कोरोना जनित संकट: मजदूरों को झेलनी पड़ी सबसे अधिक मुसीबत और बेरोजगारी

  • अनीता मैठाणी

सुख हो, दुख हो, आपद हो, विपद हो बच्चे जब तक माता-पिता के छत्र-छाया में होते हैं सब झेल जाते हैं. क्योंकि माता-पिता अपनी जान पर खेलकर भी अपने नन्हें-मुन्नों को आंच नहीं आने देते. यदि विचार करें तो जनता के लिए सरकारें भी माता-पिता की भूमिका में होते हैं यदि वे इसे स्वीकारें और दायित्व निभाएं तो. परंतु यहाँ होता कुछ और है चुनाव के वक्त सरकारें जनता को माई-बाप कहने को तैयार रहती हैं और चुनाव जीतते ही सारे वादों को भुलाकर अधिष्ठाता बन बैठती है.

देश में कोरोना की शुरुआत से पहले ही सरकार ये दावा कर चुकी थी कि हमारी तैयारी पर्याप्त है और यूं भी हमारे देशवासियों को घबराने की बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं है. वैसे भी ये जो कोरोना वायरस है इससे लड़ने की क्षमता हममें अधिक है क्यूंकि हम जिन परिस्थितियों में रहते हैं उससे हमारी रोग-प्रतिरोधक क्षमता इतनी मजबूत हो चुकी है कि हमें ऐसे छोटे-मोटे वायरस परेशान नहीं कर सकते वगैरह-वगैरह. यह बात फरवरी के आखिरी सप्ताह तक कही जाती रही.

ख़ैर कोरोना वायरस ने चैलेंज स्वीकारा और विदेशों से आने वाले हवाई जहाजों में आए यात्रियों के शरीर में बैठकर हमारे देशवासियों की रोग-प्रतिरोधक क्षमता को आजमाने आ पहुंचा.

स्वास्थ्य विभाग के दिशा-निर्देशों और चिकित्सकों, स्वास्थ्यकर्मियों और अस्पतालों के अथक प्रयासों ने स्थिति काफी हद तक संभाल रखी है. इस बीच इस बात की भी बड़ी चर्चा होती रही कि इतनी बड़ी जनसंख्या के साथ भारत काफी नियंत्रण बनाये हुए है यानी कोविड-19 की लड़ाई में भारत के शासन-प्रशासन द्वारा किये गये इंतेजामात कई देशों की तुलना में प्रशंसनीय है.

पहला संक्रमित केस था सउदी अरब से लौटे एक व्यक्ति में जिसकी जानकारी आई 30 जनवरी को. इस व्यक्ति से यह संक्रमण गया उसकी माँ में और फिर विदेशों से आने वाले मुसाफ़िरों के भीतर मुंह छिपाए तमाम स्क्रीनिंग और लापरवाही के पैमानों को धता बता कर यह वायरस यहाँ धड़ल्ले से एंट्री पाता रहा. और हम सरकार के बेमानी बयानों पर इत्मीनान से विश्वास करते रहे.

फिर 13 मार्च 2020 को कर्नाटक से खबर आई कोरोना के संक्रमण से हुई पहली मौत की और सउदी अरब से लौटे व्यक्ति की माँ भी इससे नहीं लड़ पाई और उन्होंने भी अपनी जान गंवा दी और ये सिलसिला चल निकला.

कोरोना महामारी के चलते मजदूर यों ही पैदल अपने गांव की ओर चल पड़े। फोटो गूगल से साभार

भारत की आबादी विश्व की कुल आबादी का 17.7 प्रतिशत है. इतनी बड़ी जनसंख्या के साथ कोविड-19 वैश्विक महामारी की लड़ाई भारत के लिए बेहद जटिल होने वाली है इस बात का सभी को अंदेशा था.

स्वास्थ्य विभाग के दिशा-निर्देशों और चिकित्सकों, स्वास्थ्यकर्मियों और अस्पतालों के अथक प्रयासों ने स्थिति काफी हद तक संभाल रखी है. इस बीच इस बात की भी बड़ी चर्चा होती रही कि इतनी बड़ी जनसंख्या के साथ भारत काफी नियंत्रण बनाये हुए है यानी कोविड-19 की लड़ाई में भारत के शासन-प्रशासन द्वारा किये गये इंतेजामात कई देशों की तुलना में प्रशंसनीय है.

असल में वैक्सीन कब तक आएगी और कब तक रोगियों पर इसका सफल परीक्षण हो पाएगा ये सब बातें वक्त आने पर ही पता चल पाएंगी. वैक्सीन के सामान्य उपयोग से पहले इसको तीन विभिन्न तीन चरणों में टेस्टिंग किए जाने का प्रचलन रहा है. जिसकी वजह से वैक्सीन को अंतिम रूप  देने में समय लगता है.

आज भारत में मौत का आंकड़ा 6,929 पर जा पहुँचा और संक्रमितों की संख्या 2,47,000 पर पहुंच गयी है. हालांकि कोविड-19 से ग्रस्त 1,19,000 लोग ठीक भी हुए हैं.

कोविड-19 अब आया है तो साल भर से पहले इसकी वापसी संभव नहीं लग रही है क्योंकि तमाम देशों के वैज्ञानिकों-चिकित्सकों, शोधकर्ताओं द्वारा वैक्सीन के दावों के बाद भी कोई सफलता हाथ नहीं लगी है. निकट भविष्य में यदि वैक्सीन बना भी ली जाती है तो जानकारों द्वारा इसके प्रयोग में आने में साल भर का समय लग सकता है. असल में वैक्सीन कब तक आएगी और कब तक रोगियों पर इसका सफल परीक्षण हो पाएगा ये सब बातें वक्त आने पर ही पता चल पाएंगी. वैक्सीन के सामान्य उपयोग से पहले इसको तीन विभिन्न तीन चरणों में टेस्टिंग किए जाने का प्रचलन रहा है. जिसकी वजह से वैक्सीन को अंतिम रूप  देने में समय लगता है.

अब कोविड-19 का दूसरा पहलू जो इससे कोई साम्य नहीं रखता लेकिन इससे बुरी तरह प्रभावित है-

वो है प्रवासी मजदूर- जो अपने गाँव-घर को छोड़कर खाने कमाने के उद्देश्य से महानगरों में आ बसता है. हमारे देश का श्रमिक समाज, मजदूर वर्ग, रोज कमाने और रोज खाने वाला तबका.

वो समाज जो स्वप्न में भी हवाई जहाज में यात्रा नहीं करता, विदेशों में जाने के सपने नहीं देखता, पर हाँ उनके बच्चे आज भी आसमान में उड़ते हवाई जहाज की आवाज पर आसमान की ताकते हुए हवाई जहाज के साथ दौड़ लगाते हुए ताली बजाकर खुश हो लेते हैं.

वैश्विक महामारी जो नाम से ही संकेत करती है कि वो विश्व के कोने-कोने में घूम रही है, उसका दंश सबसे अधिक हमारा श्रमिक वर्ग झेल रहा है. और इस हद तक झेल रहा है जिसकी किसी ने भी कल्पना नहीं की होगी.

संक्रमण से बचाव के पहले निदान के तौर पर लॉकडाउन का कदम लगभग सभी देशों ने उठाया, उसी तर्ज पर हमारे देश में भी प्रधानमंत्री द्वारा 22 मार्च को पहले जनता कफर््यू लगाया गया तत्पश्चात् 24 मार्च को रात 8 बजे घोषणा की गयी कि 4 घंटे पश्चात् यानि कि आधी रात 12 बजे से 21 दिन के लिए संपूर्ण देश में लॉकडाउन किया जा रहा है.

शहर से घर लौट चलने की जद्दोजहद के बीच 383 से अधिक मजदूरों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा- कहीं रेलवे ट्रैक पर, तो कहीं सड़क दुर्घटना में, कभी स्टेशन पर सड़क पर भूख-प्यास से तड़पते हुए, आए दिन ये खबरें आती रहीं.

माना कि कोविड-19 से निपटने के लिए लॉकडाउन नितांत आवश्यक था, दूसरा कोई विकल्प नहीं था. समस्त देशवासियों ने भी इसकी महत्ता को समझा. लाॅकडाउन से रोजगार बंद होने के कारण मजदूर वर्ग पर आए इस भुखमरी के संकट को सरकार के साथ-साथ कई संगठनों, संस्थाओं, समितियों, कॉरपोरेट्स, व्यक्तिगत लोग सामने आए और इन रोज कमाने और रोज खाने वाले श्रमिकों के 21 दिन के खाने-पीने के इंतजाम में लग गये. जिससे जितना बन पड़ा वो करने लगे. पर दूसरी तरफ कोरोना का कहर कम होने की बजाय बढ़ता रहा.

जैसे-तैसे 25 मार्च को प्रारम्भ हुआ 1.0 लॉकडाउन 14 अप्रैल को पूरा हुआ और लॉकडाउन 2.0 अगले 21 दिनों के लिए लगा दिया गया. जबकि प्रवासी मजदूरों की समस्या जस की तस बनी हुई थी. कभी आधा पेट कभी एक टाइम खाकर गुजारा कर रहे मजदूर के धैर्य का बांध टूट गया. वे एक समय के खाने के इंतजार में घंटों सड़कों पर इंतजार करते रहे और धीरे-धीरे खाना खिलाने वालों के चूल्हे की आग ठंडी हो गयी, पर पेट की आग नहीं बुझी. एक बार खा लेने से कहाँ बुझती है पेट की आग, पेट की आग तो चिता की आग के साथ ही ठंडी होती है. 28 मार्च को दिल्ली के प्रवासी मजदूर सड़कों पर आ गये, पुलिस प्रशासन द्वारा रोका गया तो कहने लगे उन्हें राशन पानी की दिक्कत हो रही है उन्हें घर जाना है.

ये भूख ही है जो मजदूरों को अपने देस से दूर परदेस ले जाती है और फिर वे अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा परदेस में गुजार देते हैं. इस बीच उनकी अगली पीढ़ी तैयार होती रहती है यात्राओं के लिए और ये क्रम यूं ही चलता रहता है. इस वक्त जो ये मजदूर घर वापसी के लिए दिन-रात एक किए दे रहे हैं उसका कारण भी भूख ही है.

कष्टों को, दुःखों को सहने की भी एक उम्र होती है एक सीमा होती है. अपरिचित मददगारों के हाथ जब छूटने लगे तो अपने याद आने लगे- अपना गाँव, अपनी माटी, सगे-सम्बन्धी आदि. जहाँ खाने-पीने के भी लाले पड़ रहे थे वहाँ मकानमालिकों ने किराये के लिए परेशान करना शुरू कर दिया. ऐसे में मजदूर क्या करते, घबरा गये और गाँव का रूख करने की सोचने लगे.

नामालूम कहाँ से उड़ते-उड़ते उनके पास खबर आई कि गाँव के लिए ट्रेनें चल रही हैं, तो कहीं खबर आई कि बसें खड़ी हैं और आनन फानन में हजारों हजार मजदूर सामान पीठ पर, सिर पर लादे चल पड़े. ये सब जानकारी हमें टी0वी0 के माध्यम से मिल रही थी. एक तरफ संक्रमण से बचाव के लिए सोशल डिस्टेंसिंग के लिए लॉकडाउन का आदेश और दूसरी तरफ हजारों की भीड़. स्थिति को संभालने के लिए जो सबसे पहला तरीका काम में लाया गया वो था पुलिस की लाठी. भूख से बेहाल मजदूरों को पुलिस की लाठी ने दोहरी मार मारा. वापस घरों को दौड़ाया, पर अब मजदूरों को ये एहसास हो गया कि मदद के हाथ अब और नहीं आएंगे, काम बंद पड़े हैं, कमाएंगे नहीं तो भूखों मर जाएंगे यहाँ परदेस में. अब चाहे जो हो वे पैदल ही घर को निकलेंगे… और देखते ही देखते कई राज्यों से मजदूर शहरों के हाईवे में पैदल, साइकिल पर, रिक्शा पर निकल पड़े अपने परिवार के साथ. 300, 400, और 1000-1300 किमी0 की यात्रायें पैरों से ही नापने के लिए.

जहाँ गाड़ियों से सफर करते हम और आप पूरे साजो-सामान के साथ लैस, जेबों में आवश्यकता से अधिक रूपये रखकर निकलते हैं वहाँ वे एक जोड़ी कपड़ा पहन, एक जोड़ी कपड़ा साथ लिए चार-छः सौ ज्यादा से ज्यादा तीन-चार हजार रूपये जेब में रखकर पैदल ही निकल पड़े हैं बिना किसी सवारी के. हम और आप तो लाॅकडाउन का पालन कर रहे हैं क्योंकि हमारा पेट भरा हुआ है 21-21 दिन के लाॅकडाउन की ऐसी 5-6 सीरीज़ बिना परेशानी के काट सकते हैं. पर ये मजदूर वर्ग जो तीन-चार दिन भी बिना दिहाड़ी के मुसीबत में आ जाता है, वो ऐसे समय तो बिल्कुल ही बर्बाद हो जाएंगे.

सरकार की नज़र कुछ देर से ही सही इन प्रवासी मजदूरों पर पड़ी और शुरू हुआ सिलसिला इन्हें इनके घरों तक पहुँचाने का, इनके लिए ट्रेनें चलाने का. इसमें भी इतनी अव्यवस्था हुई कि मजदूरों को कई-कई घंटे और कभी-कभी तो कई दिन का इंतज़ार करना पड़ा स्टेशनों पर. यहाँ भी कहीं ट्रेनें रास्ता भटक गईं तो कहीं जिंदगी ट्रेन के सफर में ही थम गईं.

शहर से घर लौट चलने की जद्दोजहद के बीच 383 से अधिक मजदूरों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा- कहीं रेलवे ट्रैक पर, तो कहीं सड़क दुर्घटना में, कभी स्टेशन पर सड़क पर भूख-प्यास से तड़पते हुए, आए दिन ये खबरें आती रहीं.

तमाम असुविधा, कष्टों को भोगकर ये थके हारे प्रवासी मजदूर अब जब घर पहुँचे हैं तो पता चलता है कि लाॅकडाउन खुल रहा है अनलॉक हो रहा है देश…

जिस शहर से भूखे-बिलबिलाते भाग कर गाँव आए थे अब खाने-कमाने फ़िर वापस वहीं जाना होगा. क्योंकि उनके अपने प्रदेश में तो उनके लिए रोजगार जमाने में सरकार को समय लगेगा और नामालूम कितना समय लगेगा.

महानगरों में उनकी कितनी आवश्यकता है ये हम सब भलीभांति जानते हैं एकबारगी देश राजनेताओं-अफसरशाहों के बगैर चल सकता है परंतु मजदूर के बिना देश नहीं चल सकता ये सच्चाई है और सबसे बड़ा सच यही है. तभी, अब महानगरों से उन्हें बुलावा आ रहा है और वे लौट रहे हैं… दूसरी कोई राह नज़र नहीं आती..

कोई उम्मीद बर नहीं आती,
कोई सूरत नज़र नहीं आती.
मौत का एक दिन मुअय्यन है,
नींद क्यों रात भर नहीं आती.
                    -मिर्ज़ा ग़ालिब

(लेखिका कवि, साहित्यकार एवं जागर संस्था की सचिव हैं)

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