत में यक्षप्रिया पालित मयूरों को अपनी चूड़ियों की मधुर खनकार पर नचाती हैं. कादंबरी में …सरस्वती की शंख की चूड़ियों का वर्णन है और नारियों की रत्नजटित चूड़ियाँ भी प्राप्त होती हैं. शिशुपाल-वध में भी शंख की चूड़ियों का उल्लेख है. मुनि-कन्या शकुंतला वन में रहकर भी कमलनाल से अपनी कलाइयों को सुसज्जित करती हैं.
प्यारे
भारत के प्रागैतिहासिक काल
की नारी मूर्तियाँ भी कराभरणों से अलंकृत हैं. यह मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा से प्राप्त वसुओं से सिद्ध होता है. उज्जैन, अमरावती और मथुरा के उत्खनन से प्राप्त नारी मूर्तियों से ज्ञात होता है कि उनके करों के अलंकार सोने व चाँदी के कंगन होते थे.प्यारे
मौर्य, शुंग और सातवाहन काल में भारतीय महिलाएँ दोनों हाथों में बहुत-बहुत चूड़ियाँ धारण करती थीं. ये सोने-चाँदी की धातु से निर्मित होती थीं. उनमें कलात्मक ढंग से कटाव भी होते थे.
साँची से प्राप्त नारी मूर्तियों के हाथों में चूड़ियाँ हैं. कुषाण काल की महिलाएँ अनेक चूड़ियाँ पहनती थीं. मथुरा से प्राप्त नारी मूर्तियों में घुंडीदार कड़े और महीन चूड़ियाँ प्राप्त होती हैं. गुप्तकालीन प्राप्त नारी-मूर्तियों के हाथों में तीन-चार चूड़ियाँ हैं. अजंता से प्राप्त नर्तकी के चित्र में अधिक चूड़ियाँ सुशोभित हैं. खजुराहो की नायिका के दोनों हाथों में रत्नजटित दो-दो चूड़ियाँ हैं. लक्ष्मण मंदिर की नारी मूर्ति बीच में पाँच चूड़ियाँ पहने हुए हैं. गांधार शैली की तक्षशिला से प्राप्त मूर्तियाँ कड़े और चूड़ियों से युक्त हैं. नालंदा से प्राप्त नारी-मूर्ति के हाथ पाँच चूड़ियों से सुशोभित हैं!प्यारे
रामायण काल के …हस्ताभरण मणि-मुक्ताओं से सुसज्जित थे. महाभारत में शंख की चूड़ियों का उल्लेख है. मेघदूत में यक्षप्रिया पालित मयूरों को अपनी चूड़ियों की मधुर खनकार पर
नचाती हैं. कादंबरी में …सरस्वती की शंख की चूड़ियों का वर्णन है और नारियों की रत्नजटित चूड़ियाँ भी प्राप्त होती हैं. शिशुपाल-वध में भी शंख की चूड़ियों का उल्लेख है. मुनि-कन्या शकुंतला वन में रहकर भी कमलनाल से अपनी कलाइयों को सुसज्जित करती हैं. सिद्ध हेमशब्दानुशासन में काँच की चूड़ियों का वर्णन विरह के समय किया गया है-प्यारे
जिसके एक श्लोक का अर्थ है कि,
विरहिणी बाला कपोल पर हथेली धरे बैठी है…गाल से सटी चूड़ियाँ उत्तप्त साँसों से तप्त होकर आँसुओं के संसर्ग में आते ही टूट जाती है. ये टूटनेवाली चूड़ियाँ काँच की ही हो सकती हैं!प्यारे
नारियों की चूड़ियाँ धान
कूटते समय कर्णप्रिय और मधुर झनकार कराती हैं. गीत अति आनंददायक प्रतीत होते हैं. हेमचंद ने अपभ्रंश व्याकरण में अनेक उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं जिनमें चूड़ी का उल्लेख स्पष्ट सुंदर और सर्वप्रथम किया गया है. उन्होंने ‘वलय’ और ‘चूड्डिलऊ’ दोनों ही शब्दों के प्रयोग किए हैं जो अत्यंत सार्थक हैं और साथ ही विषाद एवं हर्ष के मिश्रित सजीव चित्रण भी.
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नारियों की चूड़ियाँ धान कूटते समय
कर्णप्रिय और मधुर झनकार कराती हैं. गीत अति आनंददायक प्रतीत होते हैं. हेमचंद ने अपभ्रंश व्याकरण में अनेक उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं जिनमें चूड़ी का उल्लेख स्पष्ट सुंदर और सर्वप्रथम किया गया है. उन्होंने ‘वलय’ और ‘चूड्डिलऊ’ दोनों ही शब्दों के प्रयोग किए हैं जो अत्यंत सार्थक हैं और साथ ही विषाद एवं हर्ष के मिश्रित सजीव चित्रण भी. ‘वलय’ का सुंदर प्रयोग देखिए-प्यारे
वायसु उड्डावंति अए पिउ विहउ सहसत्ति.
अद्धा वलया महिहि गय अद्धा फूटि तड़त्ति..
अर्थात कौवे को उड़ाती हुई विरहिणी
ने सहसा प्रिय को देखा. इतने में उसकी आधी चूड़ियाँ विरह-कृशता से ढीली होने के कारण पृथ्वी पर गिर गई और प्रिय को देखने से जो हर्ष हुआ, उसके कारण कृशता जाती रही और आधी चूड़ियाँ कड़ी होकर तड़-तड़ टूट गईं.प्यारे
चूड्डल्लउ चुण्णी होइ अए मुद्धि कवेलि निहितउ.
सासा सनल जाल पलक्किड़ बाहर सलिल संसितउ.
अर्थात हे मुग्धे! तेरी चूड़ियाँ गरम
साँसों की आग से तपकर और आँसुओं की धारा से भीग कर स्वयं ही टूट रही हैं.सोमेश्वर कृत ‘मानसोल्लास’ में स्वर्ण-निर्मित,
रत्न, मुक्ता-माणिक्य से जटित ‘चूड़क’ शब्द का उल्लेख है. ‘वर्णरत्नाकर’ में चुलि (चूली) शब्द सोने-चाँदी की चूड़ियों के लिए प्रयुक्त किया गया है. यह ‘चुलि’ शब्द ही प्राकृत अपभ्रंश के ‘चूड़’ का विकसित रूप है. ‘सभाशृंगार’ में भी चूड़ी का उल्लेख है. ‘निंबार्क’ संप्रदाय के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘महावाणी’ में पोइंची के साथ चूरा-चूरी का वर्णन आया है-कबहू बाहु निहारि बारिके बाजूबंध सुधारै जू.
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कबहुंक चूरा-चूरी पहुँची हैकरि है रस सारै जू..
पंद्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ में श्री राजशेखर सूरि ने
‘नेमी नाथ फागु’ में बाहु के शृंगार में ‘चूड़िय’ का उल्लेख किया है-कंचन कंकण चूड़िय बाहू शृंगार.’
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मध्यकाल में भारतीय नारियों के सौभाग्यपूर्ण
श्रंगार के रूप में चूड़ियों की उनके विभिन्न प्रकार से रसमय चर्चा की गई है. सूरदास ने चार-चारर के जोड़े के रूप में सुंदर वर्णन किया है-‘डारनि चार-चार चूरी बिराजति.’
परमानंद सागर में चूड़ियों के साथ गजरा और पहोंची का प्रयोग दृष्टव्य है- नवग्रह गजरा जगमगै नव पाहौंची चुरियन आगे”प्यारे
(मंजू काला मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल से ताल्लुक रखती हैं. इनका बचपन प्रकृति के आंगन में गुजरा. पिता और पति दोनों महकमा-ए-जंगलात से जुड़े होने के कारण,
पेड़—पौधों, पशु—पक्षियों में आपकी गहन रूची है. आप हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लेखन करती हैं. आप ओडिसी की नृतयांगना होने के साथ रेडियो-टेलीविजन की वार्ताकार भी हैं. लोकगंगा पत्रिका की संयुक्त संपादक होने के साथ—साथ आप फूड ब्लागर, बर्ड लोरर, टी-टेलर, बच्चों की स्टोरी टेलर, ट्रेकर भी हैं. नेचर फोटोग्राफी में आपकी खासी दिलचस्पी और उस दायित्व को बखूबी निभा रही हैं. आपका लेखन मुख्यत: भारत की संस्कृति, कला, खान-पान, लोकगाथाओं, रिति-रिवाजों पर केंद्रित है.)