
गांधी जयंती (2 अक्तूबर) पर विशेष
प्रो. गिरीश्वर मिश्र
महात्मा गांधी का लिखा समग्र साहित्य का हिंदी संस्करण सत्तानबे खंडों के कई हज़ार पृष्ठों में समाया हुआ है। इसका बहुत बड़ा हिस्सा उनके आत्म-संवाद का है जहाँ वह जीवन के अपने अनुभव की पुनर्यात्रा करते दिखाई पड़ते हैं। जीवन का पूर्वकथन संभव नहीं पर आगे के लिए नवीन रचना की कोशिश तो हो ही सकती है। यही सोच कर गांधी जी बार–बार अपने अनुभवों की मनोयात्रा में आवाजाही करते हैं। यह बड़ा दिलचस्प है कि ऐसा करते हुए वे खुद अपनी परीक्षा भी करते रहते थे। उन्होंने अपनी ग़लतियों को स्वीकार करते हुए स्वयं को कई बार दंडित किया था और प्रायश्चित्त भी किया था। आत्म-विमर्श का उनकी निजी जीवनचर्या में एक ज़रूरी स्थान था। वे अपने में दोष-दर्शन भी बिना घबड़ाए कर पाते थे। इस तरह आत्मान्वेषण उनके स्वभाव का अंग बन गया था। सतत आत्मालोचन की पैनी निगाह के साथ गांधी जी ने जो ब्रत लिए उन पर एक तपस्वी की भाँति डटे रहे। उपवास, मौन रहना, प्राकृतिक चिकित्सा, समाज-सेवा और शारीरिक श्रम को चुनना उनका निजी फ़ैसला था। वे अपनी कमियों को पहचानने, उनको स्वीकार करने, उनको बदलने का निश्चय करने, बदलने की चेष्टा करने, परिवर्तन लाने और उसे स्थिर करने का विस्तृत विवरण देते हैं। वस्तुतः वे आरंभ से ही इस तरह के पुनरावलोकन का अभ्यास करते आ रहे थे। यदि व्यवस्थित रूप में देखें तो दक्षिण अफ़्रीका में सत्याग्रह के इतिहास के साथ इस अभ्यास का आरंभ हुआ था जो हिंद स्वराज और सत्य के साथ प्रयोग के साथ आगे भी बढ़ता रहा। अपनी रचनाओं, वक्तव्यों, पत्रों, प्रवचनों और अन्य लेखन में भी गांधी जी व्योरा देते हुए अमूर्त सिद्धांत की जगह जीवन की ठोस घटनाओं, व्यक्तियों और परिस्थितियों में गुँथे पारस्परिक रिश्तों की तहक़ीक़ात करते हुए मिलते हैं। वे रिश्तों को जीवन-पट के ताने-बाने के रूप में पहचान रहे थे और सामाजिक यथार्थ को रचने-गढ़ने में प्रभावी ढंग से उपयोग कर रहे थे। थोड़ा गौर से विचार करें तो विभिन्न स्तरों पर इन रिश्तों को बनाना, बिगड़े हुए रिश्तों को सुधारना-सुलझाना और बन रहे रिश्तों को सुदृढ़ करना उनके निजी, राजनीतिक और सामाजिक जीवन का मुख्य उद्देश्य बना रहा। गांधी जी मानव सम्बंधों की ऊष्मा में ही रचनात्मकता का अवसर भी ढूँढते रहे। एक तरह से यही उनके जीवन की मुख्य साधना हो गई थी। उनकी अतुलनीय लोकप्रियता का राज भी इसी में छिपा था । इस विवरण का आशय यह बताना है कि गांधी जी को दूसरों या ‘अन्य’ की बड़ी चिंता थी और उनके सुख दुःख से वे भी सुखी दुखी होते थे और उसके अनुसार ज़रूरी कदम उठाते थे। अपने सुख दुःख की अनुभूति की समानता (आत्मौपम्य) के आधार पर वह दूसरों की स्थिति को समझते थे। दूसरों के साथ रिश्ते बनाने, उसे जीवित रखने और संजोने का दायित्व निरंतर समायोजन, सहयोग, दान-प्रतिदान पर टिका होता है। गांधी जी धैर्य और सहनशीलता के साथ इस कार्य में आजीवन लगे रहे। वे अपने खान-पान, पहनावा, बातचीत, व्यवहार और नीति आदि सबमें बदलाव ले आए और लोक के साथ तादात्म्य स्थापित किया। उनकी अपार लोकस्वीकृति का यह एक बड़ा कारण बना।
गांधी जी ने अपने अनुभवों के बीच सर्वव्यापकता का महत्व पहचाना और उसी के अनुसार उनके सामाजिक कार्य की परिधि में समाज के सभी वर्ग शामिल होते गए थे। वस्तुतः वे समाज की बुनावट में विद्यमान विविधता के विविध रूपों को जगह देने की लगातार कोशिश कर रहे थे। इतिहास गवाह है कि एक व्यापक दृष्टि के साथ अपने व्यवहार की सवेदनशीलता और संवाद की कुशलता द्वारा गांधी जी समाज में एक संक्रामक प्रभाव पैदा कर सके। वे विभिन्न धर्मावलम्बी जनों समेत गरीब, दलित, और ग्रामीण सभी के निकट पहुँचते रहे। अहंकार के साथ ऐसा कर पाना कदापि आसान न था। अपना सामाजिक दायरा विस्तृत करने के लिए उन्होंने अपने अहं का अतिक्रमण किया और उसके इर्द-गिर्द फैले आवरण को हटाया। भारत आने के बाद चंपारन में निलहे किसानों के प्रति अत्याचार के विरुद्ध जो पहला आंदोलन भारत में उनके द्वारा किया गया वह ऐसा ही बताता है। स्वयं को पारदर्शी बनाते हुए गांधी जी ने अपनी ख़ास जीवन शैली अपनाई। वह साधारण आदमी जैसा जीवन जीने की राह पर चल पड़े और लगभग उसी रूप में आगे के जीवन में भी दिखते रहे। इसके लिए उन्होंने संयम की एक आत्म-संस्कृति को चुना जो उनके अपने अनुभव और प्रयोग के आधार पर आकार पाई। इस बदलाव का दुहरा असर था। वह खुद भी बदले और समाज की नब्ज टटोलने का अवसर पा सके। परंतु इसका दूरगामी और चमत्कारी परिणाम यह हुआ कि व्यापक भारतीय समाज गांधी जी में अपनी छवि देखने लगा। एक ही चेतन सत्ता का आलोक सबको प्रकाशित कर रहा था!
गांधी जी समाज से जुड़ने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते थे। यह भी उल्लेखनीय है कि गांधी जी जीवन में कभी एक स्थान पर स्थिर हो कर टिके नहीं रहे, सिर्फ़ वर्धा में बारह वर्षों की अवधि बिताई। वे जीवन भर यात्रा करते रहे और उसके ज़रिए देश, काल और पात्र तीनों से रूबरू होते रहे। इस अर्थ में वे अतिसामाजिक कहे जा सकते हैं कि वे लोक से सम्पर्क बनाये रहने की हर कोशिश करते रहे। भरसक लोक में ही रमते हुए ही वह जीवन जिए। शुरू-शुरू में दक्षिण अफ़्रीका में ज़रूर उनको झिझक लगी थी और वहाँ की पहली सभा में पैर और ज़ुबान दोनों ही लड़खड़ाए थे पर जब उन्होंने आगे कदम बढ़ाए तो फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। यह राह आसान न थी। उनकी आत्म-कथा से पता चलता है कि न केवल उनके निजी जीवन में मुश्किलों की भरमार लगी रही बल्कि सामाजिक जीवन में भी चुनौतियाँ मिलती रहीं। इन सबके बीच वे परम सामाजिक बनते रहे। वे बिना कोई अवसर गँवाये अपनी ओर से पहल कर के समाज के पास जाते थे और सम्पर्क साधते थे। इसी उद्देश्य के लिए वह जहां भी रहे उन्होंने अख़बार निकाला। इंडियन ओपिनियन, नव जीवन और हरिजन का प्रकाशन यही बताता है। वे जनता के बीच में रह कर काम करते रहे। वस्तुतः अन्य को अपना अंश बनाने की कोशिश गांधी जी के काम में लगातार देखी जा सकती है। यह कई स्तरों पर चलती रही। चर्खा, खादी, कुटीर उद्योग और प्राकृतिक चिकित्सा जैसे उपाय अपनाने के पीछे गांधी जी का उद्देश्य इसी से जुड़ा था। स्मरणीय है कि स्वयं और अन्य के बीच भेद को दूर करना भारतीय चिंतन की प्रमुख विशेषता रही है। वेदांत में यह बात प्रमुख रूप से अभिव्यक्त हुई है। मैं ही ब्रह्म हूँ (अहं ब्रह्मास्मि!) और सब कुछ ब्रह्म ही है (सर्वं खल्विदं ब्रह्म!) जैसे गंभीर कथनों का एक आशय यह भी है कि आत्मबोध के स्तर पर समस्त अस्तित्व में एकता का अनुभव किया जाना चाहिए।
गांधी जी मनुष्यता के स्तर पर व्यवहार में लाए जा सकने वाले सद्विचार के आधार पर जुड़ने को तत्पर रहते थे। इंग्लैंड और दक्षिण अफ़्रीका में विदेश की धरती पर अंग्रेजों के साथ व्यवहार करते हुए भी वे इन सद्विचारों को कसौटी के रूप में उपयोग में लाते थे। कई विदेशी उनके मित्र और सहयोगी भी बने और उनके काम में हाथ बँटाया। उदार चरित वाले आत्मजयी गांधी मनुष्य मनुष्य के बीच भेद न करते हुए अन्य को अनन्य बनाने में माहिर थे।
मनुष्य की आंतरिक एकता की स्वीकृति के ही चलते विरोधियों और दुश्मनों से मिल कर उनका हृदय-परिवर्तन करना गांधी जी के कार्य का एक बड़ा हिस्सा था। तब भारतीय समाज में जाति, धर्म, क्षेत्र, वर्ग आदि के आधार पर सामाजिक भेद बुरी तरह से व्याप्त थे। इस तरह के भेद की खाई को पाटना कठिन था। सबको ईश्वर की संतान समझ गांधी जी ज़रूर भेद-बुद्धि को नकारते रहे। आत्म और अन्य या अपने-पराए के बीच के फ़ासले को वे भरसक मिटाते रहे। वे धर्म, जाति और नस्ल के अंतरों को सतही नज़रिए तथा विवेक और भरोसे की कमी का परिणाम मानते थे। गांधी जी भारत को समग्रता में देख पा रहे थे। इस तरह की दृष्टि के लिए संयम और आत्म-नियंत्रण की ज़रूरत थी। तभी वह देश और समाज के साथ एकाकार हो पा रहे थे। देश-योगी सरीखे गांधी जी अपने को देश में और देश को अपने में देख पा रहे थे। गांधी जी मनुष्यता के स्तर पर व्यवहार में लाए जा सकने वाले सद्विचार के आधार पर जुड़ने को तत्पर रहते थे। इंग्लैंड और दक्षिण अफ़्रीका में विदेश की धरती पर अंग्रेजों के साथ व्यवहार करते हुए भी वे इन सद्विचारों को कसौटी के रूप में उपयोग में लाते थे। कई विदेशी उनके मित्र और सहयोगी भी बने और उनके काम में हाथ बँटाया। उदार चरित वाले आत्मजयी गांधी मनुष्य मनुष्य के बीच भेद न करते हुए अन्य को अनन्य बनाने में माहिर थे।
आज के समय में अपने को दूसरों से भिन्न मानने का चलन बढ़ रहा है। प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से दूसरों को अपने अधीन बनाने और अपने से कमतर आंक कर अपने लिए उपयोग करने से लोग बाज़ नहीं आते, चाहे वह शोषण ही क्यों न हो। मूल्यों में आई गिरावट, बढ़ती प्रतिस्पर्धा और अंतहीन लोभ के जाल में फँस कर मानव बोध घट रहा है। हम यह भूल जाते हैं कि जीवन जीने की न्यूनतम ज़रूरतों का तो पता है परंतु अधिकतम सीमा निश्चित नहीं की जा सकती। वह मनुष्य के उद्यम, सृजनात्मकता और अवसर की उपलब्धता के अनुसार निरंतर बदलती रही है। भ्रमवश हम उस उच्च स्तर को ज़रूरी की श्रेणी में ले आते हैं। गांधी जी सादगी में विश्वास करते थे, मितव्ययी थे और साधारण के सौंदर्य का उदारता से उपयोग करते थे। उनके लिए लघु और सीमित में श्रेष्ठता देखना संभव था। आज जब धरती की धारण-क्षमता जबाब दे रही है और उस पर भार बढ़ता जा रहा है तो हमें सोचना होगा कि अपने पराए का भेद कैसे मिट सकता है और किस तरह अनावश्यक आत्माभिमान के बोझ को कम किया जा सकता है। मैं और तुम का हीनतावाची अंतर मिटाना ही होगा। मित्र, हितैषी और शुभचिंतक के रूप में अन्य (दूसरा) निश्चय ही अनन्य होता है और उसके साथ सहकार ही श्रेय का मार्ग साबित होगा।
(लेखक शिक्षाविद् एवं पूर्व कुलपति, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा हैं.)