वड़ और एक नारी की पीड़ा

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  • डॉ. गिरिजा किशोर पाठक

गांव की कहावत है ‘वड़ (Division stone), झगड़ जड़’. जब दो भाइयों के बीच में जमीन का बंटवारा होता है तो खेतों के बीच बंटवारे के बाद विभक्त जमीन में एक लम्बा पत्थर खड़ा करके गाड़ दिया जाता है जिसे वड़ (division line) कहते हैं. भाइयों में जमीन के बंटवारे पर एक बार वड़ डल जाने पर ये हमेशा के लिए दो भाइयों की जमीन की सीमा रेखा बन जाती है. इस वड़ (सीमा रेखा) के कारण खेती किसानी में परिवारों में बहुत झगड़े, लड़ाइयां, मुकदमे देखने को मिलते हैं क्योंकि अस्थाई तौर पर गाड़े गए पत्थर की जो मर्यादा रखते हैं वो सीमा का उल्लंघन नहीं करते और खुराफाती इसको मनमाने ढंग से खिसका कर विवाद पैदा करते हैं.

हमारे गांव में 2 ऐसे महत्वपूर्ण/खुराफाती पुरुष थे जिनका काम अल्मोड़ा, सोर और बागेश्वर जाकर अपनी नई जमीन के लिए दरख्वास्त (fresh application) लगाना होता था. वड़ के झगड़े पर राजस्व कोर्ट में एक नई एप्लीकेशन डाल देना उनका अक्सर का काम था. उनकी इस करतूत से गांव के आधे लोग राजस्व न्यायालयों में लाइन लगाकर खड़े रहते थे.

यह कहानी घर—घर की है. इसी पर कुमाऊं क्षेत्र के गांव में कहावत है कि “भै छुटि स्वार” यानी भाईयों में बटवारा हुआ उसके बाद वह मात्र आपके पड़ोसियों की तरह हैं. बंटवारे में जितने भाई उतने किरदार उसमें भी जितने निठल्ले उतने जंजाल. सच कहें तो यह कहानी गांव घर की ही नहीं बल्कि दो राष्ट्रों के बीच की भी रहती है. जमीन का वड़ (partition line) एक तरह से झगड़े की जड़ है. भारत/पाकिस्तान,  भारत/चीन और भारत/बांग्लादेश के सीमा विवाद भी भाईयों के वड़ विवाद की तरह पुश्त दर पुश्त चल रहे हैं और समय समय पर सर उठाते रहते हैं.

वड का पत्थर. फोटो : प्रकाश उप्रेती

जब हम छोटे थे तो देखते थे कि हमारी दादी गांव की खेती-बाड़ी, उसके विभाजन और उस पर बिरादरी वालों के कब्जा रखने की हिमाक़त से बहुत परेशान रहती थी. दादी की मूल समस्या उनके देवर-जेठ के परिवार वालों और स्वार बिरादरों द्वारा वड़ का उल्लंघन होता था. दादी बताती थी कि पूरे क्षेत्रों में झगड़े की जड़ यही वड़ थे. हमारे गांव में 2 ऐसे महत्वपूर्ण/खुराफाती पुरुष थे जिनका काम अल्मोड़ा, सोर और बागेश्वर जाकर अपनी नई जमीन के लिए दरख्वास्त (fresh application) लगाना होता था. वड़ के झगड़े पर राजस्व कोर्ट में एक नई एप्लीकेशन डाल देना उनका अक्सर का काम था. उनकी इस करतूत से गांव के आधे लोग राजस्व न्यायालयों में लाइन लगाकर खड़े रहते थे.

दादी दुःखी होकर बताती कि जमीन के वड़ के झगड़े के कारण संबंध अत्यधिक कटु हो चले थे यहां तक कि वो हमारे पानी के धारे (natural water body) के रास्ते में कांटे डाल देते थे ताकि हम पानी भरने न जा सकें. लड़ाई से इसका हल मुश्किल था लेकिन दादी शारीरिक और मानसिक दोनों लड़ाई लड़ रही थीं.

इन दो महानुभावों की विशेषता थी कि पूरे अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ की कचहरी के अर्जीनवीस (complaint writers), कानूनगो, नायब तहसीलदार, तहसीलदार और एसडीएम स्तर के अधिकारियों से इनके सौहार्दपूर्ण संबंध रहते थे. इनके संबंधों और दैनिक शिकायतों के कारण पूरा गांव त्रस्त रहता था या यूं कहें कि ये दो मिलकर पूरे गांव के लोगों को अपनी हरकतों से  चकरघिन्नी बनाकर रखते थे. दादी से बाबू की परेशानी देखी न जाती क्योंकि वे अपनी मास्टर की नौकरी के बीच महीने में 10 दिन अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ की कचहरियों में खड़े रहते. इस मुश्किल का अंदाजा लगाया जा सकता है. उस जमीन के लिये न जाने कितने मुकदमे बाबू ने अल्मोड़ा की कचहरी में लड़े थे. यह बात अब उनको भी याद नहीं या वो उसे याद ही नहीं करना चाहते.

पिथौरागढ़ शहर का खूबसूरत नजारा. यहां की बर्फिली चोटियां लोगों को मंत्रमुग्ध कर देती है. कहते हैं यह स्थान कभी चांद का हिस्सा हुआ करता था.

दादी ने अपने बल पर उस जमीन पर कब्जा बनाये रखने और खेती करने के दौरान बहुत  यंत्रणाए झेली थी. उनके जेठ-देवर के लड़के कई बार खेत की खड़ी फसल काट ले जाते थे और कई बार जब खेत में बैल जुते होते थे तो जमीनी हिस्से को विवादास्पद बताकर बैलों का जुत्तौड़ (जुए और हल को जोड़ती रस्सी) काट ले जाते थे. इस सीन को देख कर हल चलाने वाला हलिया भाग जाता था. जिससे दिनभर की बुवाई बंद करनी पड़ती थी और खेती के काम का हर्ज होता था. दादी दुःखी होकर बताती कि जमीन के वड़ के झगड़े के कारण संबंध अत्यधिक कटु हो चले थे यहां तक कि वो हमारे पानी के धारे (natural water body) के रास्ते में कांटे डाल देते थे ताकि हम पानी भरने न जा सकें. लड़ाई से इसका हल मुश्किल था लेकिन दादी शारीरिक और मानसिक दोनों लड़ाई लड़ रही थीं.

मैं आज भी अंदाजा नहीं लगा सकता कि अकेले दादी ने गांव की जमीन की रक्षा, उसके विभाजन, बंटवारे और उसमें खेती कर परिवार पालने जैसे कार्यों को पूरा करने के लिए   कितनी यंत्रणाएं झेली होगी? उस जमीन पर कब्जा बनाये रखने के लिए कितना मानसिक तनाव झेला होगा!

हां! यहां ये बताना भूल गया कि हमारे दादा जी को ययावरी बहुत पसंद थी. उन्हें जमीन जायजाद खेती-बाड़ी का बहुत लोभ नहीं था. उनकी मूल दृष्टि थी कि बच्चे अच्छी तरह पढ़—लिख  जाएं सो उन्होंने अपने सभी बच्चों को बनारस, लाहौर, हरिद्वार जैसी जगहों पर भेज दिया ताकि अच्छी शिक्षा मिल सकें. उसी अवधि में आजादी के एकाध साल के अंतराल में तीर्थाटन में ही उनका निधन हो गया. मेरे दादाजी की मृत्यु का समाचार भी बाबू जी को कई महीनों बाद मिला और उसके बाद सनातन धर्म के अनुसार बाबू जी ने उनका क्रिया कर्म किया.

दादी जिस जमीन को अपनी भावनाओं, संवेदना और विचारों से सींचती रहती थी, जिसके लिए सबसे लोहा लेती थीं, जिस वड़ की रक्षा के लिए चट्टान की तरह खड़ी रहती थीं वह जमीन आज बंजर है. उसके वड़ जिनके कारण झगड़ा होता था वह एक मुर्दे की तरह जड़ और वीरान पड़ा है.

मुझे आश्चर्य होता है अकेली दादी उस जमीन पर खेती करने, वड़ के झगड़े निपटाने और उनके ही स्वार बिरादरों के मुकदमों से लड़ने में जब तक जिंदा रही तब तक चट्टान की तरह खड़ी रही. उसने वीरांगना की तरह खेती-बाड़ी के बल पर बच्चे, नाती-पोते सबकी परवरिश की और सबके सपनों को पंख दिए. 1978 में दादी भी चल बसी. जब तक जियी पूरे सम्मान से अपने घर की देखभाल की. दशक के अंतराल में नई पीढ़ी का आगमन तो हुआ लेकिन गांव के खेत खलिहान, वड़ की खटास सब के पांव को एक कांटे की तरह दर्द का एहसास कराती रही. नई पीढ़ी के युवा गांव से बाहर चले गए. 90% लोग अपनी रोजी—रोटी के लिए पलायन कर गए.

1978 में दादी चल बसी तो बाबू तथा उनके भाई सब दादाजी की बेहतर शिक्षा प्लान के कारण भारत के विभिन्न संस्थानों में बेहतर पद पर कार्य करने लगे. उनके नाती पोते विश्व के विभिन्न देशों में उनकी यश पताका फैलाने लगे. दादी की परवरिश और दादा जी का पुण्य भाव सबको फलित हो गया.

उत्तराखंड का एक वीरान घर. फाइल फोटो.

रही बात उस जमीन की जिसको दादी अपनी भावनाओं और अपनी संवेदना और अपने विचारों से सींचती रहती थी, जिसके लिए सबसे लोहा लेती थीं, जिस वड़ की रक्षा के लिए चट्टान की तरह खड़ी रहती थीं वह जमीन आज बंजर है. उसके वड़ जिनके कारण झगड़ा होता था वह एक मुर्दे की तरह जड़ और वीरान पड़ा है. वह मकान जिसमें दादी ने हम सब की परवरिश की थी वह खेत जिनमें वड़ खिसकाने का शक़ होने पर खेती के लिए जुतौड़ काटने की जबर्दस्ती होती थी वो आज सारा बंजर है. मकान के पत्थर शेष हैं. आसपास के सारे मकानों में सिसोड़ (बिच्छू घास) अंगड़ाई ले रहा है. सबसे गजब की बात की लगाए गए ताले में भी बिच्छू घास जम गई है.

मैंने एक कदम जरुर उठाया कि अपने दादी के आंसुओं की स्मृति में छोटा सा घर उस जमीन पर बनवाया है यद्यपि हम वहां कम ही जा पाते हैं लेकिन वह घर दादी की प्रति हमारी श्रद्धांजलि का एक प्रतीक है.  

समय का चक्र है कि वड़ खिसकाने वाले, न्यायालय में झूठी दरख्वास्त लगाने वाले, राजस्व न्यायालय में मुकदमा ठोकने वाले प्रभु को प्यारे हो गए लेकिन वह जमीन वहीं पर है. सारी पीढ़ियों को मुंह चिढ़ाते हुए जैसे बोलती है कि क्या पाया? क्या खोया? इसका हिसाब कौन लगाएं?

हां, मैंने एक कदम जरुर उठाया कि अपने दादी के आंसुओं की स्मृति में छोटा सा घर उस जमीन पर बनवाया है यद्यपि हम वहां कम ही जा पाते हैं लेकिन वह घर दादी की प्रति हमारी श्रद्धांजलि का एक प्रतीक है. शायद उनका मन था कि मेरा परिवार यहां अपनी पहचान जरूर बनाये रखे, जिसके लिए वह वीरांगना की तरह लड़ी उस जगह को पूरी पीढ़ी छोड़ कर न चली जाए.

कभी कभार जब हम जाते हैं तो सबसे ज्यादा दादी की स्मृति मेरे मन को नमी, ऊर्जा और नई प्रेरणा देती है. मैं उन्हें नमन करता हूं.

(लेखक सामाजिक और राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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