स्वीटी टिंड्डे
वर्ष था 1841, देहरादून का वो हिस्सा जो यमुना और सीतला नदी के बीच का था वो बंजर था, न खेती और न ही जंगल. कृषि विकास में अंग्रेजों का जमींदारों पर
से विश्वास ख़त्म हो चुका था और सरकार धड़ल्ले से नहर की खुदाई करवा रही थी. देहरादून में ही एक नहर (बीजापुर) बन चुका था दूसरा (राजपुर) बन रहा था और तीसरे पर विचार हो रहा था. ये तीसरा था, कुत्था पुत्थौर नहर जिससे 17000 एकड़ जमीन की सिंचाई होने वाली थी. भू-राजस्व विभाग ने अप्रैल में योजना बनाई, जुलाई में दिल्ली-करनाल क्षेत्र के राजस्व विभाग ने आपत्ति जाहिर की, अक्टूबर में मेरठ के कमिश्नर ने स्वीकृति दी, अगले साल अप्रैल तक राज्य सरकार ने स्वीकृति दे दी.बीजापुर
90307 रुपए का खर्च बताया, सरकार ने एक लाख स्वीकृत कर दी. पाँच आने प्रति बीघा की दर से सिंचाई कर लगती जिससे सरकार को 7000 रुपए वार्षिक की आमदनी
होनी थी. इस सम्बंध मे क्षेत्र के तीन जमींदारों को पहले ही धमकी दे दी गई. उन्हें नहर की मरम्मत का भी कार्यभार दिया गया. दून को पीने के पानी की किल्लत से निजात मुफ़्त में और इस नहर पर बनने वाले तीन डैम से होने वाले आय ऊपर से था.बीजापुर
दिल्ली और दून के बीच लम्बी नोक-झोंक के बाद अंततः 1854 में ये नहर बनकर तैयार हुआ और तीन वर्ष के भीतर (1857) में दिल्ली ने विद्रोह कर दिया. आज ये नहर
कटा-पत्थर नहर के नाम से जाना जाता है जो आज भी दून की प्यास बुझाता था पर उस दौर में अंग्रेजों के लिए काटा-पत्थर ही साबित हुआ. 1857 के बाद अंग्रेजों ने दून की प्यास बुझाने के लिए दून में यमुना नदी पर दूसरा नहर नहीं बनाया.
बीजापुर
पहले से ही गर्मी और पानी की कमी से जूझ रही दिल्ली के साथ-साथ रोहतक और हिसार से प्रति सेकंड 75 घन फुट पानी छिनने वाला था. दिल्ली के साथ हरियाणा के
गोरे साहब ने भी इस नहर का विरोध किया. अगर गंगा देवभूमि की प्यास बुझाती थी तो यमुना दिल्ली की थी. पर गोरों की सरकार को लगातार विद्रोह की धमकी देते रहने वाले मुगलों, मराठों और जाटों से भारी दिल्ली से कहीं बेहतर दून लगा जहां नहर बनने से अंग्रेजी राजस्व में फायदा होता. तब दिल्ली अंग्रेज़ी सरकार की नहीं उनके दुश्मन हिंदुस्तान की राजधानी थी जो बहुत जल्दी श्मशान में तब्दील होने वाला था. 1857 की क्रांति, विद्रोह, संग्राम सब कुछ होने वाली थी और इन सबसे दून चमकने वाला था.बीजापुर
दिल्ली और दून के बीच लम्बी नोक-झोंक के बाद अंततः 1854 में ये नहर बनकर तैयार हुआ और तीन वर्ष के भीतर (1857) में दिल्ली ने विद्रोह कर दिया. आज ये नहर
कटा-पत्थर नहर के नाम से जाना जाता है जो आज भी दून की प्यास बुझाता था पर उस दौर में अंग्रेजों के लिए काटा-पत्थर ही साबित हुआ. 1857 के बाद अंग्रेजों ने दून की प्यास बुझाने के लिए दून में यमुना नदी पर दूसरा नहर नहीं बनाया.बीजापुर
पढ़ें— नैन सिंह रावत: पूर्वजों का नाम से उभरता पहाड़ का इतिहास
(स्वीटी टिंड्डे अज़ीम प्रेमजी
पर इनसे सम्पर्क किया जा सकता है.)