धार, खाळ, खेत से सैंण तक

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  • विजय कुमार डोभाल

पहाड़ी क्षेत्र में जन्मे, पले-बढ़े, शिक्षित-दीक्षित होने के बाद यहीं रोजगार (अध्यापन- कार्य) मिलने के कारण कभी भी यहां से दूर जाने का मन ही नहीं हुआ. वैसे भी हम पहाड़ी-लोगों की अपनी कर्मठता, आध्यात्मिकता तथा संघर्षशीलता अपनी अलग ही पहचान रखती है. हमारा अपना संसार पहाड़ के विभिन्न स्वरूपों धार खाळ, खेत, सैंण से शुरू होकर तराई-भाबर तक ही सीमित हैं. हमारी पढ़ाई-लिखाई, खरीददारी, व्यापार, रिश्ते-नातेदारी आदि भी यहीं तक सीमित होती है.

हमारा पहाड़ पावन गंगा-यमुना के उद्गम, पवित्र चार धाम, अन्य तीर्थस्थानों, विश्व प्रसिद्ध पर्यटक-स्थलों, सांस्कृतिक धरोहरों, ब्रह्मकमल, मोनाल, कस्तूरी मृग, बुरांश आदि के कारण देशवासियों ही नहीं वरन् विदेशियों को भी अपनी ओर आकर्षित करता है.

हमारा पहाड़ पावन गंगा-यमुना के उद्गम, पवित्र चार धाम, अन्य तीर्थस्थानों, विश्व प्रसिद्ध पर्यटक-स्थलों, सांस्कृतिक धरोहरों, ब्रह्मकमल, मोनाल, कस्तूरी मृग, बुरांश आदि के कारण देशवासियों ही नहीं वरन् विदेशियों को भी अपनी ओर आकर्षित करता है.

हमारा यह पर्वतीय भाग पूरी तरह से सड़क मार्ग से नहीं जुड़ पाया है. आज भी सड़क या संपर्क मार्ग से गांव तक पदयात्रा करनी होती है. हम लोग अपना उत्पादन (फल, सब्जी, दालें)  अथवा अपनी आवश्यकताओं को घोड़े, खच्चर या अपनी पीठ पर लादकर लाते ले जाते हैं. कभी-कभी तो गंभीर बीमार को डंडी-कंड़ी पर लादकर प्रायः दस, बारह या अधिक किलोमीटर तक लाना पड़ता है. यातायात की समुचित व्यवस्था के अभाव में इन पहाड़ी उत्पादों का सही मूल्य भी नहीं मिलता है और फल आदि वहीं सड़ जाते हैं. हम लोग धार्मिक यात्राओं, पर्यटन, विवाहादि या व्यापार आदि के कारण अपने पहाड़ मे एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक आते-जाते रहते हैं. भौगौलिक परिस्थितियों के कारण हम लोगों का खान-पान, पहनावा व रीति-रिवाज भिन्न होते रहते हैं.

अपने भ्रमण में हम देखते हैं कि जहां पर दो पहाडियां समाप्त होती हैं या शुरू होती हैं, वहां कुछ समतल सा क्षेत्र होता है, इसे “खाळ” नाम से जाना जाता है. इस जगह से पहाड़ियों के दोनों ओर देखा जा सकता है. आज इन “खाळ” ने कस्बों का रूप ले लिया है, जहां स्थानीय लोग खरीददारी करने, शिक्षा ग्रहण करने तथा उपचार आदि के लिये आते-जाते रहते हैं. ये “खाळ” सड़क मार्ग से जुड़ने के कारण आवागमन के विराम-स्थल जैसे होते हैं. कल्जीखाळ, नौगांवखाळ, श्रीकोटखाळ, उफरैंखाळ, देवीखाळ, बीरोंखाल आदि ऐसे ही प्रसिद्ध खाल हैं.

इसी तरह जहां पहाड़ी चोटी के पास कुछ सपाट-समतल स्थान होता है, उसे “खेत” नाम से जानते हैं. ये स्थान भी शिक्षा, व्यापार आदि के केन्द्र होते हैं. अंग्रेजों ने ऐसे स्थानों पर डाकबंगले बनवाये थे. शीतलाखेत, कांसखेत, साकिनखेत, ताड़ीखेत जैसे स्थान अपना अलग ही महत्व रखते हैं.

पहाड़ी नदियां अपने बहाव में साथ लायी मिट्टी से अपने तटों के दोनों ओर छोटे-छोटे समतल मैदान जैसी संरचनायें बना देती हैं जिन्हे हम “सैंण” नाम से पुकारते हैं. खैरासैंण, भराड़ीसैंण, थलीसैंण, चमोलीसैंण, तिरपालीसैंण आदि ऐसे स्थान हैं जहां पहाड़ी क्षेत्रों से अधिक विकास हुआ है. समतल होने के कारण बड़े-बड़े अस्पताल, नवोदय विद्यालय, विश्वविद्यालय परिसर, औद्योगिक संस्थान आदि यहीं स्थापित हो रहे हैं.

इसी क्रम में बड़ी नदियों जैसे गंगा, यमुना, टौंस आदि द्वारा बनाये गये उपजाऊ समतल भूभाग को “सौड़” नाम से जाना जाता है. चिन्यालीसौड़, कल्यासौड़, आमसौड़, कंडीसौड़ आदि स्थानों पर तो विशद नगरीय सभ्यता विकसित हो गयी है.

हमारी तीर्थ यात्रा अथवा पर्यटन पैदल (पदयात्री) के रूप में चलती है. अतीत में हमारे पूर्वज अपनी आवश्यकता का सामान नमक, गुड़, कपड़ा आदि  मैदानी मण्डियों से अपनी पीठ पर ढोकर लाते थे, इसलिये “ढाकरी” कहे जाते थे. कोई भी पदयात्री एक दिन में जितना मार्ग तय कर सकता था , वहां एक आश्रयस्थल “चट्टी” नाम से होता था. इन यात्रा मार्गों पर ट्रस्टों द्वारा जैसे- बाबा कालीकमली, अन्नक्षेत्र, आदि से यात्रियों के रात्रि विश्राम एवं भोजन व्यवस्था की जाती थी. गरुड़चट्टी, फूलचट्टी, व्यासचट्टी, जानकीचट्टी आदि स्थानों पर इन चट्टियों के खंडहर अपनी गाथा बयान करते हैं.

हमारे पर्वतीय क्षेत्र के अलावा देहरादून, हरिद्वार, रुद्रपुर (उधमसिंहनगर) आदि मैदानी जिले अपनी उपज, बड़े संस्थानों, शिक्षा-केन्द्रों, तथा चिकित्सालयों के कारण अपनी अलग ही पहचान बनाये हुये हैं. देहरादून, कोटद्वार, रामनगर, काशीपुर, हल्द्वानी, टनकपुर आदि स्थान अपनी उत्पादकता, शिक्षा, उद्योग धंधों से राज्य के विकास में अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं.

आज हम तथाकथित विकास की अंधी दौड़ में अपने स्वर्ग जैसे पहाड़ को छोड़कर पलायन कर रहे हैं. यदि हमें सड़क, शिक्षा, चिकित्सा सुविधा तथा रोजगार आदि के सुंदर अवसर मिलें तो हममे से कोई भी यहां से मैदानों की ओर नहीं जायेगा तथा हमारी पहाड़ की जो संस्कृति है उसका और विकास होगा.

हमारे उच्च-हिमालयी क्षेत्रों के निवासी अपने ऊन-उत्पादन, भेड़-बकरी पालन आदि के कारण पड़ोसी देशों (चीन, तिब्बत, नेपाल) से हिम-मार्गों (दर्रों) द्वारा व्यापारिक संबधों से जुड़े हुये हैं. भारत-चीन युद्ध (1962) के बाद तो ये व्यापारिक संबंध प्रायः बंद ही हो गये हैं. नमक, सुहागा, चंवर, ऊनी-सूती कपड़े, चमड़े के जूते, खाल के कोट,  मसाले, चाय आदि का व्यापार दोनों देशों में चलता रहा है. नीती-माणा, बाड़ाहोती, जयंती, दारमा, लिपूलेख आदि प्रसिद्ध हिममार्ग (दर्रे) हैं.

आज हम तथाकथित विकास की अंधी दौड़ में अपने स्वर्ग जैसे पहाड़ को छोड़कर पलायन कर रहे हैं. यदि हमें सड़क, शिक्षा, चिकित्सा सुविधा तथा रोजगार आदि के सुंदर अवसर मिलें तो हममे से कोई भी यहां से मैदानों की ओर नहीं जायेगा तथा हमारी पहाड़ की जो संस्कृति है उसका और विकास होगा.

(लेखक पूर्व अध्यापक हैं)

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