वो “सल्डी सुंगनाथ” और देवीदत्त मासीवाल का फ़ोटो स्टूडियो

मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—52

  • प्रकाश उप्रेती

तब कैमरे का फ्लैश चमकना भी चमत्कार लगता था. कैमरा देख लेना ही चाक्षुष तृप्ति का चरम था. देखने के लिए हम सभी बच्चों की भीड़ इकट्ठा हो जाया करती थी और कैमरे को लेकर हम becauseअपना गूढ़ ज्ञान आपस में साझा करते थे. हम सबकी बातों में यह बात कॉमन होती कि- “हां यार कैमरा गोर कदयूं” (कैमरा गोरा कर देता है). इसके बाद जिसमें फेंकने का जितना सामर्थ्य होता वह उतनी बातें बनाता था. जबकि कैमरा हम सब ने दूर से ही देखा होता था.

कैमरा

गाँव में तब फ़ोटो खिंचाने के कुछ ही मौके होते थे. so उनमें से एक गाँव की ‘दीदियों’ (बहनों) द्वारा शादी के लिए फोटो खिंचवाने का होता था. एकदम चटक रंग के सूट में फ़ोटो खिंचवाया जाता था जिसमें अक्सर पीछे का बैकग्राउंड हरा, नीला और आसमानी होता था. फ़ोटो एकदम सावधान की मुद्रा में खिंचवाया जाता था. उसमें कोई भाव या पोज़ नहीं होते थे. बस एक पूरा फ़ोटो आना चाहिए इतना काफी होता था. बाकी उसमें वही एक-दो रंग भरने का काम फोटोग्राफर का होता था.

कैमरा

फ़ोटो एक को खिंचवानी होती लेकिन उत्सुकता जितने गए हुए हैं, उन सब में होती थी. जब तक अंदर फ़ोटो खिंच रही होती तब तक हम बाहर लगी कुछ फोटो को निहारते हुए soउनमें खुद को देख रहे होते थे. जिस भी दीदी को फ़ोटो खिंचवानी होती, उनका रास्ते भर में एक ही तकिया कलाम होता- “छि यार फ़ोटो खिंचें हैं, मैकें सरम लगें”. 

कैमरा

तब हमारे यहाँ से फ़ोटो खिंचवाने मांसी या भिकियासैंण जाते थे. मांसी में एक देवीदत्त मासीवाल जी का फ़ोटो स्टूडियो हुआ करता था. उस बाजार और इलाके भर का वही इकलौता फ़ोटो स्टूडियो था. मांसी बाजार का जो चौराहा है उससे चौखुटिया रोड़ की तरफ जाने में 2-3 दुकान छोड़कर उनका वो स्टूडियो था. एक छोटी सी दुकान, becauseउसमें कांच का एक दरवाजा जिस पर ‘देवीदत्त मासीवाल फ़ोटो स्टूडियो’ लिखा रहता था. दुकान अंदर से दो हिस्सों में बाँट रखी थी. बाहर वो बैठते थे. अंदर दीवार पर दो परदे लगे हुए थे और एक लकड़ी की बैंच रखी रहती थी. वही उनका स्टूडियो था.

कैमरा

गाँव से जब भी कोई ‘दीदी’ (बहन) फ़ोटो खिंचाने जाती थीं तो उनके साथ कोई न कोई जाता था. कभी तो पहले से दिन तय कर लिया जाता और फिर सभी किसी न किसी काम से बड़ा बाजार, becauseमांसी जाते थे. उसी में फ़ोटो खिंचाने वाला काम भी हो जाता था. फ़ोटो एक को खिंचवानी होती लेकिन उत्सुकता जितने गए हुए हैं, उन सब में होती थी. जब तक अंदर फ़ोटो खिंच रही होती तब तक हम बाहर लगी कुछ soफोटो को निहारते हुए उनमें खुद को देख रहे होते थे. जिस भी दीदी को फ़ोटो खिंचवानी होती, उनका रास्ते भर में एक ही तकिया कलाम होता- “छि यार फ़ोटो खिंचें हैं, मैकें सरम लगें” (फ़ोटो खिंचाने में मुझे शर्म आती है). सब उन्हें चिढ़ाते रहते थे.

कैमरा

फ़ोटो वाला, खींचने के बाद 15 से 20 दिन का समय देता था. कहता, “फलाने दिन आ जाना नहीं तो तुम्हारे गाँव का कोई आएगा तो उसके हाथ भेज दूँगा”. 15-20 दिन के बाद सावधान अवस्था वाली जब फ़ोटो आती तो उसे देखने की अति उत्सुकता रहती थी. अपने को ही फ़ोटो में देखने का अद्भुत आकर्षण होता था. फ़ोटो butकुछ सहेलियों को ही दिखाई जाती थी बाकी लोग तो उन्हें देख भी नहीं पाते थे. इधर फ़ोटो मिली, एक झलक उन्हें देखा और फिर सीधे संदूक में छुपा दी जाती थीं. फ़ोटो का ठिकाना ताले वाला संदूक ही होता था.

कैमरा

मांसी में तब बहुत बड़ा कौतिक लगता था. उस कौतिक को “सल्डी सुंगनाथ” बोलते थे. कई गाँव के ‘नगर-निसाण’ वहाँ आते थे. पूरा मांसी बाजार देखने लायक होता था. becauseबाजार खत्म होने के बाद जो आगे तप्पड़ है उसमें सफेद बैलों की जोड़ियां बिकती थीं. पूरे बाजार का ऐसा दृश्य होता जो कभी आँखों से ओझल नहीं हो सकता था. 

कैमरा

एक बार ईजा और मैं मांसी के ‘कौतिक’ (मेला) गए हुए थे. ईजा कहीं भी जाए तो मैं पीछे से लग जाता था. अगर साथ नहीं ले जाती थीं तो जमीन में सर पटक देता था. इस सर पटकू जिद के सामने ईजा झुक जाती थीं और गुस्से में ही सही साथ ले जाने के लिए तैयार हो जाती थीं. उस दिन भी ज़िद करके मैं चल दिया. soईजा को कौतिक का इतना कोई शौक नहीं था. उस दिन जाना मजबूरी थी. एक बुआ जी ने दिल्ली से कुछ सामान भिजवाया हुआ था. सामान जिनके हाथ भेजा उन्होंने जवाब दिया था कि वो सामान लेकर कौतिक में आएंगे, वहाँ आकर ले जाना.

कैमरा

मांसी में तब बहुत बड़ा कौतिक लगता था. butउस कौतिक को “सल्डी सुंगनाथ” बोलते थे. कई गाँव के ‘नगर-निसाण’ वहाँ आते थे. पूरा मांसी बाजार देखने लायक होता था. बाजार खत्म होने के बाद जो आगे तप्पड़ है उसमें सफेद बैलों की जोड़ियां बिकती थीं. पूरे बाजार का ऐसा दृश्य होता जो कभी आँखों से ओझल नहीं हो सकता था.

पूरा कौतिक देखने और समान soले लेने के बाद जब हम घर को आने लगे तो ईजा के मन में पता नहीं क्या ख्याल आया. वह मुझे फ़ोटो स्टूडियो में ले गईं . देवीदत्त जी से कहा इसकी एक अच्छी सी फ़ोटो खींच दो. देवीदत्त जी हमें बुबू के कारण जानते थे. उन्होंने तुरंत एक फोटो खींच दी और ले जाने का दिन बता दिया. ईजा और मैं फिर वापस आ गए. घर में तब मेरे बाल काटने की बात चल रही थी. शायद ईजा के मन में यही ख्याल आया हो….

कैमरा

उसके बाद के दिनों में तो छोटा कैमरा कुछ लोग खरीदने लगे थे. खासकर दिल्ली या मुंबई में जो लोग अच्छी नौकरी करते थे वह जब किसी ब्याह-बारात में गाँव आते तो निगेटिव लगने वाला कैमरा भी ले आते थे. तब कुछ फोटो हमारी भी खींच जाती थी. फ़ोटो तब खींची जाती थी लेकिन देखने को अगले साल ही मिलती थी. butफ़ोटो खींच कर वो वापस शहर चले जाते थे. वहीं निगेटिव धुलता और फ़ोटो बनती थी. हमको तभी मिलती जब वो अगली गर्मियों में गांव आते या उनको कोई गाँव आने वाला मिल जाता था. कई बार किसी के हाथ भी भिजवा देते थे. तस्वीर में तब खुद को becauseदेखना सेल्फ़ी से अलहदा अनुभव होता था. सेल्फ़ी के दौर में उस अनुभव और उत्सुकता की कल्पना भी नहीं की जा सकती है.

कैमरा

रूटीन के अनुसार सुबह becauseसे झाड़ू-पोछा करने के बाद रात के बर्तन धोते-धोते दिमाग बहुत दूर अतीत में चला गया. स्मृतियाँ पुरानी यादों को लगभग धकेलते हुए आंखों के सामने ला रही थीं. ऐसे में कुछ पुरानी फाइलें देखने लगा तो उनमें अंतर्देशीय, पोस्टकार्ड और एक एल्बम हाथ लग गई. उसने तो मूड को एकदम ‘अताउल्लाह खान’ की धुन में रंग दिया.

कैमरा

आज तकरीबन 3 महीने के लॉक डाउन के becauseदौरान पहला ऐसा मौका आया जब थोड़ा अकेला और घनघोर यादों की गिरफ़्त में खुद को कैद पाया. रूटीन के अनुसार सुबह से झाड़ू-पोछा करने के बाद रात के बर्तन धोते-धोते दिमाग बहुत दूर अतीत में चला गया. butस्मृतियाँ पुरानी यादों को लगभग धकेलते हुए आंखों के सामने ला रही थीं. ऐसे में कुछ पुरानी फाइलें देखने लगा तो उनमें अंतर्देशीय, पोस्टकार्ड और एक एल्बम हाथ लग गई. उसने तो मूड को एकदम ‘अताउल्लाह खान’ की धुन में रंग दिया.

कैमरा

उनको उलटते-पलटते और देखते हुए becauseयादों के सागर में डूब गया. तब से एक स्थायी उदासी और अकेलेपन का एहसास घर कर गया था. बहुत कुछ के बाद भी आज कुछ लिखने-पढ़ने में रत्तीभर भी मन नहीं लग रहा था. अक्सर ऐसा कम ही होता है. हर परिस्थिति में ढलने और स्थितियों से उभरना सीख चुका हूँ पर आज उस फ़ोटो को देखा तो यादों के सागर से ‘हिया भर ‘आया…

सीख

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.पहाड़ के सवालों को लेकर मुखर रहते हैं.)

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